बिहार चुनाव परिणाम : विश्लेषण
जिस तरह उत्तर प्रदेश में भाजपा ने मायावती को मुख्यमंत्री बनाकर अपना जनाधार बढ़ाया, उसी तरह उसने बिहार में नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाकर अपनी ताकत बढ़ाई। मायावती और नीतीश दोनों सामाजिक परिवर्तन और धर्मनिरपेक्ष राजनीति के चेहरे थे, पर भाजपा ने दोनों को ही हिंदुत्व का चेहरा बना दिया। सिर्फ चेहरा ही नहीं बनाया, बल्कि जैसा चाहा, वैसा नचाया भी। मायावती को सत्ता में लाने वाली भी भाजपा है, और सत्ता से हटाने वाली भी वही है। अब स्थिति यह है कि भाजपा को मायावती की जरूरत नहीं है, पर मायावती को हमेशा भाजपा की जरूरत बनी रहेगी—सिर्फ अपने अस्तित्त्व को बचाए रखने के लिए। ठीक यही परिणिति आगे चलकर नीतीश की भी होनी है। भाजपा ने नीतीश के सहारे बिहार में हिन्दू एजेंडे को धीरे-धीरे धार दी, आरएसएस के संगठनों को कुछ भी करने की खुली छूट मिली, जिस तरह मायावती ने उत्तरप्रदेश में दी थी। आज उसी के बल पर बिहार में भाजपा नीतीश की पार्टी जनता दल यूनाईटेड से बड़ी पार्टी हो गई है। अब नीतीश की ताकत भी कम होगी, और भाजपा अपने एजेंडे को भी पूरी तरह लागू करेगी, जिसका परिणाम यह होगा कि 2025 के चुनावों में भाजपा बिहार में अपनी पूर्ण बहुमत की सरकार बना सकती है। रहा सवाल महागठबंधन का तो भाजपा उसे अस्तित्त्व में रहने ही नहीं देगी। जब सपा और बसपा का गठबन्धन वह खत्म करा सकती है, तो उसके लिए महागठबंधन कौन बड़ी चीज है? वैसे भी महागठबंधन स्वार्थ पर बना है और स्वार्थ पर ही टूट भी जाएगा। तात्कालिक राजनीति की आयु लंबी नहीं होती।
बिहार विधानसभा चुनाव-2020 के नतीजों के साथ ही उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के उपचुनावों का भी नतीजा भाजपा के पक्ष में आया है, जिससे पता चलता है कि दलित और पिछड़ा वर्ग काफी हद तक भाजपा के साथ है। अगर दलित और पिछड़ा वर्ग भाजपा के साथ न होता, तो न केवल उपचुनावों में, बल्कि बिहार में भी भाजपा का जीतना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन भी था। इसका स्पष्ट कारण यही है कि हिन्दू उच्च जातियों की संख्या इतनी अधिक नहीं है, कि उसके बल पर भाजपा जीत सके। अब सवाल यह है कि दलित और पिछड़ा वर्ग भाजपा को क्यों वोट देता है? उत्तर है, हिन्दूवादी होने की वजह से।
इससे एक बात साफ़ है कि धर्मनिरपेक्षता की राजनीति से भाजपा को नहीं हराया जा सकता। भाजपा से लड़ने के लिए हिन्दूवाद का विरोध करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा करने से भाजपा उसे हिन्दू-विरोध का मुद्दा बना लेगी. और यह एक ऐसा खेल है, जिसे आरएसएस और भाजपा सबसे अच्छा खेलते हैं।
अब सवाल यह है कि भाजपा किस तरह कमजोर किया जाए? इसके लिए इतिहास को समझना होगा। आज जिस जगह भाजपा खड़ी है, कल उसी जगह इतनी ही मजबूती से कांग्रेस खड़ी थी। कांग्रेस की वर्चस्ववादी नीतियों के विरुद्ध डॉ. आंबेडकर ने जीवन-भर संघर्ष किया परंतु वे सफल नहीं हो सके। डॉ. राममनोहर लोहिया अपने घोर कांग्रेस-विरोध से कांग्रेस को सत्ता से बेदखल नहीं कर पाए। इसका कारण क्या है? कारण वही है, जो आज भाजपा के विरोध में है। बाबासाहेब आंबेडकर ने कांग्रेस को उसकी ब्राह्मणवादी नीतियों के कारण कटघरे में खड़ा किया था। उन्होंने यहां तक कहा था कि अगर कांग्रेस के हाथों में सत्ता आई, तो वह भारत में हिन्दूराज कायम करेगी, जो दलितों, पिछड़ों और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के लिए हानिकारक होगा। लेकिन भारत की जनता पर इसका कोई असर नहीं हुआ। असर इसलिए नहीं हुआ, क्योंकि भारत की जनता ब्राह्मणवाद के जबरदस्त प्रभाव में थी। वह आज भी उसके प्रभाव में है, और यह कहना गलत न होगा कि ब्राह्मणवाद का विस्तार पहले से अब और भी ज्यादा हुआ है। यह सिर्फ भारत में संभव है कि सामाजिक न्याय के झंडावरदार कमजोर होकर बैठ जाएं, और उसके विरोध में कमंडल की राजनीति सत्तारूढ़ हो जाए। आखिर कुछ तो कारण होगा इसका?
