देश में किसानों का आंदोलन चल रहा है। इसे लेकर तमाम तरह की खबरें सुर्खियों में हैं। इस आंदोलन में दलित-बहुजनों की भूमिका क्या है और उनके लिए यह आंदोलन कैसे महत्वपूर्ण है, इस संबंध में फारवर्ड प्रेस के हिंदी संपादक नवल किशोर कुमार ने ‘वंचित बहुजन अघाड़ी’ के नेता व पूर्व सांसद प्रकाश आंबेडकर से दूरभाष पर विशेष बातचीत की। प्रस्तुत है बातचीत का संपादित अंश
आप पूरे किसान आंदोलन को किस नजरिए से देखते हैं?
देखिए, बीजेपी-आरएसएस की राजनीति पूरी तरह से इंसानियत को उखाड़ फेंकने की राजनीति है। ये हिंदू धर्म के नहीं, वैदिक धर्म के प्रचारक हैं और वैदिक धर्म की व्यवस्था ले आना चाहते हैं। इनके द्वारा आम लोगों को परेशान करने वाली हरकतों से यह बात साबित होती है। किसानों से पहले इन्होंने नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिकता पंजी (एनआरसी) लाकर मुसलमानों को परेशान किया और अब ये किसानों की जिंदगी हराम कर रहे हैं। दूसरी बात यह है कि तीनों कृषि कानून कांग्रेस और एनसीपी की ही देन हैं। ये बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही चचेरे भाई हैं। अभी क्या हुआ है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर अनाजों के खरीद को खत्म करने की बात हुई। मंडियों को खत्म करने की बात हुई। जरूरी खाद्यान्नों से जुड़े कानूनों को खत्म करने की बात हुई। इससे स्पष्ट होता है कि व्यापारियों को मनमानी करनी की पूरी छूट दी जा रही है ताकि वे मनचाहे दाम पर किसानों से खरीद कर सकें। अब हाथी के सामने चूहा क्या कर सकता है?
इन तीनों कानूनों को दलित-बहुजनों के सापेक्ष कैसे देखा जाए?
यह बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि दलित-आदिवासियों के जितने भी नेता हैं, उनमें से एक भी पढ़ा-लिखा नहीं है। न ही वे पढ़ना-लिखना चाहते हैं और ना ही वे अपने को जानकार बनाना चाहते हैं। जितने भी दलित-आदिवासियों के आईएएस अधिकारी बने हैं, सब जानते हुए भी अनजान बन रहे हैं। वे सिर्फ अपनी नौकरी कर रहे हैं। जाहिर सी बात है कि मंडी के खत्म होने पर निजी क्षेत्र का कब्जा हो जाएगा। वे पूरे पब्लिक सेक्टर को प्राइवेट सेक्टर बनाएंगे। आप देखिए कि दलित-आदिवासियों का उभार आखिर पब्लिक सेक्टर के दम पर ही तो हुआ है, न कि अपने बाप-दादा की कमाई के दम पर। शिक्षा, स्काॅलरशिप, सेवाओं में छूट आदि सभी जगहों पर छूट मिली है, तब जाकर वह ऊपर आया है। अब मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि वह यह बात क्यों नहीं समझ पा रहा है। पढ़ा-लिखा वर्ग समझ होने के बावजूद भी नासमझी कर रहा है। वह मानता है कि मैं तो महीने की तनख्वाह ले रहा हूं। थोड़ी-बहुत टेबल के नीचे आमदनी आती है। मैं अपनी जिंदगी अच्छी तरह से गुजार लूंगा। लेकिन अपने बच्चों के बारे में क्या करना है? इसे लेकर वे जरा भी प्रतिबद्ध नहीं हैं। इसलिए वे इस आंदोलन को अनजान तरीके से देख रहे हैं। (मुझे क्या करना है, ये तो किसानों का आंदोलन है, किसान देख लेगा)।
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उसे इस बात की पूरी जानकारी नहीं है कि जिनके पास सरकारी नौकरियां नहीं हैं, जो आदमी खेत मजदूर है, उनकी सकून की जिंदगी की वजह क्या है। कारण यह है कि राशन कार्ड से अनुदानित दर पर अनाज मिल रहा है। यह अनुदानित दर कोई व्यापारी नहीं दे रहा है, बल्कि सरकार दे रही है। सरकार इसलिए दे रही है क्योंकि सरकार खरीद करती है। खरीद करने के बाद संविधान के आर्टिकल 14 के माध्यम से (जीवन का अधिकार), सरकार राशन देती है। जिनकी आमदनी 17 रुपया प्रतिदिन है, उन्हें सस्ते दर पर अन्त्योदय योजना के माध्यम से या अन्य किसी माध्यम से राशन मिलता है। तभी तो वह सकून की जिंदगी जी पा रहा है।
किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलना ही चाहिए। इसका अर्थ यह हुआ कि वह सरकार से कह रहा है कि अगर व्यापारी इस मूल्य पर अनाज नहीं खरीद रहा है तो आप खरीदो। वह सरकार को मजबूर कर रहा है। सरकार खरीददार के रूप में आए और अगर सरकार खरीदेगी तो गरीब इज्जत की जिंदगी जीता रहेगा। इस प्रकार किसान और राशन कार्ड पर निर्भर लोगों को यह लड़ाई मिलकर लड़नी चाहिए।
तो क्या आप इस आंदोलन को समर्थन दे रहे हैं?
