यकीन मानिए, दलित कवियों के अतिरिक्त, मेरे संग्रह में, हिंदी में, और भी बहुत से कवि हैं, जिनमें एक वे हैं, जो मुझे बेहद प्रभावित करते हैं। उनमें पाश हैं, गदर हैं, गोरख पांडे हैं, वरवर राव हैं, गौहर रज़ा हैं, भगवत रावत हैं, आलोक धन्वा हैं, अंशु मालवीय हैं। इनके संग्रह बाकी उन कवियों से अलग हैं, जो दूसरी तरह के कवि हैं। इनमें कोई चार दर्जन से भी ज्यादा कवि होंगे, और संग्रह सौ के करीब होंगे। इनमें वे सभी कवि हैं, जो बहुत प्रसिद्ध हैं, जैसे अशोक वाजपेयी, केदारनाथ सिंह, अरुण कमल, कुमार विकल, ऋतु राज। किन्तु इनकी कविताओं को समझने की योग्यता मुझमें नहीं है। मंगलेश डबराल का काव्य संग्रह ‘हम जो देखते हैं’ मैंने इसी ढेर से निकाला।
मैं यह मानता हूँ कि जिस समाज की कोई सामाजिक-आर्थिक समस्या नहीं होती, उत्पीड़न, शोषण और दमन का इतिहास नहीं होता, और उसके विरुद्ध संघर्ष और बलिदान उनके खून में नहीं होता; जो सामाजिक सम्मान के साथ पैदा होते हैं और आजीवन उस सम्मान का उपभोग करते हैं, ऐसे समाज से आए लोग, अगर दलित-मजदूरों की समस्याओं से भी नहीं जुड़े होते हैं, कवि और कहानीकार बनते हैं, तो सहज ही कल्पना की जा सकती है कि उन्होंने क्या लिखा होगा? वे अगर गांव छोड़कर महानगरों में बस गए हैं, तो उनकी रचनाओं में गांव आयंगे, खेत-खलिहान, बाग-बगीचे आएंगे, नदियां आएंगीं, हवेलियां आएंगीं। वे बार-बार अपनी जड़ों की ओर लौटते हैं, जहां उनका सुन्दर अतीत है। उनकी कविताओं में बार-बार उनके गांव आते हैं, पर उनके गांव की स्मृतियों में गांव की बदसूरत छवियां नहीं मिलतीं। वहां अछूत नहीं मिलेंगे, अछूतों के साथ की गयीं बदसलूकियां भी नहीं मिलेंगीं।
मंगलेश डबराल भी ऐसे ही कवि हैं। वह टिहरी गढ़वाल के काफलपानी गांव से आए थे। इसलिए उनकी कविताओं में पहाड़ अपनी घनी अनुभूतियों के साथ आए हैं, जिनमें दंत कथाएं हैं, मां हैं, पिता हैं, दादा हैं, बारिश है, सपने हैं, पर पहाड़ों पर डोम भी होते हैं, वे उनकी अनुभूतियों में नहीं आते। कभी वास्ता भी नहीं रखा होगा, डोमों से, फिर स्मृतियों में भी कैसे आएंगे?
मुक्तिबोध ने अभिव्यक्ति के खतरे उठाने की बात कही थी। उन्होंने खतरे उठाए भी थे। और भी बहुत से कवियों ने खतरे उठाए, और अपना बहुत कुछ खोकर अपने लिखने की कीमत चुकाई। वरवर राव ने शिव सेना को ‘आदमी का गोश्त खाने वाला बाघ’ कहा था और कीमत चुकाई। वह पहले भी गिरफ्तार हुए थे और जेल में रहे थे, आज भी वह जेल में हैं, अभिव्यक्ति की कीमत चुका रहे हैं। मंगलेश डबराल ने अभिव्यक्ति का कोई खतरा नहीं उठाया। हालांकि वह जन-संस्कृति मंच से जुड़े हुए थे, जो मार्क्सवादी-लेनिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी का साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठन है। इस नाते उनकी कविताओं में सत्ता-प्रतिष्ठान का विरोध और एक वामपंथी प्रतिरोध की अभिव्यक्ति का तीव्र स्वर दिखना चाहिए था, जैसा कि हम वरवर राव की कविता में देखते हैं : ‘मैंने बम नहीं बाँटा था/ न ही विचार/ तुमने ही रौंदा था/चींटियों के बिल को/नाल जड़े जूतों से।’ जिस दौर में वरवर राव की कलम से ये शब्द निकल रहे थे, उस दौर में मंगलेश डबराल चांद से बातें कर रहे थे : ‘जैसे ही हम चाँद की तरफ देखने को होते हैं, कहीं पास से एक कुत्ते के भौंकने की आवाज़ सुनाई देती है …’। शायद मंगलेश की चांद कविता की यह व्यंजना हो सकती है – चाँद पर क्या असर पड़ता है, कुत्ते हैं, भौंकते रहें।
किन्तु, मंगलेश डबराल अपनी ‘कुछ देर के लिए’ कविता में अपनी रोजी-रोटी बचाने की जिस कवायद में अपने मानवीय पतन का जिक्र करते हैं, उस द्वंद्व को समझा जा सकता है। कविता इस तरह है :
कुछ देर के लिए मैं कवि था
फटी-पुरानी कविताओं की मरम्मत करता हुआ।
कुछ देर पिता था
अपने बच्चों के लिए।
कुछ देर नौकर था सतर्क सहमा हुआ
बची रहे रोज़ी-रोटी कहता हुआ।
