जननायक कर्पूरी ठाकुर (24 जनवरी, 1924 – 17 फरवरी, 1988) पर विशेष
जननायक! जननायक वह व्यक्ति होता है जो विशिष्ट होते हुए भी आम हो। विशद अर्थों में देखें तो यह अपने आप में एक विरोधाभास है; ऐसा व्यक्ति जो एक बड़े जनमानस का प्रतिनिधि है, साथ ही वह इतना सामान्य भी है कि आमजनों के लिए सर्वसुलभ हो। संत कबीर के शब्दों में कहें तो ‘सहज सहज सब कोई कहै, सहज न चीन्हैं कोय। जिन सहजै विषया तजै, सहज कहावै सोय।‘ लेकिन इन सभी सहजताओं को सहेजते हुए असाधारण व्यक्तित्व के धनी, सामाजिक न्याय के ध्वजवाहक, समाजवाद के अप्रतिम सेनानी, वंचितों की शिक्षा के पैरोकार, सरल एवं सरस हृदयी व्यक्तित्व, कर्मठ राजनेता और देश-समाज के जननायक हुए कर्पूरी ठाकुर।
जब एक सामंत ने किया अपमान
बिहार में अति पिछ़ड़ी जाति (पूर्व में पिछड़ी वर्ग) में शुमार नाई जाति में कर्पूरी ठाकुर का जन्म 24 जनवरी, 1924 को समस्तीपुर जिलान्तर्गत पितौझिया नामक गांव में हुआ। उनके पिता गोकुल ठाकुर और मां का नाम रामदुलारी देवी था। गोकुल ठाकुर अपने जातीय पेशा हजामत के अलावा थोड़ी-बहुत खेती करते थे। इनके परिवार के जीवनयापन का यही आधार था। कर्पूरी बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। गोकुल ठाकुर खुद के अशिक्षित रह जाने की कसक के कारण बेटे की पढ़ाई को लेकर सजग थे। उस समय पिछड़ी जातियों में पढ़ाई-लिखाई करना इतना आसान कहां था! इक्के-दुक्के लोग ही अपनी पढ़ाई पूरा कर पाते थे। पिता इनकी प्रतिभा और पढ़ाई में रुचि से प्रसन्न होकर हमेशा इन्हें प्रोत्साहित करते रहे। इनकी प्रारंभिक शिक्षा अपने गांव में ही संपन्न हुई। प्राथमिक शिक्षा के बाद न्यू एच. ई. स्कूल, समस्तीपुर में इनका नामांकन हुआ जो वर्तमान में तिरहुत अकादमी के नाम से जाना जाता है। यह स्कूल इनके गांव से करीब सात किलोमीटर की दूरी पर था। वे प्रतिदिन पैदल स्कूल आते-जाते थे। अपनी प्रतिभा और कठिन परिश्रम की बदौलत वे मैट्रिक की परीक्षा में फर्स्ट डिविजन आए थे।
उस कालखंड में पिछड़े-दलित वर्ग के बच्चों का विद्यालय में प्रवेश पाना से अधिक चुनौतीपूर्ण था विद्यालय में टिके रहना। उस कठिन दौर में गांव-देहात के किसी पिछड़ी जाति में जन्मे बालक का फर्स्ट डिविजन में उत्तीर्ण होना बड़ी उपलब्धि माना जाना स्वाभाविक था। बेटे की सफलता से उत्साहित और गौरवान्वित पिता उत्साहवश अभिजात्य वर्ग के एक व्यक्ति के यहां कर्पूरी ठाकुर को ले गए और खुशी जाहिर करते हुए कहा, ‘हुजूर यह मेरा बेटा है, मैट्रिक की परीक्षा फर्स्ट डिविजन से पास किया है।‘ यह सब बातें उस व्यक्ति को नहीं भायीं। भातीं भी कैसे? कोई नाई का बेटा और इतनी बड़ी सफलता!
पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा कहते हैं, “उस व्यक्ति ने अपने टांग को टेबल पर रखते हुए कहा- अच्छा फर्स्ट डिविजन से पास किए हो, चलो मेरा पैर दबाओ। पढ-लिखकर कर ही क्या लोगे? आखिर में उस्तरा ही तो पकड़ना है।” अपनी इस सफलता के बदले उन्हें यह अपमान मिला लेकिन वे किसी और मिट्टी के ही बने थे, सब कुछ सह गये। लेकिन नियति को कौन जानता था कि यह बालक एक दिन भविष्य में वंचित वर्ग का मसीहा बनेगा और पिछड़े-दलितों की शिक्षा की राह में उपस्थित अवरोधों को एक ही झटके में हटा देगा।”
छात्र जीवन में राजनीति की शुरूआत
उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए वे सी. एम. कॉलेज, दरभंगा में नामांकित हुए। यहां की कक्षाओं में समय पर शामिल होने के लिए उन्हें 4 बजे सुबह उठकर समस्तीपुर से दरभंगा की ओर आने वाली ट्रेन पकड़नी होती थी और दरभंगा स्टेशन पर उतर कर फिर पैदल चलना पड़ता था। लंबी दूरी के लिए पैदल चलने का यह अभ्यास इन्हें बचपन से ही था। इनकी माता नाश्ते के लिए सत्तू, मिर्च और नमक एक पोटली में बांधकर देती थीं। वह दौर स्वतंत्रता संघर्ष का था। धीरे-धीरे इनका मन स्वतंत्रता आंदोलन से संबंधित गतिविधियों की तरफ आकृष्ट होने लगा। छात्र जीवन से ही इन्हें अन्याय के खिलाफ जहाँ कहीं भी बोलने का मौका मिलता वे कभी नहीं चूकते।
एक कहावत है- ‘अग्रे नेयति इति नेता‘। अर्थात् नेता वही है जिसमें लोगों को आगे ले जाने की क्षमता हो। यह गुण कर्पूरी ठाकुर में विद्यमान था। एक बार वे पटना के एक सभागार में छात्रों की सभा को संबोधित कर रहे थे। अपने ओजस्वी भाषण में उन्होंने कहा, “हमारे देश की आबादी इतनी अधिक है कि लोग केवल थूक दें तो अंग्रेजी राज बह जाएगा।” इस वक्तव्य के कारण हुकूमत ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। इन्हें एक दिन की जेल और 50 रूपये का जुर्माना सुनाया गया।
इनके गांव पितौंझिया से सटे वैनी गांव में अक्सर बड़े-बड़े समाजवादी नेता आते रहते थे। इसी क्रम में दिग्गज समाजवादी आचार्य नरेंद्र देव 1938 में वहां एक रैली को संबोधित करने आये थे। उन्होंने बालक कर्पूरी की उम्दा सोच और जज्बे से प्रभावित होकर स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने एवं सोशलिस्ट राजनीति से जुड़ने का आग्रह किया। उस समय गांधी जी के नेतृत्व में भारत छोड़ो आंदोलन चल रहा था। युवा कर्पूरी भी खुद को रोक नहीं सके और पढ़ाई छोड़कर आंदोलन में शामिल हो गए। गांधी जी ने 8 अगस्त, 1942 ई. को बम्बई के ग्वालिया टैंक मैदान से देश की आजादी के लिए जब ‘करो या मरो‘ का उद्घोष किया तब कॉलेज में छात्र रहे कर्पूरी ठाकुर ने अपने कॉलेज में आंदोलन की कमान थामी। संभवतः यह इनके राजनीतिक जीवन में प्रवेश का प्रथम द्वार था। इन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया जहां इन्हें लगभग 26 महीने जेल में बिताने पड़े। स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों और समाजवादी विचारों ने इनके राजनीतिक जीवन को गहराई तक प्रेरित और प्रभावित किया।
विधायक से मुख्यमंत्री तक का सफर
प्रखर समाजवादी डॉ. राममनोहर लोहिया हमेशा लोकतांत्रिक मूल्यों और सामाजिक न्याय को वास्तविक रूप में फलीभूत होते देखने के लिए प्रयत्नशील और चिंतित रहते थे। छात्र जीवन में ही कर्पूरी जी समाजवादी नेताओं डॉ. लोहिया, मधुलिमये, नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण आदि दिग्गजों के सम्पर्क में आ गए थे। महान समाजवादी चिंतकों का सान्निध्य इन्हें प्राप्त होने लगा था। स्वतंत्रता के बाद 1952 ई. में देश का पहला आम चुनाव हुआ। समाजवादी पार्टी के टिकट पर कर्पूरी ठाकुर ताजपुर विधानसभा क्षेत्र से बिहार विधानसभा के सदस्य चुने गए। इसके बाद वे कई विधानसभा क्षेत्रों से लगातार चुनाव जीतते रहे। 