मैंने इस आंदोलन का समर्थन पहले से किया है और हम लोगों ने इसमें एक नई कड़ी भी जोड़ दी। महाराष्ट्र में किसानों का आंदोलन करवा दिया। अखबार ऐसी खबरों को हवा नहीं देता है। आज ही राष्ट्रपति का अभिभाषण आया है, जिसमें उन्होंने कहा है कि तिरंगे का अपमान हुआ है। मैं उनसे ही कहना चाहता हूं कि वे 1949 का एग्रीमेंट पढ़ें, जो सरदार पटेल और गोलवलकर के बीच हुआ था। उन्हें जबर्दस्ती घसीट कर लिखवाया गया था कि वे तिरंगा को मानेंगे और अब उसी पार्टी से संबंध रखने वाले राष्ट्रपति कह रहे हैं कि तिरंगे का अपमान हुआ है। मैं पूछना चाहता हूं कि आप जिस पार्टी से आते हैं, पहले उनकी बात का निषेध तो करें। न उन्हें अपनी पार्टी के बारे में कुछ कहना है और ना ही आरएसएस के बारे में। यह लिखित दस्तावेज है भारत सरकार का। आप जो कर रहे हैं, वह सुनी-सुनाई बातें हैं।
अभी देखिए कि किसानों के ऊपर आरोप क्या है! आरोप तो यह नहीं है कि आंदोलनकारियों ने तिरंगा झंडा उतारा और अपना झंडा लगा दिया। आरोप यह है कि उन्होंने झंडे से 20 फुट नीचे सिक्ख धर्म का झंडा फहरा दिया। राष्ट्रपति से मेरा सवाल है कि अपमान किसका हुआ? बड़ी मुश्किल से इंदिरा गांधी ने खालिस्तानियों को मनवाया था। लेकिन आज सिक्खों को मैसेज क्या जा रहा है? मुझे लगता है कि पागलपन की दौड़ चली है देश में, उस पागलपन की दौड़ में राष्ट्रपति भी जुड़ चुके हैं।
दलितों के कुछ अपने भी सवाल हैं। बहुत सारे लोग किसान भूमिहीन हैं, उनके पास खेती के लिए जमीन नहीं है। रहने के लिए घर भी नहीं है। खेतिहर मजदूरों में बहुलांश दलित-बहुजन हैं।
सवाल यह है कि हर कोई जमीन पर जिंदगी नहीं गुजारता है। वह मजदूरी करके जिंदगी गुजारता है। उसे कहना चाहिए कि मैं मजदूरी का मालिक हूं। जैसे किसान कह रहा है कि जो मैं उगा रहा हूं, उसकी यह कीमत होनी चाहिए। मजदूरों को यह कहना चाहिए कि मैं काम पर आने के लिए तैयार हूं, लेकिन मेरी मजदूरी इतनी है। जिस दिन मजदूर यह कहना शुरू करेगा। उसकी हालत सुधरने लगेगी।
इस आंदोलन को खत्म करने की कोशिशें की जा रही हैं। इस पर आप क्या कहना चाहेंगे?
मुझे नहीं लगता कि यह आंदोलन खत्म होगा, क्योंकि आंदोलनकर्ता यह बात समझ रहे हैं कि उनकी जो परिस्थिति है, जमीनों से उपज या अनाजों के सही दाम मिलने पर ही उनकी आस टिकी हुई है। वह जानता है कि जिस दिन न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म होगा, उस दिन उनकी यह आस भी खत्म हो जाएगी। इसलिए यह किसान आंदोलन रूकेगा नहीं। मैं तो यह कहूंगा कि तुम इसमें एक चीज और जोड़ दो कि हम निजीकरण के खिलाफ हैं। फिर देखिए क्या तमाशा खड़ा हो उठता है।
(संपादन : इमानुद्दीन/अनिल)
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