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उत्तर भारत के बहुजनों में राजनीतिक चेतना जगाने वाले कांशीराम

कांशीराम का जीवन स्वयं में एक आंदोलन है। एक ऐसा आंदोलन जिसने उत्तर भारत के बहुजनों की सोच को नया आयाम दिया। उन्हें ताकत दी और बताया कि 85 फीसदी बहुजन कैसे इस देश के संसाधनों पर अपना अधिकार प्राप्त कर सकते हैं। उनके जीवन और योगदान के बारे में बता रहे हैं अलख निरंजन

कांशीराम (15 मार्च, 1934 – 9 अक्टूबर, 2006) पर विशेष

बाबासाहब डॉ. आंबेडकर का मानना था कि भारत का इतिहास ब्राह्मण एवं बौद्ध संस्कृतियों के बीच संघर्ष का इतिहास है। 185 ईसा पूर्व में ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने बौद्ध सम्राट बृहद्रथ की धोखे से हत्या कर दी और स्वयं राजा बन बैठा। उसने बौद्ध संस्कृति के विरुद्ध भयंकर हिंसक अभियान छेड़ा। यहां तक कि उसने बौद्ध भिक्षुओं का सिर काटकर लाने पर सोने की मुद्राएं पुरस्कार स्वरूप देने की राजज्ञा जारी कर दी। लेकिन केवल हिंसा और राजसत्ता पर अधिपत्य के बल पर बौद्ध संस्कृति को नष्ट करना संभव नहीं था। इसलिए ब्राह्मण धर्मग्रंथों की रचना की गयी। इन धर्मग्रंथों के माध्यम से बौद्ध संस्कृति के मूल्यों व जीवन पद्धति के विरुद्ध व्यापक प्रचार प्रसार किया गया तथा 11वीं व 12वीं सदी. तक आते-आते बौद्ध संस्कृति के साहित्य, इमारतें, स्तूपों आदि को नष्ट कर दिया गया। लगभग 1000 वर्षों तक ब्राह्मण धर्मावलंबियों का बौद्ध भिक्षुओं तथा बौद्ध जनता के विरुद्ध रक्तरंजित अभियान चलता रहा। परिणामतः बौद्ध धर्म जिस धरती पर पैदा हुआ वहीं पर नष्ट कर दिया गया। मध्य काल में इस्लाम के आगमन एवं राजसत्ता पर इस्लाम के अनुयायियों के अधिपत्य स्थापित होने के पश्चात बौद्ध जनता को ब्राह्मणों के रक्तरंजित अभियान से थोड़ी राहत मिली, लेकिन तब तक ब्राह्मणों का भारतीय समाज पर सामाजिक और सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित हो चुका था और बौद्ध जनता शूद्र और अछूत के रूप में अपने स्वर्णिम अतीत को भूलकर अभिशप्त जीवन व्यतीत करने की आदी हो चुकी थी। फिर भी इस्लाम के आगमन तथा राजसत्ता पर ब्राह्मणों का अधिपत्य समाप्त होने के कारण बौद्ध संस्कृति के मूल्यों को स्थापित करने का आंदोलन प्रस्फुटित हुआ। 

 

ऐसे शुरू हुआ बदलाव, रैदास-कबीर से लेकर फुले-आंबेडकर बने बदलाव के सारथी

रैदास तथा कबीर जैसे महापुरुष इसी दौर में पैदा हुए जिन्होंने ब्राह्मणों एवं उनके धर्मग्रंथों को चुनौती दी। इस आंदोलन को तुलसीदास जैसे भक्त कवियों ने प्रभावहीन करने का भरपूर प्रयास किया। यूरोपीय पुनर्जागरण तथा अंग्रेजों के आगमन के पश्चात् ब्राह्मणों की राजसत्ता पर पकड़ ढीली पड़ी लेकिन सामाजिक जीवन पर सांस्कृतिक वर्चस्व अभी भी कायम था। आधुनिक भारत में जोतीराव फुले ने इस तथ्य को रेखांकित किया है। ‘गुलामगिरी’ की प्रस्तावना में वे लिखते हैं कि “धर्म के नाम पर ब्राह्मण, शूद्र के किसी भी छोटे-बड़े काम में हस्तक्षेप करता है। घर, खेत-खलिहान या कोर्ट कचहरी कहीं भी जाए, ब्राह्मण वहां मौजूद होगा और किसी न किसी बड़े बहाने से वह अपनी धूर्ततापूर्ण बुद्धि से उस शूद्र का जितना हो सके शोषण करेगा।” 

