धर्म, जाति, वर्ण-व्यवस्था तथा राजनीति के विभिन्न मुद्दों पर पेरियार गांधी से असहमत थे। अपनी असहमति को वे लेखों और भाषणों के जरिये दर्शाते भी रहते थे। लेकिन जब 30 जनवरी 1948 को चितपावन ब्राह्मण नाथूराम गोडसे ने गांधी की गोली मारकर ह्त्या कर दी, तो पेरियार ने उस घटना की घोर निंदा की थी। गांधी की हत्या को लेकर उन्होंने 7 फरवरी, 1948 तथा 14 फरवरी, 1948 के ‘कुदी आरसु’ में दो संपादकीय लिखे थे। इसके साथ ही 9 फरवरी, 1948 को उन्होंने अखिल भारतीय कांग्रेस समिति, नेहरू, राजगोपालाचारी, पटेल, जयप्रकाश नारायण तथा राजेंद्र प्रसाद को एक पत्र लिखा था, जिसमें गांधी के प्रति अपने सभी मतभेदों को ताक पर रखते हुए, उनकी स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिए कई सुझाव भी दिए थे। गांधी को श्रद्धांजलि देते समय पेरियार ने हिंदू समाज की जिन स्थितियों को लेकर चिंता व्यक्त की थी, वे आज भी अपने उसी विकटतम रूप में मौजूद हैं।
गांधी की हत्या पर ई. वी. रामासामी पेरियार : पहला संपादकीय
गांधी, एक महापुरुष, जिन्होंने समाज सेवा की खातिर, 125 वर्षों की आयु तक जीवित रहने का भरोसा जताया था। जिनका अधिकांश लोग गुणगान करते थे; और जो अपने स्वास्थ्य को लेकर आवश्यक रूप से सजग भी थे – उन्हें 79 वर्ष की अवस्था में असामयिक मृत्यु का सामना करना पड़ा है। उनकी मृत्यु से देश को जो आघात पहुंचा है, वैसा पहले कभी नहीं हुआ। गांधी की राजनीतिक विचारधारा से बहुत से लोग असहमत थे। बावजूद इसके उनके मन में गांधी के प्रति ढेर सारा सम्मान था। हालांकि भारतीयों के मन में अंग्रेजों के प्रति नफरत कूट-कूट कर भरी थी। फिर भी ब्रिटिश सरकार ने गांधी के महत्व को पहचानने तथा उनकी सुरक्षा में जरा-भी लापरवाही नहीं बरती थी।
‘वर्णाश्रम धर्म’ के प्रति गांधी के प्रबल आग्रह को छोड़ दिया जाए तो ‘द्रविड़ कषगम’ का उनसे बहुत अधिक वैचारिक मतभेद नहीं था। उन्हें तो यहां तक उम्मीद थी कि गांधी, वर्ण-व्यवस्था के प्रति अपने लगाव से निकट भविष्य में ही मुक्ति पा लेंगे। यद्यपि वे (गांधी) स्वतंत्र द्रविड़ नाडु के विचार से असहमत थे, लेकिन उम्मीद थी कि 1948 के अंत तक उनके रुख में बदलाव होगा। वह सब हो पाता उससे पहले ही अपने क्रूर कृत्य द्वारा एक ब्राह्मण ने, समूचे ब्राह्मण समुदाय को कभी न मिटने वाला कलंक लगा दिया है।
गांधी करीब 80 वर्ष के थे। जीवन में उन्हें जो मान-सम्मान और सुख प्राप्त हुआ, वह संतोषजनक से अधिक ही था। उन्हें समाज को जो संदेश देना था, दे चुके थे। उन्होंने अपने विचारों पर अमल भी किया था। जैसा जीवन वे जी रहे थे, उससे काफी हद तक संतुष्ट भी थे।
जिस समुदाय का वे समर्थन करते थे, जिसके उत्थान तथा जिसकी प्रतिष्ठा की खातिर वे आजीवन समर्पित रहे – वह अब समाप्ति की कगार पर है। ब्राह्मण समुदाय, जो बाकी समुदायों तथा जनसमूहों को सताकर, उन्हें पीड़ित करते हुए सदैव स्वार्थ-सिद्धि में लिप्त रहता था, उसे गांधी ने अनावश्यक रूप से अपना बैरी बना लिया था। उसी का बदला ब्राह्मणों ने इस नापाक कृत्य से लिया है। यह केवल एक व्यक्ति का कार्य नहीं है, बल्कि एक समुदाय की स्वाभाविक जीवन-शैली है।
एक घटना के लिए पूरे समुदाय पर दोषारोपण करना शायद उचित न हो। इसके मूल में असल भूमिका उन पौराणिक कथाओं तथा धर्मग्रंथों की है, जिन्होंने इस देश में नफरत और कट्टरता की जमीन तैयार की है।
अंग्रेजों और मुगलों का शासन समाप्त हो चुका है। फिर भी पिछले एक वर्ष में हिंदू-मुस्लिम विवाद के नाम पर न जाने कितने अत्याचार इस देश में हुए हैं। कोई बताए, क्या उन अत्याचारों के पीछे ब्राह्मण धर्म न होकर कोई और कारण था?
