[वर्ष 2012 में “चांडाल जीबोन” के प्रकाशन के बाद चर्चा में आए पश्चिम बंगाल के मनोरंजन ब्यापारी को ममता बनर्जी सरकार ने बीते 14 सितंबर, 2020 को दलित साहित्य अकादमी का अध्यक्ष मनोनीत किया है। वर्ष 1971 में बांग्लादेश निर्माण के पहले रिफ्यूजी के रूप में भारत आए मनोरंजन ब्यापारी नमोशूद्रा समुदाय के हैं। 1975 में जब उनकी उम्र केवल 20 वर्ष थी, तब एक राजनीतिक कार्यक्रम के दौरान उन्हें बंदी बना लिया गया। जेल में उन्होंने पढ़ना-लिखना सीखा। जेल से बाहर आने के बाद वे रिक्शा चलाने लगे। इसी क्रम में उनकी मुलाकात बांग्ला की मूर्धन्य साहित्यकार महाश्वेता देवी से हुई। इस मुलाकात ने उनका जीवन बदल दिया। वे रिक्शा चालक से साहित्यकार बन गए। आजीविका के लिए मनोरंजन ब्यापारी ने पश्चिम बंगाल के एक सरकारी स्कूल में रसोइए की नौकरी की। लेकिन इससे साहित्य सृजन बाधित नहीं हुआ। 2012 में “चांडाल जीबोन” के बाद उन्होंने 2013 में “बाताशे बारूदेर गंधो” (हवा में बारूदी गंध) नामक उपन्यास लिखा। उनका यह उपन्यास बहुचर्चित रहा। पिछले वर्ष उनके इस उपन्यास के अंग्रेजी अनुवाद को डीएससी साउथ एशियन लिटरेचर सम्मान के लिए चयनित किया गया। मनोरंजन ब्यापारी से डॉ. कार्तिक चौधरी ने विस्तृत बातचीत की। प्रस्तुत है इस बातचीत का संपादित अंश –]
आप दलित साहित्य को कैसे परिभाषित करते हैं?
दलित वे हैं जिनका भारतीय वर्णव्यवस्था के तहत दमन हुआ है। इसका दायरा व्यापक है। जिनका कोई कसूर नहीं है उन्हें केवल निम्न जाति में जन्म लेने के कारण दबाया जाता हैं. उन्हें वंचना का शिकार होना पड़ता है। उनका अपराध सिर्फ यही है कि वर्णव्यवस्था के तहत निम्न घोषित जाति में उनका जन्म हुआ है। अतः जो ‘कुछ भी बहुसंख्यक शोषित समाज के उन्नयन के बारे में लिखा-रचा गया है, वह दलित साहित्य है। मैं तो यह मानता हूं कि जिस साहित्य में समतामूलक समाज है वह दलित साहित्य है।
दलित साहित्य लिखने का मुख्य आधार क्या हैं?
दलित साहित्य की विषय-वस्तु का मुख्य आधार खाना, कपड़े, शिक्षा, घर, चिकित्सा और सम्मान है। इन चीजों को आधार बना कर जो साहित्य निर्मित होगा, वह दलित साहित्य होगा।
दलित साहित्य में चेतना प्रमुख है। इसे आप कैसे परिभाषित करेंगे?