तथाकथित स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान डॉ. आंबेडकर ने ब्राह्मणों के वर्चस्व से मुक्ति के लिए अछूतों के लिए विधायिका में पृथक निर्वाचक मंडल तथा दो मतों के अधिकार के साथ ही शिक्षा तथा सेवा क्षेत्र में जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने की मांग रखी। गांधी को पृथक निर्वाचक मंडल और दो मतों का अधिकार स्वीकार नहीं था। इसलिए उन्होंने आमरण अनशन प्रारंभ कर दिया। फलस्वरूप पूना पैक्ट हुआ जिससे अछूतों की राजनीतिक मुक्ति का मार्ग प्रशस्त नहीं हो पाया। संविधान के मुख्य शिल्पकार होने के कारण डॉ. आंबेडकर, अछूतों सहित शूद्रों एवं महिलाओं को भी ‘एक व्यक्ति एक मत‘ तथा एक मत मूल्य दिलाने में सफल हुए। विधायिका, शिक्षा एवं सेवा क्षेत्र में अछूतों को जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व प्रावधान भी मिला तथा शूद्रों के लिए भविष्य में शिक्षा और सेवा क्षेत्र में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित कराने के लिए अनुच्छेद 340 का प्रावधान किया गया। 

कांशीराम (15 मार्च, 1934 – 9 अक्टूबर, 2006)

इस प्रकार लगभग सौ वर्षों के संघर्षों के पश्चात भारत की जनता पर 2000 वर्षों से स्थापित ब्राह्मणों के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक व सांस्कृतिक वर्चस्व को तोड़ने का प्रावधान भारतीय संविधान में किया गया। आधुनिक भारत में जोतीराव फुले, छत्रपति शाहूजी महाराज, पेरियार रामास्वामी नायकर, डॉ. आंबेडकर के कार्यों तथा आंदोलन ने ब्राह्मण वर्चस्व के विरुद्ध धरातल तैयार किया, जिसका प्रभाव भारत के पश्चिमी तथा दक्षिणी क्षेत्र में पड़ा भी। परंतु उत्तर भारत, जिसे ‘काउ बेल्ट’ कहते हैं, में ब्राह्मण वर्चस्व संविधान लागू होने के पश्चात भी जारी था। उत्तर भारत में जिस महानायक ने ब्राह्मण वर्चस्व को व्यवहारिक धरातल पर यानी व्यवहारिक राजनीति में, सामाजिक जीवन में तथा सांस्कृतिक क्रियाकलापों में चुनौती दी, उस महानायक का नाम मान्यवर कांशीराम है। उन्होंने कांशीराम ने 1984 में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) नामक राजनीतिक दल बनाकर भारतीय राजनीति में सक्रिय हस्तक्षेप की शुरूआत की। इससे पूर्व वे दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (डी.एस.-4) और बैकवर्ड एंड माइनारिटीज कम्युनिटीज इम्प्लायज फेडरेशन (बामसेफ) नामक सामाजिक संगठनों का सफल संचालन कर चुके थे। 

पंजाब के ख्वासपुर में जन्में और पूरे उत्तर भारत के हाे गए

15 मार्च 1934 में पंजाब प्रांत के गांव में खवासपुर में जन्मे कांशीराम ने 30 वर्ष की उम्र में 1964 में सरकारी नौकरी छोड़कर सामाजिक जीवन में कदम रखा था तथा लगभग 20 वर्षों के सक्रिय सामाजिक जीवन के पश्चात 50 वर्ष की उम्र में उन्होंने राजनीतिक दल का निर्माण किया। इन 20 वर्षों में कांशीराम ने रिपब्लिकन पार्टी से लेकर दलित पैंथर तक, लगभग सभी तरह के दलित आंदोलनों से संबंध रखा तथा समझने का प्रयास किया। उन्होंने जोतीरावफुले, छत्रपति शाहूजी महाराज तथा डॉ. आंबेडकर के साहित्य का गहन अध्ययन किया। वे पूरे देश में घूमते रहे। 1973 से ही दलित समाज के पढ़े-लिखे कर्मचारियों-अधिकारियों को जागरूक करने के उद्देश्य से उन्होंने पूरे देश में संगोष्ठियों का आयोजन किया। कहना न होगा कि 1973 से लेकर 1984 तक उन्होंने ने पूरे देश में एक वैचारिक आंदोलन खड़ा किया। इस आंदोलन का उद्देश्य भारत की सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों के प्रति दलित तथा पिछड़े समाज को जागरूक करना था। इस लंबे वैचारिक अभियान ने न केवल सामाजिक व सांस्कृतिक जागरूकता पैदा किया बल्कि स्वयं कांशीराम भी अपनी वैचारिकी को परिपक्व और धारदार बनाने में सफल हुए। 