पुनश्चः, इन दिनों द्रविड़ नाडु में जो द्रविड़-आर्य संघर्ष तथा द्रविड़ नाडु को अलग करने के लिए जो आंदोलन चल रहा है – उसके लिए सिवाय ब्राह्मणवादी संप्रदाय के, क्या किसी और को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? ऐसे मतांधों द्वारा गांधी के जीवन को छीन लेने में आश्चर्य कैसा? अपने सम्मिलित प्रयासों द्वारा द्रविड़ नाडु की जनता ने, ब्राह्मण धर्म की शैतानी चालों पर अंकुश लगाने का काम किया है। फिर भी ऐसा लगता है कि ब्राह्मण लंबे समय तक प्रतीक्षा नहीं करेंगे। गांधी के निधन के परिणामस्वरूप, उत्तर भारत में ब्राह्मणवाद की प्रतिष्ठा को झटका लग सकता है। उससे वहाँ हिंदू-मुस्लिम विवाद को भी नियंत्रित किया जा सकता है। परिणामस्वरूप ब्राह्मण अपनी समस्त शैतानी हरकतों को द्रविड़ जनता की ओर मोड़कर, उसे अपना निशाना बना सकते हैं।
आरंभ में दक्षिण भारत के अखबारों ने यह नहीं बताया था कि गांधी की हत्या के पीछे एक ब्राह्मण का हाथ है। उन्होंने समाचारों को बड़ी बेशर्मी से तोड़-मरोड़कर इस तरह पेश किया था। इस तरह कि वे आम जनता को मुसलमानों तथा गैर-कांग्रेसियों के विरुद्ध भड़का सकें। हमारे संगठन के विरुद्ध लोगों की नफरत को हवा देने; तथा हंगामा खड़ा करने के लिए वे ‘ब्लैक शर्ट’ आंदोलनकारियों के विरुद्ध झूठे और मनगढ़ंत समाचार छाप रहे थे। वे चाहते थे कि समाज में, हमारे संगठन के खिलाफ नफरत पैदा हो। ‘द हिंदू’ और ‘स्वदेशीमित्रन’ जैसे विषवमन करने वाले अखबारों, जो समाज में धर्मांधता और नफरत फैलाते हैं, से मुक्ति के बाद ही हमारा देश सुख-समृद्धि, ज्ञान एवं समरसता प्राप्त करने में सफल हो सकता है।
जब तक इस देश में विषतुल्य ब्राह्मण-धर्म कायम है, उस समय तक यहां शांति और सद्भाव की स्थापना असंभव है। हम यह नहीं कहते कि केवल धर्म तथा ईश्वर ही समस्त बुराइयों की जड़ हैं। वे दोनों इस देश में भी वैसे ही रह सकते हैं, जैसे दुनिया के बाकी देशों में हैं। लेकिन हम वर्ण-व्यवस्था और जातिभेद का पोषण-संरक्षण करने वाले ब्राह्मण धर्म के सर्वथा विरुद्ध हैं।
वर्णाश्रम व्यवस्था के कायम रहने तक, जिसने गांधी को हमसे छीन लिया है, पंडित नेहरू तथा राजगोपालाचारी अपनी संपूर्ण निष्ठा, बुद्धिमानी और नि:स्वार्थ कोशिशों के बावजूद इस देश में सुशासन नहीं ला सकते। इन नेताओं को जातिभेद को समाप्त करने तथा उसका समर्थन करने एवं संरक्षण देने वाले धर्मग्रंथों एवं परंपराओं पर प्रतिबंध लगाने के लिए कानून बनाना चाहिए। सभी सांप्रदायिक संगठनों को गैर-कानूनी घोषित कर देना चाहिए।
इससे समाज में लोकतांत्रिक सोच तथा समाजवादी चेतना का विकास होगी।
(कुदी आरसु, 7 फरबरी, 1948 को प्रकाशित)
गांधी के बाद : दूसरा संपादकीय
