बिना सगुणाबाई क्षीरसागर के न तो जोतीराव फुले (11 अप्रैल, 1827 – 28 नवंबर, 1890) को पूरी तरह समझा जा सकता है और ना ही सावित्रीबाई फुले (3 जनवरी, 1831 -10 मार्च, 1897) की कहानी पूरी हो सकती है। सगुणाबाई के जीवन के बारे में बहुत अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। उनका जन्म महाराष्ट्र के सतारा जिले के नायगांव के निकट बसे धनकाबाड़ी गांव में हुआ था। माता-पिता ने उनका विवाह बचपन में ही कर दिया था। लेकिन दांपत्य जीवन में आगे बढ़ने से पहले ही वे विधवा हो गईं। जैसे कि उन दिनों के रीति-रिवाज थे, विधवाओं को सभी-प्रकार के साज, शृंगार भुलाकर बहुत साधारण वस्त्रों में सादा जीवन जीना पड़ता था। पुणे में जॉन नामक एक ईसाई मिशनरी रहता था। उसके घर में अपने बच्चों के अलावा कुछ अनाथ बच्चे भी थी। उसने सगुणाबाई को आश्रय दिया। इस तरह जॉन का घर सगुणाबाई को आरंभिक ठिकाना मिला। वहां रहकर वे जीवनयापन करने लगीं।
सगुणाबाई की बुद्धि तेज थी। जॉन के संपर्क में आने के बाद वे अंग्रेजी बोलने-समझने लगीं। इससे प्रभावित होकर जॉन ने उन्हें बच्चों की संरक्षिका का पद दे दिया। वहां रहते हुए सगुणाबाई का सामना एक नई दुनिया से हुआ। उससे पहले सगुणाबाई के लिए वैधव्य सबसे बड़ी आपदा थी। उससे मिला दुख, दुनिया का सबसे बड़ा दुख-दर्द था। मगर अनाथ बच्चों के संपर्क आने के बाद दुख के नए रूपाकारों से उनका परिचय होने लगा। उन्हें बोध होने लगा कि धर्म, राजनीति, परिवार आदि से परे भी दो मनुष्यों के बीच एक बड़ा नाता है, वह है—इंसानियत का नाता। स्त्री को मातृत्व सुख प्राप्त करने के लिए पति, विवाह या अपने बच्चे को जन्म देना आवश्यक नहीं है। वह बच्चों के बीच रहकर भी उस सुख को प्राप्त कर सकती है।
उन्हीं दिनों जोतीराव फुले की मां चिमणाबाई की मृत्यु हुई। उस आघात से पूरी तरह टूट चुके गोविंदराव को नन्हे जोतीराव के पालन-पोषण की चिंता सताने लगी। वे चाहते तो आसानी से दूसरा विवाह कर सकते थे। लेकिन उन्होंने अविवाहित रहना पसंद किया। फूलों का व्यापार था। व्यस्तता के कारण उनके यह संभव नहीं था कि अबोध शिशु के लिए माता-पिता दोनों की भूमिका साथ-साथ निभा सकें। संकट की उस घड़ी में गोविंदराव का ध्यान अपनी चचेरी बहन सगुणाबाई की ओर गया, जो अपने हताशा-भरे जीवन को जैसे-तैसे बिता रही थीं। दुखी गोविंदराव सगुणाबाई से जाकर मिले। उन्होंने उनसे जोतीराव की देखभाल करने का अनुरोध किया। सगुणाबाई ने उसे खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया। उसके बाद उन्होंने जोतीराव को अपनी संतान से बढ़-चढ़कर प्यार दिया। उनमें नए संस्कार पैदा किए। वे सब जीवनमूल्य सिखाए जिन्हें ईसाइयत की पहचान के रूप में जॉन के घर में रहते हुए सीखे थे। सगुणाबाई का मातृत्व बालक जोतीराव फुले के लिए वरदान सिद्ध हुआ। सगी मां की तरह वे उनकी देखभाल करने लगीं।