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इन कारणों से बहुजनों को कहा सवर्णों का चमचा, लिखी किताब

अपनी वैचारिकी एवं समझदारी को देश के सामने प्रस्तुत करने के लिए उन्होंने ‘चमचा युग’ नामक पुस्तक 1982 में लिखी। इस पुस्तक में उन्होंने दलित-पिछड़ों के आंदोलन पर एक समालोचनात्मक दृष्टि डाली तथा अपने समय का मूल्यांकन किया। इस पुस्तक में उन्होंने कुछ मूलभूत तथ्यों को रेखांकित किया। जैसे- भारत की कुल जनसंख्या में 85 प्रतिशत लोग शोषित और उत्पीड़ित हैं और उनका नेता नहीं है। इस जनसंख्या में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़े वर्ग की जातियों की आबादी शामिल है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को संविधान में जो प्रतिनिधित्व दिया गया है, संयुक्त निर्वाचक मंडल के कारण वह सवर्णों  का औजार अर्थात् चमचा बनकर रह गया है। वह अपने समाज का नेतृत्व करने में समर्थ नहीं है। अन्य पिछड़ी जातियों के लिए संविधान अनुच्छेद 340 का प्रावधान किया गया। इसके अंतर्गत काका कालेलकर आयोग तथा मंडल आयोग बनाए गए लेकिन अभी तक (1982) इन रिपोर्टों पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। परिणामस्वरूप 52 प्रतिशत जनसंख्या वाला अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) राजनैतिक रूप से नेतृत्वविहिन है। उस समय हरियाणा विधान सभा की 90 सीटों में केवल एक विधायक अन्य पिछड़े वर्ग का था। 17 प्रतिशत से अधिक मुसलमान शासक जातियों, सवर्णें की दया पर निर्भर हैं सांप्रदायिक दंगों का डर उन्हें सदैव सताता रहता है। ईसाई बेबस घिसट रहे हैं। सिक्ख सम्मानजनक जीवन के लिए संघर्ष कर रहे हैं। बौद्ध तो अभी पहचान भी नहीं बना पाए हैं। यह परिस्थितियां स्वतः प्रमाणित करती है कि 85 प्रतिशत जनता राजनैतिक रूप से नेतृत्वविहिन है। राष्ट्रीय स्तर के 7 राजनैतिक दल तथा राज्य व क्षेत्रीय स्तर की अनेक पार्टियां शासक जातियों के कब्जे में हैं। वे नहीं चाहतीं कि इन 85 प्रतिशत शोषित उत्पीड़ित जनता के बीच से समर्थ और सक्षम नेतृत्व पैदा हो।

किताब में बतलाया कि कैसे हो सकता है व्यापक बदलाव

इसी पुस्तक में कांशीराम ने अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति में एक छोटा ही सही लेकिन संभ्रांत वर्ग के उदय को रेखांकित किया है। राजनैतिक आरक्षण तथा नौकरियों में आरक्षण से कुछ लोगों की आर्थिक हैसियत सम्मानजनक जीवन जीने लायक हो गयी है, लेकिन जाति के कारण उनको वह सम्मान नहीं मिलता, जिसके वे हकदार हैं। परिणामतः वे घुट-घुट कर जीवन जीने पर मजबूर हैं। उनमें कुछ लोग अभिजात्य व्यवसायिकता के शिकार भी हो चुके हैं। इनकी संख्या 20 लाख से अधिक हैं। इन्हीं पढ़े-लिखे लोगों पर डॉ. आंबेडकर ने अपने आंदोलन का दायित्व सौंपा था, लेकिन आज वे खुद अपने समाज से कटे हुए हैं। शेष समाज अपने जीवनयापन के लिए जमींदारों पर बहुत अधिक निर्भर है। उनके लिए उत्पीड़न से लड़ना संभव नहीं है, क्योंकि इसका कारण गरीबी और भुखमरी है। स्वतंत्रता के लिए थोड़ा सा आग्रह भी उन्हें बेरोजगार कर सकता है; जिससे वे डरते हैं। केवल शोषणकारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बदलाव ही उन्हें मुक्त कर सकता है। शासक जाति की सरकारों की इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है। उत्पीड़ित ग्रामवासी अपने बूते पर बदलाव नहीं कर सकता तथा जो उत्पीड़ित संभ्रांत वर्ग कुछ करने की स्थिति में है व अधिसंख्य लोगों से अलग हो गया है। शहरी इलाकों की मलीन बस्तियां गांव में सामंत जमींदारों के सताए हुए लोग आकर रह रहे हैं। यहां भी ये शोषण और उत्पीड़न के शिकार है।