गांधी सज्जन पुरुष थे। उन्होंने अपने संपूर्ण आत्मसंयम और निष्ठा से भरपूर अपने जीवन के 30 वर्ष भारतीय उपमहाद्वीप की जनता के कल्याण हेतु समर्पित कर दिए थे। इस तरह वे अपने आदर्श से भी, कहीं आगे निकल चुके थे। उनका रास्ता अहिंसा का था। हिंसा में उन्हें जरा भी विश्वास नहीं था। धर्म को लेकर उनकी मान्यता थी कि विभिन्न धर्मों के बीच कोई अंतर नहीं है। सभी का लक्ष्य बिंदु एक समान है। जहां तक ईश्वर की बात है, उनका एकेश्वरवाद में पक्का भरोसा था। मानते थे कि एक परमात्मा है। उसे विभिन्न लोगों ने अलग-अलग तरह से वर्णित किया है। उनका मानना था कि जिन मंदिरों में लोगों को ईश्वरीय प्राप्ति की दिशा में मार्गदर्शक की भूमिका निभानी चाहिए, वे व्यभिचार के अड्डे बन चुके हैं।
उनकी मान्यता थी कि पूजा-अर्चना के लिए खुला स्थान ही पर्याप्त था। उसके लिए न तो किसी बिचौलिए (पुजारी) की आवश्यकता थी और ना ही किसी देवता के लिए चढ़ावे की। उन्होंने मूर्तिपूजा का विरोध किया था, प्रार्थना का समर्थन। समाज में एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के शोषण के वे सर्वथा खिलाफ थे। समाज के किसी भी हिस्से का दमन हो, यह उनके लिए शर्म की बात थी।
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म मानते हैं कि ये नीतियां हमारे देश की समस्याओं के समाधान, धर्म और जाति-संबंधी पेचीदियों को सुलझाने की दिशा में काफी हद तक पर्याप्त थीं। फिर भी हम यह महसूस करते थे कि प्रचार के लिए जो तरीके उन्होंने अपनाए थे, वे हमें अवांछनीय परिणामों तक ले जा सकते हैं।
अब जब वे दृश्य पटल से दूर जा चुके हैं, क्या हमें इस बात को लेकर आत्मपरीक्षण नहीं करना चाहिए कि अभी तक हमने कितनी प्रगति की है। यदि हमारा लक्ष्य हमसे आज भी दूर है तो उसे प्राप्त करने के लिए हमें क्या करना होगा? आखिर हम कैसे यह सिद्ध करें कि हमने उनकी नीतियों का अनुसरण किया है।
यह हिंदू धर्म ही है जिसने गांधी की हत्या की थी। यह महसूस किया जाता था कि गांधी की उपस्थिति, अंतत: उसके अस्तित्व के लिए हानिकारक सिद्ध होगी। ऐसे में गांधी की मृत्यु का इस्तेमाल उसी धर्म के विकास के लिए कैसे किया जा सकता है? गांधी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यह होगी कि हम उन सभी शक्तियों को नष्ट कर दें, जिन्हें उन्होंने प्रतिगामी माना था। न केवल द्रविड़ों, बल्कि भारत की सभी राष्ट्रीयताओं को इन मामलों पर गंभीर चिंतन करना चाहिए।
हिंदू धर्म को लगता था कि गांधी जीवित रहे तो उसका अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। ऐसे में क्या उनके निधन को उसी धर्म के उत्थान हेतु इस्तेमाल किया जाना चाहिए? जिन लोगों ने अपने लिए सर्वोच्च जाति का विधान किया है, दूसरों नीचा दिखाने के लिए वे, परंपरा और शास्त्रों की आड़ में अपनी सभी चालें आजमाएंगे। अपने षड्यंत्र में सफल होने की यथासंभव कोशिश करेंगे। क्या इस महापुरुष के निधन का उपयोग इन धोखेबाज और प्रपंची लोगों द्वारा अपनी स्वार्थसिद्धि के निमित्त किया जाना चाहिए?