सगुणाबाई के माध्यम जोतीराव का परिचय अंग्रेजी भाषा और उसके साहित्य से हुआ। जिनसे उनका ज्ञान का नया क्षेत्र खुलता गया। यह ज्ञान आगे चलकर ब्राह्मणवादी निरंकुशता से संघर्ष में बहुत काम आया। वहां रहते हुए जोतीराव ने अनुशासन और समय के मूल्य को समझा। यह भी समझा कि मनुष्यता की सेवा ही वास्तविक ईश्वर सेवा है। अब वे समानांतर रूप में दो धर्मों को साथ-साथ समझ रहे थे। एक ओर हिंदू धर्म था, जिसमें जातिवाद था, तरह-तरह की रूढ़ियां और आडंबर थे, निरंकुश ब्राह्मणवाद था, जो आदमी को छोटा-बड़ा बनाता था। दूसरी ओर करुणा और मानव-प्रेम को समर्पित ईसाई धर्म था।
सगुणाबाई का मानवीय दृष्टिकोण, समाज के कमजोर वर्गों के उत्थान को लेकर उनकी चिंताओं से ईसाई मिशनरी जॉन भी प्रभावित थे। जॉन चाहते थे कि अपनी बुआ सगुणाबाई से प्रेरणा लेकर जोतीराव भी समाज के कमजोर वर्गों के लिए काम करें। विशेषकर शूद्रों और अतिशूद्रों के लिए जिनमें अशिक्षा और अज्ञान के कारण अनेक बुराइयां पनप चुकी थीं। सगुणाबाई स्वयं भी यही चाहती थीं। इसलिए उन्होंने फुले को बेहतर इंसान बनने की शिक्षा दी। यह जानते हुए कि धर्माडंबर और जाति-व्यवस्था समाज की मुख्यतम बुराई है। सगुणाबाई चाहती थीं कि फुले बड़े होने पर जाति-भेद और ऊंच-नीच का भाव भुलाकर सभी के साथ समानतापूर्ण व्यवहार करे। अपने गीतों और भजनों के माध्यम से उन्होंने ही जोतीराव को एकेश्वरवाद की शिक्षा दी। बताया कि संपूर्ण सृष्टि एक ही ईश्वर की रचना है। जाति, पूजा-पाठ और धर्म के नाम पर विभिन्न समुदायों के बीच जो अंतर नजर आता है, वह मानवीकृत है, जिसे कुछ कुछ लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए पैदा किया हुआ है।
फुले को अपनी मां चिमणाबाई की याद नहीं थी। मगर सगुणाबाई के रूप में उन्होंने जिस स्त्री के सान्निध्य में उन्होंने बचपन का आनंद लिया था, उसके प्रति सम्मान की भावना उनके मन में हमेशा बनी रहीं। सगुणाबाई उनकी सच्ची अभिभावक थीं। अपने निर्णय के प्रति भी वे कठोर थीं। गोविंदराव का सपना था कि जोतीराव पारिवारिक कारोबार को समझे। ऐसे में सगुणाबाई ने चपल बुद्धि से काम लिया। उन्होंने गोविंदराव को समझाया कि बालक ज्योति तीक्ष्ण बुद्धि है, इसलिए उसे पढ़ाना चाहिए। पढ़-लिख लेगा तो व्यापार संभालने में मदद मिलेगी। ब्राह्मण मुनीम के भरोसे नहीं रहना पड़ेगा। आखिरकार गोविंदराव मान गए। जोतीराव को स्कूल में भर्ती करा दिया गया। अंग्रेज हालांकि एक समान कानून लागू कर शिक्षा के दरवाजे सभी के लिए खोल चुके थे। बावजूद इसके समाज में मनुस्मृति का ही विधान चलता था। उसके अनुसार शिक्षार्जन का अधिकार केवल ऊंची जातियों तक सीमित था।