कुछ देर मैंने अन्याय का विरोध किया
फिर उसे सहने की ताकत जुटाता रहा।
मैंने सोचा मैं इन शब्दों को नहीं लिखूंगा
जिनमें मेरी आत्मा नहीं है जो आततायियों के हैं
कुछ देर मैं छोटे से गड्ढे में गिरा रहा
यही मेरा मानवीय पतन था।
वर्ष 1990 और उसके बाद का काल-खंड भारत में मंडल-कमंडल की राजनीति का है, जो बेहद संवेदनशील दौर था। यह वह दौर था, जब मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू हुईं थीं, और पहली बार पिछड़ी जातियों को उनके संवैधानिक अधिकार मिलने जा रहे थे। इन अधिकारों के विरुद्ध भगवा राजनीति का तांडव चरम पर था। उसने पिछड़ी जातियों को मंदिर के उन्माद से जोड़कर मंडल की सारी हवा निकाल दी थी। लोकतंत्र की इतनी बड़ी त्रासदी पर मंगलेश डबराल का कवि मौन है। वह 1990 में दरवाजा बंद करके कविता लिख रहे थे। यथा :
मैंने दरवाजे बंद किए
और कविता लिखने बैठा
मैंने कविता लिखी
जिसमें हवा नहीं थी रौशनी नहीं थी।
इसी दौर में बाबरी मस्जिद ढाई गई, संविधान का धर्मनिरपेक्ष ढांचा टूटा। उसके दूसरे दिन गौहर रज़ा ने लिखा :
कह दो के अनलह्क़ ज़िंदा है
कह दो के अनहद अब गरजेगा
इस नुक्ते पर गल मुकदी है
इस नुक्ते से फूटेगी किरण
और बात यहीं से निकलेगी।
लेकिन 1992 में मंगलेश डबराल लिख रहे थे :
उन्होंने इसे तोड़ दिया
उन्होंने उसे तोड़ दिया
और कहा, अब सब टूट चुका है।
आगे क्या होगा?
उन्होंने कहा, कुछ नया हो तो बताइए।
मंगलेश डबराल की 1992 में लिखी गयीं दस कविताएं इस संग्रह में शामिल हैं। पर एक भी कविता 1992 की त्रासदी पर नहीं है। निश्चित रूप से वह कुछ देर के लिए ‘रोज़ी-रोटी’ बचाने के लिए नौकर बने रहे होंगे, या कुछ देर के लिए उनका ब्राह्मण-मन भगवा बन गया होगा। लेकिन वास्तविक सवाल यही है कि सुखासीन कवि लिखेगा क्या? ऐसे कवि के न तो सामाजिक सरोकार कुछ हो सकते हैं, और न बाहर की दुनिया के प्रति वह संवेदनशील हो सकता है। मंगलेश डबराल की प्राय: सभी कविताएं इसी प्रकृति की हैं। कुछ का जायजा जरूरी है।
मध्यवर्गीय समाज में भी सभी का जीवन ठीक नहीं चल रहा होता है। बहुतों को जीवन-यापन के लिए संघर्ष करना पड़ता है। मंगलेश डबराल भी इसी मध्यवर्गीय समाज से आते थे, जिनके जीवन में हमेशा उतार-चढ़ाव आए। लेकिन ‘जब जीवन ठीक चल रहा होगा’, तो कवि क्या करेगा? इसका जायजा इन पंक्तियों में लीजिए :
जब जीवन ठीक चल रहा होगा
एक दिन मैं रोमांच से भर उठूँगा
जरा सी छाँह पाते ही खुश हो जाऊंगा
धूप में नंगे पैर निकल पडूंगा
बारिश में कहीं अपना छाता भूल आऊंगा
सर्दियों में नहीं जलाऊंगा आग।
उनकी एक कविता में ‘अत्याचारी के प्रमाण’ है, जिसमें अत्याचारी के निर्दोष होने के कुछ प्रमाण दिए गए हैं। एक यह है :
उसके नाखून या दांत लम्बे नहीं हैं
ऑंखें लाल नहीं रहतीं
बल्कि वह मुस्कराता रहता है
अक्सर अपने घर आमंत्रित करता है
और हमारी ओर अपना कोमल हाथ बढ़ाता है
उसे घोर आश्चर्य है कि लोग उससे डरते हैं.
यह उलटबासी नहीं है, पर सच भी नहीं है। जरूरी नहीं है कि हर वह व्यक्ति, जो मुस्कराता रहता है, अत्याचारी हो। पर इस कविता की ध्वनि क्या है, जो धमनी में उतर जाए? जवाब है, कुछ भी नहीं।
‘ऐसा समय’ में कवि जिस समय को रेखांकित करता है, वह यह है :
यह ऐसा समय है
जब कोई हो सकता है अंधा, लंगड़ा,
बहरा, बेघर, पागल।
जुल्म देखकर आंखें बंद कर लेना, और जुल्म के खिलाफ जुबान बंद कर लेना युगीन सत्य है। ऐसे लोग हमेशा सत्ता-सुख भोगते हैं। किन्तु क्या कविता भी अंधी-बहरी और गूंगी हो सकती है?
मंगलेश डबराल निस्संदेह एक भावुक कवि थे, जिनका अतीत, पहाड़, दादा, पिता, मां, और घर उनकी सांसों में बसता था। एक अच्छे कवि के लिए अतीत अच्छा नहीं होता। वह अगर इनसे मुक्त होते, तो वर्तमान उनमें ज्यादा जीवंत तरीके से सामने आता। लेकिन अतीत की छायाएं उन्हें वर्तमान से नहीं जोड़ सकीं।
(संपादन : नवल)
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