उनकी मृत्यु के तेरहवें दिन, उनकी अस्थियों को धार्मिक संस्कार के रूप में देश की पवित्र नदियों में प्रवाहित कर दिया गया था। हजारों लोगों ने उस दृश्य को देखा तथा उनके लिए अंतिम प्रार्थना में हिस्सा लिया था। इस तरह की घटनाएं तर्कशीलता का अनुसरण करने वाले व्यक्ति को भी हतप्रभ कर सकती हैं। गांधी की हत्या के शुरुआती झटकों के बाद, हमारे भीतर यह संकल्प पैदा हुआ कि उनके प्रति अपना आभार व्यक्त करने के लिए कुछ करें।
प्रकृति पर विजय प्राप्त करने के लिए बनाए गए सभी वैचारिक उत्पाद, हमारे देश में कर्मकांड जैसे बन चुके हैं। यहां तक कि पुस्तकों को भी जो ज्ञान की संवाहक हैं, उनका ठोस और समुचित उपयोग करने के बजाय पूजा-पाठ की वस्तु मान लिया गया है। ऐसी मनोवृतियां और प्रथाएं ही इस देश के और इसके गौरवशाली अतीत के पतन के लिए जिम्मेदार हैं।
गांधी ने ब्राह्मणवाद के विषैले सर्प को दूध पिलाकर पाला था। वे मानते थे कि एक बार आजादी मिल जाए, तब इसको विषहीन किया जा सकेगा। लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, जब उन्हें लगा कि उन्होंने इस विषधर को अपने नियंत्रण में ले लिया है, वे खुद नुकीले विषदंतों का शिकार हो गए।
हमें इसके साथ क्या करना चाहिए? हम यह नहीं कहते कि इसको पूरी तरह से कुचल दिया जाए। हम बस इतना चाहते हैं कि इसके पैने विषदंतों को उखाड़ दिया जाए? इसे कैसे करना है?
यह मान लेना चाहिए कि हिंदू धर्म, जिसका विकास ब्राह्मणवाद के भले के लिए हुआ था, वह इस समाज के पतन के लिए जिम्मेदार है। इसलिए हमें खुद को इससे अलग कर लेना चाहिए। इस देश को जिसे प्रजातियों और धर्मों में बांट दिया गया है, एक प्रगतिगामी मार्ग को अपनाना चाहिए, जिससे यहाँ एक राष्ट्र, एक जाति और एक धर्म का निर्माण संभव हो सके।
(कुदी अरासु, 14 फरवरी, 1948 को प्रकाशित)
पेरियार द्वारा लिखित पत्र में गांधी की स्मृति को चिरस्थायी बनाने हेतु सुझाव
- ‘इंडिया’ नाम को बदलकर ‘गांधी देसम’ अथवा ‘गांधीस्तान’ कर दिया जाए।
- हिंदू धर्म के नाम को ‘गांधीवाद’ अथवा ‘गांधी धर्म’ में बदल दिया जाए।
- हिंदुओं को ‘सच्चे ज्ञानमय धर्म का अनुयायी’ पुकारा जाए।
- गांधी दर्शन के अनुसार भारत में लोगों का केवल एक ही समुदाय होना चाहिए। उसमें जाति के आधार पर कोई विभाजन नहीं होना चाहिए। नए धर्म की आधारशिला प्रेम और ज्ञान पर रखी जानी चाहिए। क्रिश्चन कलेंडर का उपयोग करने के बजाए हम गांधी संवत भी आरंभ कर सकते हैं।
इससे गांधी को बुद्ध, कृष्ण और मोहम्मद के समतुल्य मान लिया जाएगा। पूरे विश्व में हमारा सम्मान होगा। ‘आर्य समाज और ‘ब्रह्म समाज’ जैसे पंथ बौद्ध, ईसाई और इस्लाम धर्मों जितनी उल्लेखनीय सफलता प्राप्त नहीं कर सके हैं। इसलिए कि उन्हें इस शासन का संरक्षण मिलता रहा है। भारत की जनसंख्या 30 करोड़ से अधिक है। यदि गांधीवाद को सरकारी धर्म मान लिया जाए तो उसकी सफलता सुनिश्चित है। इससे अज्ञान, अंधविश्वास और धर्मांधता से भरपूर सभी प्रकार के समारोहों पर अंकुश लगेगा।
सुधार के लिए यह सबसे अच्छा समय है। भारत का एक हिस्सा (सिंधु प्रांत) पाकिस्तान बन चुका है। इसी तरह ‘इंडिया’ नाम को भी बदला जा सकता है। ‘हिंदू’ और ‘इंडिया’ नाम सिंधु नदी पर आधारित थे, जिन्हें विदेशियों ने दिया था। गांधी सहित सभी विद्वान यह मान चुके हैं। यदि गांधी की ह्त्या के परिणामस्वरूप इन बदलावों को मान लिया जाता है तो भविष्य में धर्म, जाति और सामाजिक विवाद के बहुत कम घटनाएं सामने आएंगी।
(मूल तमिल से अंग्रेजी अनुवाद और संपादन : प्रोफेसर ए. अय्यासामी, अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद : ओमप्रकाश कश्यप, संपादन : नवल)