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भाजपा ने अपनी राजनीति को नया तेवर या नई धार पिछली सदी के अंतिम दशक में दी, जब उसने 1990 में सामाजिक न्याय की राजनीति के विरोध में राम-मंदिर की राजनीति आरम्भ की। विडम्बना देखिए कि भाजपा के इस राजनीतिक आन्दोलन में आरएसएस ने पिछड़ी जातियों के ही नेताओं और नौजवानों को झोंका, जिनके शैक्षणिक व सामाजिक उत्थान के लिए सामाजिक न्याय का आन्दोलन शुरू हुआ था। कल्याण सिंह, विनय कटियार, उमा भारती सामाजिक न्याय के विरुद्ध प्रमुख चेहरा बनकर उभरे। सवर्णों के नेतृत्व में पिछड़ी जातियों के नौजवान सड़कों पर तोड़फोड़ कर रहे थे, और स्कूल-कालेजों और छात्रावासों में दलित छात्रों को बेरहमी से मार रहे थे। इसी हिन्दू उन्माद ने उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनाई, जिसके मुख्यमंत्री कल्याण सिंह बने। स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट पर प्रतिबंध लगा, और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को खुली छूट देकर आक्रामक बनाया गया। वर्ष 1992 में संविधान-शिल्पी डा. आंबेडकर के निधन के दिन, संविधान को ठेंगा दिखाकर आरएसएस और भाजपा ने अपनी भेजी हुई उस भीड़ से, जिसमें बहुसंख्य पिछड़ी जातियों के नौजवानों की थी, बाबरी मस्जिद गिरवा दी। तब केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी, पर कांग्रेस ने भाजपा के खिलाफ कोई आक्रामक रुख नहीं अपनाया। इस मुद्दे पर वह भाजपा को घेर भी नहीं सकती थी, क्योंकि वह तो उसका ही मुद्दा था। मंदिर आन्दोलन के दौरान आरएसएस ने अपनी तमाम तिकडमी हथकंडों में पिछड़ी जातियों को शामिल किया। दस सालों के अंदर आरएसएस ने दलित-पिछड़ी जातियों के दिमागों में मुस्लिम-विरोध पर खड़ा हिंदुत्व ऐसा रचा-बसा दिया कि उसे अब कोई साबुन साफ़ नहीं कर सकता।
अब प्रश्न है कि भाजपा ने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कैसे किया? कांग्रेस भाजपा की परम सहायक पार्टी थी, आज़ादी के बाद से ही वह धर्मनिरपेक्ष पार्टी बनकर रही और ब्राह्मणवाद का विस्तार करने में भी सबसे ज्यादा काम उसी ने किया। हिंदुत्व की जो फसल आज लहलहा रही है, उसकी जमीन कांग्रेस ने ही तैयार की। तब भाजपा ने कांग्रेस का विरोध किस आधार पर किया? इसी को समझना होगा।
कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने की रणनीति आरएसएस ने तैयार की थी। उसने कांग्रेस-विरोध का मुद्दा भ्रष्टाचार को बनाया. उसके लिए उसने दिल्ली में आंदोलन के लिए अन्ना हजारे को तैयार किया। रातोंरात ऐसा जादू हुआ कि देश के कोने-कोने से लोग दिल्ली पहुँचने लगे। रामलीला मैदान खचाखच भर गया। कांग्रेस के खिलाफ भ्रष्टाचार की रणनीति कामयाब हो गई। आरएसएस जनता का जैसा मानस बनाना चाहता था, वैसा ही बन गया। भ्रष्टाचार ने कांग्रेस को अर्श से फर्श पर लाकर पटक दिया। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई से सब कुछ सुरक्षित रहता है—ब्राह्मणवाद भी, और वर्णव्यवस्था भी। भाजपा की विजय हुई. भाजपा उसी एजेंडे को लेकर सत्ता में आ गई, जो कांग्रेस के ‘गुप्त’ था।