दलित साहित्य में दलित चेतना प्रमुख बिंदु है। चेतना से ही रचनाकार की मानसिकता की पहचान हो सकती हैं। लेकिन बहुत सारे अपने समाज के ही लोग हैं जो बड़े साहित्यकार बन चुके हैं लेकिन फूल, झरना और प्रेम को ही आधार बनाकर लिख रहे है। यह चेतना की ही कमी है। चेतना प्रमुख है क्योंकि दलित चेतना के विकसित होने के कारण ही सवर्ण साहित्यकारों ने जो रचना दलित जीवन को आधार बनाकर लिखी है, हम उसकी कमियों को खोज पा रहे है। प्रेमचंद की ‘कफन’ कहानी और मानिक बंधोपाध्याय की ‘पद्मा नदीर माझी’ को ही लें, जब तक हमारे पास दलित चेतना नहीं थी तब इस पुस्तक को जब हमने पढ़ा तो हमें बहुत अच्छी लगी। जब दलित चेतना विकसित हुई तो हमें उस पुस्तक में कमियां, खामियां और यहां तक कि बुराइयां भी मिलीं। हम लोग यह मानकर चल रहे है कि यदि दलित चेतना को केंद्र में रखकर कोई लिखता है तो इन सबसे बचा जा सकता है। यही कारण है कि दलित साहित्य पर बात करने से पहले दलित चेतना का विकास आवश्यक है।
दलित साहित्य की बुनियाद ‘शब्दों की अवधारणा’ पर टिकी हुई है। इस कथन पर आपका क्या विचार है?
चेतना से ही सजगता आएगी और शब्दों की अवधारणा को भी हम समझ पाएंगे। आप ‘चोरी-चमारी’ शब्द को ही देखें। असल में यह ‘चोरी-चकारी’ शब्द है, लेकिन चमारी शब्द तो जाति से जुड़ा हुआ है। भारतीय वर्णव्यवस्था के कारण ही ऐसे शब्द का निर्माण हुआ है, जिसका व्यवहार सभी करते हैं। लेकिन क्यों? बांग्ला में भी एक इसी प्रकार का शब्द है ‘खिसती-खमारी’। गाली-गलौज के लिए इस शब्द का उपयोग किया जाता है। जबकि खिसती तो ठीक है लेकिन खमारी शब्द चासी (किसान) से जुड़ा हुआ हैं। किसान उपजाऊ समान धान, गेंहू आदि इकट्ठा करता है, उसे ‘खमार’ कहा जाता है। जो श्रमजीवी हैं वह तो मेहनत कर रहे हैं, पसीना बहा रहे हैं। हमें बारीकी से इन शब्दों की अवधारणाओं को समझना होगा कि किसने क्या जोड़ा, क्यों जोड़ा। और हमें उससे बचना पड़ेगा साहित्य को भी उससे बचाना पड़ेगा।
आपने प्रेमचंद का जिक्र किया। प्रेमचंद की किस कहानी से आपको असहमति है?
प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’ काफी चर्चित रही है जो दलित जीवन की कहानी मानी भी जाती है। लेकिन असहमति का मामला यह है कि वह घीसू और माधव को चमार बता कर शराबी के रूप में परिचित कराते हैं जबकि हमें पता होना चाहिए कि शराबी की कोई जाति नहीं होती। इसका यह मतलब नहीं कि प्रेमचंद के दिल में दलितों के लिए दर्द नहीं था। यह उस जाति के नहीं होने के कारण उन्होंने चुना। अगर हम इस कहानी को लिखेंगे तो वह शब्द दोबारा नहीं आएगा, जिसका जिक्र प्रेमचंद ने किया है। और अगर आ भी गया तो अंत में दारू पीने के लिए कफन तो नहीं बेचेंगे। घीसू व माधव (पिता-पुत्र) दोनो देखेंगे कि होटल में खाना पक रहा है। वह एक-दूसरे को कहेंगे कि जो मर गया वह तो गया, कम से कम एक दिन के लिए हम जिंदा तो रहेंगे। चल खाना खा लेते हैं। दोनों खाना खाएंगे। दारू नहीं पिएंगे।
बांग्ला दलित साहित्य में नया क्या होगा?
बांग्ला दलित साहित्य मानवता का साहित्य होगा। कहीं पर भी किसी दलित लेखक को देवता नही बनाया जाएगा और ना ही किसी को अपमानित किया जाएगा। वह जो है, जिस ढंग से है, उसे उसी रूप से दिखाया जाएगा। हमारा नया साहित्य होगा। जरूरी नही कि ऊंची जाति के मानसिकता वाले लोग जो लिख रहे हैं, हम उसी ढंग से लिखें। हम एक नई धारा का चलन कर सकते हैं।
बांग्ला दलित साहित्य का आरम्भ कहां से माना जाता है?