गोविंदराव ने जोतीराव फुले को स्कूल भेजना आरंभ किया तो ब्राह्मणों के कान खड़े हो गए। उन्होंने गोविंदराव के जातिवालों को भड़काया तो वे विरोध पर उतर आए। जोतीराव को अंग्रेजी स्कूल में प्रवेश कराया गया ब्राह्मणों के बीच खलबली-सी मच गई। उन्हें धर्म-शास्त्र याद आने लगे। एक सड़े दिमाग के ब्राह्मण, जो गोविंदराव की दुकान पर मुनीम था, ने गोविंदराव से जाकर कहा—‘आपने अपने बेटे का दाखिला अंग्रेजी स्कूल में कराया है। उसका आपके व्यवसाय में भला क्या उपयोग होगा? इससे भी जरूरी बात यह है कि हिंदू धर्म शूद्रों को पढ़ने की अनुमति नहीं देता। पढ़ने के बाद शूद्र और उसका संपूर्ण वंश सात पीढ़ियों तक नर्क भोगता है।’ धर्मभीरू गोविंदराव डर गए। उन्होंने जोतीराव को स्कूल से निकाल लिया।
पिता के आदेशानुसार जोतीराव अनमने भाव से व्यापार में जुट गए। सगुणाबाई यह देखकर परेशान हो गईं। उनके लिए यह उम्मीदों की हत्या करने जैसा था। उन सपनों की हत्या करने जैसा था जो वे जोतीराव को लेकर देखती आई थीं। लेकिन वे एकाएक हिम्मत हारने वाली महिला न थीं। रास्ता निकालने के लिए सगुणाबाई ने दो प्रभावशाली व्यक्तियों से संपर्क किया। उनसे गोविंदराव भी भली-भांति परिचय में थे। उनमें एक थे मिस्टर लेजिट और दूसरे थे गफ्फार बेग मुंशी। गफ्फार बेग मुंशी उर्दू और फारसी भाषा के अध्यापक और लेजिट अंग्रेज अधिकारी थे। उनके कहने पर फुले को दुबारा 14 वर्ष की अवस्था में स्कूल में भर्ती करा दिया गया। इस तरह फुले को शिक्षा दिलाने में सगुणाबाई का बड़ा योगदान था। अगर वे आगे न आतीं तो संभव था, फुले अपने पिता की खेती-बाड़ी को ही संभाल रहे होते।
ज्योतिराव की प्रतिभा देख सगुणाबाई को उनसे बहुत उम्मीद थी। इसलिए वे अपने शब्दों और कार्यों से उन्हें बाहरी दुनिया, खासतौर पर समाज में व्याप्त भेदभाव के बारे में शिक्षा देने लगीं। वैधव्य का ठप्पा लगने के बाद समाज की निगाह में उनका अपना जीवन पूरी तरह कलंकित हो चुका था। उसमें सिवाय निराशा और नीरसता के कुछ और न था। बस एक सपना था कि जैसे राजा राममोहनराय ने सती-प्रथा को चुनौती देकर सैकड़ों स्त्रियों को मौत के मुंह में जाने से रोका है, ऐसे ही कोई उन्हें विधवा जीवन की त्रासदी से उबारने के लिए भी आगे आएगा। इसी सपने के साथ वे जोतीराव का लालन-पालन कर रही थीं।
जोतीराव ने किशोरावस्था की अंतिम अवस्था में कदम रखा तो उनके पिता को उनके विवाह की चिंता सताने लगी। उस समय भी सगुणाबाई ने ही पहल की। उन्हें सावित्रीबाई जोतीराव के लिए सर्वोपयुक्त लगीं। इसलिए खुद ही आगे बढ़कर दोनों के विवाह की पहल की। सावित्रीबाई के बारे में सगुणाबाई ने जैसा सोचा था, उससे बढ़कर ही पाया। कुछ ही अवधि में दोनों के बीच गहरे स्नेह-संबंध बन गए। सगुणाबाई सावित्रीबाई को अपनी बेटी की तरह प्यार करतीं। आगे भी जीवन में जब-जब जरूरत पड़ी सगुणाबाई ने न केवल अपना पूरा ममत्व जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले पर उड़ेल दिया, अपितु जीवन में दोनों के रास्ते में जब भी कोई बाधा उत्पन्न हुई एक सहायक और मार्गदर्शक की तरह वे सदैव उनके साथ रहीं। सावित्रीबाई और जोतीराव फुले द्वारा स्कूल की स्थापना के बाद उनके समस्त जाति-बंधु, यहां तक कि उनके माता-पिता ने भी उनकी ओर से मुंह फेर लिया था। उस समय भी सगुणाबाई ने फुले दंपति का निःस्वार्थ साथ दिया।