सत्ता में आने के बाद भाजपा ने भ्रष्टाचार का राग अलापना बंद कर दिया, और आक्रामक हिंदुत्व को अपना एजेंडा बना लिया। जब ब्राह्मणों और सवर्णों की अपनी पार्टी सत्ता में आ गयी, तो कांग्रेस के ब्राह्मण-सवर्ण भी भाजपा में शामिल हो गए। अब भाजपा की राजनीति में हिन्दूवाद मुख्य है, वही राष्ट्रवाद है, और वही देशभक्ति है। इसलिए भाजपा की सरकार में हिंदुत्व का विरोध राष्ट्र और देश का विरोध है। जो हिंदुत्व का विरोध करेगा, उसके खिलाफ आरएसएस के लोग कहीं भी राष्ट्र-द्रोह का मुकदमा लिखवा सकते हैं। जनता के बीच एक सीमा-रेखा खींच दी गयी है—जो भाजपा के साथ नहीं है, वह राष्ट्र के साथ नहीं है। अमेरिका में ट्रंप के नियंत्रण में बहुत सी चीजें नहीं थीं, पर भारत में सब भाजपा के नियंत्रण में है—सेना, पुलिस, चुनाव आयोग और न्यायपालिका तक। इसलिए भारत में उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती, जो अमेरिका में हो गया।
यहां यह लम्बी भूमिका लिखने का मतलब यह है कि धर्मनिरपेक्षता की राजनीति से भाजपा से नहीं लड़ा जा सकता क्योंकि आरएसएस और भाजपा ने बहुत चालाकी से हिंदुओं के दिमाग में यह डाल दिया है कि धर्मनिरपेक्ष राजनीति का मतलब हिन्दूवाद का विरोध या मुसलमानों का समर्थन करना है। जैसे ही आप एनआरसी का विरोध करेंगे, दिल्ली दंगों में सरकार की भूमिका पर सवाल उठाएंगे, आपके खिलाफ आरएसएस के अराजक तत्वों की बयानबाजी शुरू हो जाएगी, और आपको देशद्रोही करार दे दिया जाएगा। ऐसे लोकतान्त्रिक और धर्मनिरपेक्षतावादी लोगों के लिए, उन्होंने ‘अर्बन नक्सल’ का खतरनाक शब्द गढ़कर रखा हुआ है। आप हैरान हो सकते हैं यह जानकार कि फेसबुक पर भाजपा-विरोधी एक पोस्ट पर महादलित संगठन के एक नेता मुझे ‘अर्बन नक्सल’ लिख चुका है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि आरएसएस और भाजपा ने दलित-पिछड़े लोगों के दिमागों को किस कदर हिंदुत्व से भर दिया है कि उनकी समझ में कुछ नहीं आने वाला है।
बहरहाल, बिहार में तेजस्वी यादव ने एक राह दिखाई है, जिसे आगे बढ़ाने की जरूरत है। उन्होंने जिस तरह बिना हिंदुत्व का विरोध किए, केवल रोजगार के मुद्दे पर नीतीश कुमार और भाजपा को घेरा, उससे काफी हद तक जनता का ध्रुवीकरण किया। हमें यह समझना होगा कि जाति और धर्म दो ऐसे संवेदनशील मुद्दे हैं, जिनसे लोगों की भावनाएं जल्दी आहत हो जाती हैं। भले ही वे उनकी बर्बादी का कारण भी हों। आर्थिक सवालों पर ही आरएसएस और भाजपा को घेरना होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तेजस्वी के रोजगार के मुद्दे ने ही विचलित किया, जो उन्होंने तेजस्वी को ‘जंगलराज के युवराज’ की बहुत ही घटिया उपाधि दी। मोदी इसके सिवा कुछ कह भी नहीं सकते थे। आरएसएस और भाजपा की कमजोर नस रोजगार है। पर इस मुद्दे पर दलित-पिछड़ों को कैसे लाया जाय?
(संपादन : नवल/अनिल)