आधुनिक बांग्ला दलित साहित्य की बात करें तो 1911 में ‘जागरण’ पत्रिका से बांग्ला दलित साहित्य का आरम्भ माना जा सकता है। वैसे और पहले देखें तो ‘चार्यापद’ से मान सकते हैं।
ऐसा माना जाता है कि बांग्ला दलित साहित्य में आक्रोश नहीं है। दलित साहित्यकार अपनी रचनाओं में किसी पर दोषारोपण नहीं करते। इस बारे में आपका क्या विचार है?
ऐसा नहीं है। आक्रोश बांग्ला दलित साहित्य में आएगा ही। आक्रोश किसमें पैदा होगा? जो वंचित है, वंचना का शिकार है। रबींद्र से लेकर आज तक जो भी आए, वे तो सुखी लोग हैं। सुखी लोगों में आक्रोश कैसे होगा। अभी तक दलित साहित्यकार और साहित्य लिखने वाले वही लोग थे। तो उनका शब्द चयन भी उन्हीं की तरह था। लेकिन दलित चेतना अब आ गई है तो साहित्य में आक्रोश पैदा होगा ही। आप मनोरंजन ब्यापारी की कोई भी पुस्तक देख लीजिए, आक्रोश ही आक्रोश भरा है। आक्रोश की उपज ही मेरी सृष्टि है।
इस आक्रोश के लिए आप किसे जिम्मेदार मानते हैं?
पूंजीवाद, पुरुषवाद, ब्राह्मणवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद। इन सबके विनाश के लिए दलित साहित्य प्रतिबद्ध है। ये जब तक खत्म नहीं होंगे तब तक दलित साहित्य में आक्रोश बना ही रहेगा ।
आपने फारवर्ड प्रेस को ही दिए अपने साक्षात्कार में कहा कि बंगाल में अब दलितों का गला दबने वाला नहीं है। यह साहित्य के स्तर पर होगा या आंदोलन के स्तर पर भी?
साहित्य और आंदोलन एक-दूसरे के पूरक हैं। आंदोलन होगा तो साहित्य में उसकी गूंज आएगी ही। साहित्य के माध्यम से भी आंदोलन का प्रवाह तेज होता ही है। दलित आंदोलन में दलित साहित्य की भूमिका महत्वपूर्ण होगी।
क्या आपको लगता है कि बंगाल में दलित साहित्य को महत्व मिला है?
अभी बंगाल में यह बहस का मुद्दा है कि मेरे साहित्य को महत्व दिया जाय या नहीं। कुछ ने कहा कि यह साहित्य है। कुछ ने कहा कि यह साहित्य नहीं है। मेरी 22 पुस्तकें हैं अभी तक। मुझसे व्यक्तिगत स्तर पर पूछा गया तो हमने उन्हें कहा कि हमारे लेखन के 40 वर्ष हो गए। पाठकों ने पसंद किया है। मेरे लेखन में साहित्य है या नहीं इनके बारे में हम सोचते ही नहीं हैं। हम यही सोचते हैं कि उसमें सत्य है। सत्य के सामने कोई बनी-बनाई कहानी टिकती नहीं है। यही कारण है कि मैं पहचान बना पाया। नहीं तो मुझे भरसक दबाने का प्रयास किया गया। कल तक किया गया। अभी अकादेमी का अध्यक्ष बनाया गया। बहुत बड़ा पद मुझे मिला है। वह भी तो हमें लड़कर लेना पड़ा है। हमें कोई लाया और बिठा दिया, ऐसा नहीं है। स्वीकृति इसलिए देनी पड़ी क्योंकि हम थके नहीं चालीस साल से।
भद्रलोग की अवधारणा पर आपका क्या दृष्टिकोण है?