यह स्नेह संबंध एक-तरफा नहीं था। बदले में जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले भी उन्हें पूरा प्यार करते थे और सदैव उन्हें ‘बुआ-मां’ कहकर बुलाते थे। जोतीराव जानते थे कि उन्हें पालकर बड़ा करने में बुआ-मां का कितना बड़ा योगदान रहा है। सावित्रीबाई भी ‘बुआ-मां’ के योगदान के प्रति अनुग्रहीत थीं और अपनी सगी मां जितना ही उनका सम्मान करती थी। फुले को पाल-पोसकर बड़ा करने, उन्हें संवेदनशील इंसान बनाने में सगुणाबाई का ही योगदान था। यदि सगुणाबाई उनके जीवन में न आई होती तों, तो कदाचित फुले वैसे महामानव न होते, जिस महामानव के रूप में आज हम उन्हें जानते हैं।
सगुणाबाई को जोतीराव से जैसी उम्मीद थी, वैसा ही हुआ। विवाह के बाद जोतीराव फुले ने सावित्रीबाई फुले को पढ़ाना आरंभ किया तो बुआ मां सगुणाबाई को भी शामिल कर दिया। आगे चलकर वे दोनों स्त्रियां फुले के शिक्षा-अभियान की सबसे बड़ी कार्यकर्ता सिद्ध हुईं। दोनों ने हजारों लड़कियों को अशिक्षा और अज्ञानता के दायरे से बाहर निकालने का काम किया। हजारों स्त्रियों के लिए वे प्रेरणा का स्रोत बनीं। उन दिनों जब लड़कियों को शिक्षा देना शास्त्र-विरुद्ध माना जाता था, सवर्ण अध्यापक शूद्रों और अतिशूद्रों को पढ़ाने में आनाकानी करते थे, सावित्रीबाई फुले और सगुणाबाई क्षीरसागर दो स्वतंत्र ज्योतिपुंज की तरह उभरीं। जो एक-दूसरे से स्वतंत्र होकर भी एक थीं। जिनके सपने एक थे। लक्ष्य भी एक ही था। आगे चलकर फुले ने जो भी सपना देखा, सावित्रीबाई और सगुणाबाई ने उसे चुनौती के रूप में लेते हुए, मिशनरी भावना के साथ काम किया।
यह बात शायद चौंका सकती है कि फुले के शिक्षा आंदोलन को आगे बढ़ाने की पहल सगुणाबाई 1846 में ही कर चुकी थीं। उन्होंने पुणे की अछूत बस्ती महारबाड़ा में शूद्रों के लिए अनौपचारिक पाठशाला की शुरुआत की थी, जिसे स्थानीय लोगों के विरोध के कारण बहुत जल्दी बंद कर देना पड़ा था। अनेक पोंगापंथी ब्राह्मण शूद्र बालकों शिक्षा देने के विरोध में उतर आए थे। उन्होंने फुले और सगुणाबाई पर आरोप लगाया था कि शिक्षा के बहाने वे महारों का ईसाईकरण करना चाहते हैं। लोग उनके भड़कावे में आ गए। स्कूल को जबरन बंद करा दिया गया। फुले उन दिनों युवा थे। ब्राह्मणों के कपटपूर्ण व्यवहार को देखकर वे आगे आए। 25 दिसंबर 1846 को पुणे में शूद्र एवं अतिशूद्र जातियों की बड़ी सभा बुलाई गई। उसमें फुले ने जोरदार, भावपूर्ण भाषण दिया। उन्होंने शूद्रों से कहा कि वे ब्राह्मणों की चाल को समझें। उनके षड्यंत्र से बाहर आएं। शूद्रों के अज्ञान और अशिक्षा के कारण ही ब्राह्मण शताब्दियों से उनपर राज करते आए हैं। डरते हैं कि शूद्र यदि पढ़-लिख गए तो वे उनकी बातों में नहीं फंस पाएंगे। यह बदलाव का समय है। अंग्रेज चाहते हैं कि समाज के सभी वर्ग पढ़-लिखकर आगे बढ़ें। इसलिए आगे बढ़कर इतिहास को पलटने की जरूरत है।