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इन 85 प्रतिशत शोषित पीड़ित जनता के बरक्स 15 प्रतिशत शासक जातियों की स्थिति की तुलना करने पर मामला और स्पष्ट होता है। कांशीराम का स्पष्ट मानना है कि  अंग्रेजों के जाने के बाद राजनीतिक और प्रशासनिक स्तर पर अनुसूचित जातियों और जनजातियों को तो उनका हिस्सा मिला लेकिन अन्य पिछड़े वर्ग की जातियों का हिस्सा सवर्णों ने विशेषकर ब्राह्मणों ने हड़प लिया। कांशीराम रेखांकित करते हैं कि “मंडल आयोग की रिपोर्ट के अनुसार भारत की कुल आबादी में अन्य पिछड़ी जातियों का प्रतिशत 52 है। दूसरी ओर ब्राह्मणों और क्षत्रियों की संख्या 8 – 9 प्रतिशत है। किन्तु वर्तमान संसद में, इन 8-9 प्रतिशत लोगों का प्रतिनिधित्व 52 प्रतिशत सांसद करते हैं, जबकि 52 प्रतिशत अन्य पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व 8-9 फीसदी सांसद करते हैं। एक संसदीय लोकतंत्र में इस तरह के प्रतिनिधित्व से भारी अंतर पड़ता है। ब्राह्मणों की नौकरशाही पर कब्जे का जिक्र भी कांशीराम इस पुस्तक में करते हैं। उस समय केन्द्रीय कैबिनेट में 53 प्रतिशत ब्राह्मण, आई.ए.एस. अधिकारियों में 61 प्रतिशत ब्राह्मण भरे पड़े थे।

जब कांशीराम ने कहा – शोषितों को स्वयं सक्षम नेतृत्व पैदा करना होगा

समकालीन परिस्थितियों के विश्लेषण के पश्चात कांशीराम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि भले ही भारत 1947 में अंग्रेजों से स्वतंत्र हो गया तथा 26 जनवरी 1950 से लोकतांत्रिक, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, गणतांत्रिक राज्य के रूप में स्थापित हो गया है। लेकिन अभी भी राज्य मशीनरी पर सवर्ण जातियों विशेषकर ब्राह्मणों का वर्चस्व स्थापित है। इन सवर्ण जातियों का हित अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं ओबीसी की जातियों के शोषण एवं उत्पीड़न से जुड़ा हुआ है। अतः शासक जातियां कभी नहीं चाहती कि शोषित जातियों के अंदर से आत्मनिर्भर एवं प्रभावकारी राजनैतिक नेतृत्व उभरे। शोषित जातियों को अपने बीच से समर्थ एवं सक्षम नेतृत्व स्वयं पैदा करना होगा। एक ऐसा नेतृत्व जो अत्यधिक सक्षम, कल्पनाशील, रुचिशील, परिश्रमी और ज्ञानी हो तथा साथ ही साथ उसमें दूरदृष्टि धैर्य और लगन भी होनी चाहिए। यही नहीं, नेतृत्व को समझदार भी होना चाहिए उसमें उचित समझ का बोध और इस बड़े कार्य की जरूरतों को पूरा करने के लिए अन्य सभी प्रासंगिक बोध भी होने चाहिए।