बंगाल में यह अवधारणा बहुत पहले से हैं। समाज का विभाजन एक तरीके से भद्रलोग और छोटे लोग का विभाजन है। यह भद्रलोग जनेऊ तो अब नहीं पहनते लेकिन मानसिकता में बदलाव अभी भी नहीं हुआ है। वह अभी भी अपने को ऊंचा मानते हैं। यह छोटे लोग तो समाज के निम्नवर्ग के ही लोग ही होंगे। एक-दो ऊंची जाति के लोग हो सकते है। साहित्य में भी यह अवधारणा बनी हुई है और दलित साहित्य में भी यह है। यही कारण है कि बंगाल की घोषित दलित पत्रिकाओं ने मुझे नहीं छापा। भद्रलोग की अवधारणा में डॉक्टर, प्रोफेसर, इंजीनियर को स्थान दिया गया लेकिन मुझे क्यों नहीं? हम जैसे रिक्शेवाले, अनपढ़ के लेख छापेंगे तो उनका महत्व घट जाएगा। इसको भी आप भद्रलोग की अवधारणा में रख सकते हैं।
आपके प्रिय लेखक कौन हैं?
मेरे चार प्रिय लेखक हैं। पहली महाश्वेता देवी। उनका गुस्सा मुझे बहुत पसंद है। वह किसान, मजदूर और आदिवासी पर अत्याचार को सहन नहीं करतीं। दूसरे शमरेश बसु, जो अपनी रचनाओं में हर चरित्र का निर्माण बड़े ही प्यार से करते हैं। उनके पात्र साधारण जीवन जीते हैं। तीसरे यायावर नाम से लिखने वाले विनय मुखोपाध्याय। उनके ‘दृष्टिपात’ उपन्यास ने मुझे बहुत प्रभावित किया क्योकि वह शब्दों को सूत में माला की तरह पिरोते हैं। चौथे, हिंदी के चर्चित उपन्यासकार श्रीलाल शुक्ल। उनका ‘रागदरबारी’ छह बार से अधिक पढा। बार-बार पढ़ने की इच्छा होती है। उनकी शैली मुझे बेहद पसंद है।
दलित साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष के रूप में आप क्या-क्या काम काम करेंगे?
सबसे पहले तो दलित साहित्य की लाइब्रेरी होगी। बांग्ला दलित साहित्य का अनुवाद अन्य भाषा में होगा। वही अन्य भाषाओं में लिखे गए दलित साहित्य का अनुवाद बांग्ला में होगा। युवा दलित लेखकों को महत्व दिया जाएगा। दलित साहित्य अकादेमी की अपनी पत्रिका होगी। पुस्तक वितरण केंद्र भी बनाए जाएंगे। वितरक सभा का आयोजन भी समय-समय पर किया जाएगा।
हिंदी के प्रख्यात आलोचक चौथीराम यादव ने आपके अध्यक्ष बनने पर आपको श्रमजीवी दलित लेखक नाम से विभूषित किया। इसे आप कैसे देखते हैं?
श्रमजीवी दलित लेखक यह उपयुक्त है मेरे लिए। चौथीराम जी का आभार इतना प्यार देने के लिए।
आप युवा दलित साहित्यकारों को क्या संदेश देना चाहेंगे?
युवा दलित साहित्यकारों को मैं यही संदेश देना चाहूंगा कि भाई आप सुखी साहित्य मत लिखो। समाज को जानो और सच्चाईयों को साहस के साथ सबके समक्ष लाओ। बाबा साहेब आंबेडकर को पढ़ो, जोगेंद्रनाथ मंडल को पढ़ो। फूल, पत्ते और प्रेम के लिए तो लोग हैं ही लिखने के लिए।
(संपादन : नवल/अमरीश)
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