उस सभा में फुले ने सभी जातियों की लड़कियों के लिए एक स्कूल खोलने की घोषणा की। उस बैठक में भिड़े भी मौजूद थे। चूंकि ब्राह्मण लड़कियां अछूतों की बस्ती में नहीं आ सकती थीं, और महारबाड़ा में किसी के पास स्कूल के लायक घर नहीं था, इसलिए भिड़े ने लड़कियों की पाठशाला के लिए अपना अपना बड़ा घर देने का ऐलान कर दिया। फुले के लिए यह बड़ी उपलब्धि थी। 1848 में भिड़े के मकान में लड़कियों का पहला स्कूल स्थापित हुआ। और सगुणाबाई ने जो सपना देखा था, वह फलीभूत हुआ। उसके बाद तो जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले ने मिलकर 1851 तक एक के बाद एक 18 स्कूलों की स्थापना की। उनकी इस सफलता पर सगुणाबाई सर्वाधिक प्रसन्न थीं। वे उन दोनों पर गर्व करती थीं। उनमें से एक स्कूल में वे अध्यापन भी करती थीं।
यूं तो फुले दंपति को अपने मिशन में निरंतर कामयाबी मिल रही थी। परंतु विरोधी पूरी तरह से शांत नहीं थे। वे अकसर बाधा उत्पन्न करते रहते थे। जोतीराव फुले, सावित्रीबाई और सगुणाबाई ब्राह्मणों के षड्यंत्र पर लगातार नजर रहते थे और समय-समय पर उसका सामना करने पर विचार भी करते रहते थे। जोतीराव फुले समाज में व्याप्त जाति-भेद और उसके दुष्प्रभावों को समझ चुके थे। उनका इरादा रूढ़िवादी ब्राह्मणों को आमने-सामने की टक्कर देने का था। इस काम में भी सगुणाबाई उनका निरंतर उत्साहवर्धन करती रहती थीं। उनका नेतृत्व और प्रोत्साहन फुले दंपति को भावनात्मक शक्ति प्रदान करता था। सगुणाबाई के प्रति सावित्रीबाई फुले के मन में कितना सम्मान था, यह ‘बावन काशी सुबोध रत्नाकर’ में संकलित उनकी कविता से पता चलता है, जिसमें उन्होंने अपनी स्नेहमयी आई की प्रशंसा करते हुए लिखा है—
‘बेहद मेहनती और प्यारी हैं हमारी आई
मूर्ति हैं साक्षात करुणा की
हृदय उनका विशाल, इतना विशाल कि उसके आगे,
गहरा समंदर नजर आता है उथला
दूर तक फैला अनंत आसमान सिकुड़-सा जाता है
आई हमारे घर पधारीं, सहे
हमारे लिए अनेकानेक कष्ट, पीड़ाएं
वे हमारे शिक्षा मिशन की देवी हैं
हमने उन्हें अपने दिल में बसा रखा है।’
जोतीराव फुले भी सगुणाबाई के प्रति इतने ही समर्पित थे। पुस्तक ‘सर्जक की खोज’ उन्होंने अपनी आई मां को समर्पित की है, जिसमें वे लिखते हैं—
‘सत्य और ममता की प्रतिमूर्ति सगुणाबाई
तुमने मुझे पाल-पोसकर बड़ा किया
ओ ममता और मनुष्यता की छवि!
तुमने मुझे दूसरे के बच्चों से सिखाया प्रेम करना
आपकी भूरि-भूरि प्रशंसा के साथ,
मैं इस पुस्तक को आपको समर्पित करता हूं।
दया, ममता, स्नेह और करुणा की मूर्ति, फुले की मां और पथ-प्रदर्शक सगुणाबाई ने 6 जुलाई 1854 को आखिरी सांस ली। लेकिन फुले-दंपति के दिलों और उनके कार्यों में वे हमेशा बनी रहीं। उनकी प्रेरणा हजारों शूद्रों और अतिशूद्रों को अज्ञान के दलदल से बाहर निकालने का माध्यम बनी।
(संपादन : नवल)
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