कांशीराम का मानना था कि सक्षम समाज ही सक्षम नेतृत्व पैदा कर सकता है। इसलिए उन्होंने बहुजन समाज बनाने की अवधारणा प्रस्तुत किया।  यह समाज केवल अनुसूचित जातियों, जनजातियों, अन्य पिछड़े वर्ग की जातियों एवं अल्पसंख्यक समुदायों का गठबंधन भर नहीं होगा। बल्कि यह बहुजन चेतना से लैस होगा। ऐसा करने के लिए कांशीराम ने डॉ. आंबेडकर के तीन मंत्रों ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो एवं संघर्ष करो’ का सहारा लिया। उन्होंने कहा कि बहुजन समाज को अपने अधिकारों के प्रति व्यापक रूप से जागरूक करना पड़ेगा। इसी जागरूकता के क्रम में समाज को संगठित करने एवं संघर्ष के लिए तैयार का भी कार्य करना पड़ेगा। इस कार्य की जिम्मेदारी उन्होंने बहुजन समाज के शिक्षित एवं नौकरी पेशा वाले लोगों पर डाली और बामसेफ का निर्माण किया। उन्होंने कहा कि नौकरीपेशा वर्ग अपने उत्पीड़ित और शोषित समाज का कर्जदार है। अब समय आ गया है कि यह वर्ग समाज को कर्ज चुकाए। उन्होंने ‘पे बैक टू सोसायटी’ का नारा दिया। सक्षम और समर्थ नेतृत्व के लिए नेतृत्वकारी विचारधारा का होना भी आवश्यक था। इसके लिए कांशीराम ने जोतीराव फुले, शाहूजी महाराज, पेरियार रामासामी नायकर, नारायणा गुरु और डॉ. आंबेडकर के विचारों और कार्यों को आधार बनाया। उन्होंने फुले के सिद्धांत, ‘आर्य बाहर से भारत में आए और यहां के मूलनिवासियों को गुलाम बनाया’ को सामाजिक विश्लेषण का आधार बनाया। वे मानते हैं कि आर्यों के वंशज आज भी मूल निवासियों पर शासन कर रहे हैं। इस देश में लोकतंत्र है, लोकतंत्र में जिसके मत ज्यादा होते हैं उसकी सरकार होती है। 85 प्रतिशत बहुजनों पर 15 प्रतिशत आर्य पुत्र शासन कर रहे हैं। इस आधार पर उन्होंने अपनी वैचारिकी विकसित की। इस वैचारिकी का मूल उद्देश्य बहुजन समाज की राजनीतिक चेतना को बढ़ाना था।

केवल राजनीतिक सत्ता से नहीं चलेगा काम

कांशीराम का उद्देश्य मात्र राजनैतिक सत्ता की चाबी पर बहुजन समाज का कब्जा करना नहीं था। राजनैतिक सत्ता तो सामाजिक परिवर्तन का माध्यम मात्र है। मूल उद्देश्य सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन है जिससे भारत में संविधान के अनुरूप नये समाज का निर्माण हो सके। वे कहते थे कि “हम सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए राजनैतिक शक्ति का इस्तेमाल करेंगे और परंपराओं, संस्कृतियों, व्यवसायों, धर्मों, जातियों तथा भाषाओं की विविधता को आत्मसात करते हुए हम सभी नागरिकों के प्रति आदर और सम्मान के आधार पर समाज को संगठित करेंगे।” यह तभी संभव होगा जब राजसत्ता की चाबी बहुजन समाज के हाथ में हो। कांशीराम की सूझबूझ व नेतृत्व क्षमता के कारण बसपा को आंशिक सफलता मिली लेकिन इसका प्रभाव व्यापक था। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में कांग्रेस और भाजपा लम्बे समय तक सत्ता से बाहर हो गए। प्रशासन तथा शासन में सवर्णों का वर्चस्व भी कुछ हद तक कमजोर पड़ा। लेकिन जल्दी ही बसपा ने अपने मूल एजेंडे ‘बहुजन समाज का निर्माण’ छोड़ दिया। परिणामस्वरूप 14 वर्षों के पश्चात उत्तर प्रदेश की राजनीति में भाजपा की वापसी हो गई। 

मान्यवर कांशीराम अब हमारे बीच में नहीं हैं, लेकिन उनके कार्य और विचार धरोहर  के रूप में हमारे पास हैं। यदि हम उनकी धरोहर को बचा पाए तो भविष्य में सवर्णों का राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक वर्चस्व टूट सकता है तथा भारत में सच्चे अर्थों में लोकतंत्र स्थापित हो सकता है।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अलख निरंजन

अलख निरंजन दलित विमर्शकार हैं और नियमित तौर पर विविध पत्र-पत्रिकाओं में लिखते हैं। इनकी एक महत्वपूर्ण किताब ‘नई राह की खोज में : दलित चिन्तक’ पेंग्विन प्रकाशन से प्रकाशित है।

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