1967 में जब डॉ. लोहिया द्वारा गैर-कांग्रेसवाद के आह्वान पर कुल नौ राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ तब इन्हें बिहार के महामाया प्रसाद सिन्हा के मंत्रिमंडल में उप-मुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री का पद संभालने का अवसर मिला। यहीं से शुरू हुआ था वास्तविक रूप से सामाजिक न्याय की दिशा में ठोस कदम और क्रियान्वयन का अवसर। कर्त्तव्यनिष्ठता, संघर्षशीलता, कठिन परिश्रम और सेवा भाव का इनाम उन्हें तब मिला जब वे 22 दिसंबर, 1970 को अपने जीवन में पहली बार विधायक दल के नेता चुने गये। उन्होंने बिहार के पहले गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री बनने का गौरव प्राप्त किया। दलित-पिछड़ा एवं वंचित वर्ग की समस्याओं की इन्हें गहरी जानकारी थी और वे उन समस्याओं से स्वयं को जुड़ा हुआ पाते थे। लेकिन तब विपक्षी दलों ने साजिश के तहत 2 जून, 1971 को उनकी सरकार गिरा दी। यह सरकार महज 163 दिन ही चल पायी। आपातकाल के बाद हुए चुनाव में देशव्यापी इंदिरा विरोधी लहर पर सवार जनता पार्टी को बिहार विधानसभा में प्रचंड बहुमत मिला। वे दूसरी बार 24 जून, 1977 से 21 अप्रैल, 1979 तक मुख्यमंत्री रहे।
सरकार संचालन में उन्होंने न तो अवांछित हस्तक्षेप कभी बर्दाश्त किए और न अपमानों से कभी विचलित हुए। उनका कहना था – “हक चाहिए तो लड़ना सीखो/ कदम-कदम पर अड़ना सीखो/ जीना है तो मरना सीखो”।
सबसे पहले शिक्षा के अवरोध को किया खत्म
कर्पूरी ठाकुर की खासियत यह थी कि वे समाज की बीमारी समझते थे। वे जानते थे कि पिछड़ों, दलित, शोषित, वंचित एवं महिलाओं में शिक्षा का प्रचार-प्रसार किए बगैर विकसित समाज और उन्नत राष्ट्र के निर्माण का सपना कभी पूरा नहीं हो सकता। यह वह दौर था जब आजादी के बाद वंचित समुदाय की पहली पीढ़ी शिक्षा से जुड़ने की कोशिश कर रही थी। वंचित समुदाय के छात्रों की सबसे बड़ी समस्या थी– अंग्रेजी विषय की अनिवार्यता और स्कूलों में फीस का भुगतान। वंचित वर्ग के पहली पीढ़ी के बच्चे अंग्रेजी भाषा को लेकर असहज रहते थे। मात्र कुछ ही लोग अपने बच्चों को सारी सुविधाएं प्रदान करने में समर्थ थे। ज्यादातर बच्चों के अभिभावक फीस का भुगतान नहीं कर पाते थे। मजबूरन बच्चे बीच में ही अपनी पढ़ाई छोड़ देते थे। बड़ी संख्या में बच्चे अंग्रेजी में फेल हो जाते थे, फलस्वरूप उच्च शिक्षा पाने से वंचित रह जाते थे। उन दिनों मैट्रिक की परीक्षा में शामिल होना और असफल होना भी एक डिग्री जैसा ही था। इस डिग्री का नाम था- मैट्रिक फेल। इस समस्या के निदान हेतु कर्पूरी ठाकुर ने अपने कार्यकाल में अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म कर दी। मामूली फीस भी वंचित तबके लिए भारी थी। उन्होंने पहले आठवीं तक की शिक्षा मुफ्त की फिर दसवीं तक। इस शासनादेश से वंचित वर्ग के बच्चों में भी शिक्षा के प्रति ललक जगी एवं वे भी सफल श्रेणी में शामिल होने लगे। वंचित समाज के बच्चों का उच्च शिक्षा में प्रवेश एक खास वर्ग के लिए असहनीय था, जिसके कारण कर्पूरी ठाकुर के इस महत्वपूर्ण फैसले की कड़ी आलोचना की जाने लगी। उस दौर में विदआउट अंग्रेजी पैट्रिक पास करने वालों का ‘कर्पूरी-डिविजन‘ से पास कहकर उनका मज़ाक उड़ाया जाने लगा था। हमें तत्कालीन परिस्थितियों को याद करते हुए मानना पड़ेगा कि बिहार के वंचित जमात के लोगों में शिक्षा की अलख जगाने में उनके शासनादेश का बहुत बड़ा योगदान है। आजादी के करीब तीन दशक बीतने के बाद भी प्राथमिक विद्यालयों की संख्या पर्याप्त नहीं थी। इन्होंने शिक्षा के बजट में बढ़ोत्तरी कर अनाच्छादित गांवों में नए पाठशालाओं के निर्माण पर जोर दिया। उस समय तक जिला मुख्यालय केन्द्रित एक-दो ही सरकारी हाईस्कूल थे तथा दूर-दराज के ग्रामीण क्षेत्रों में समुदाय द्वारा संचालित स्व-वित्तपोषित हाईस्कूल हुआ करते थे। इन हाईस्कूलों के शिक्षकों का वेतन छात्रों से वसूली गयी फीस पर निर्भर करता था। शिक्षकों और अभिभावकों की खराब हालात शिक्षा के प्रसार में बाधक बन रही थी। कर्पूरी ठाकुर इस समस्या से वाकिफ थे। अवसर मिलते ही उन्होंने हाईस्कूलों का सरकारीकरण कर दिया। इनके कार्यकाल से ही मिशनरी स्कूलों ने हिंदी में पढ़ाना शुरू किया। इनकी नीतियों के प्रभाव में आकर मिशनरी स्कूलों ने गरीब बच्चों की स्कूल फीस भी माफ करने का संकल्प लिया। इन ऐतिहासिक निर्णयों का परिणाम रहा कि बिहार में शिक्षा के क्षेत्र में कमजोर वर्ग के छात्रों की भी भागीदारी बढ़ी।
वर्ष 2002 में जब देशव्यापी सर्व शिक्षा अभियान लागू किया गया, अंग्रेजी भाषा का अंतरराष्ट्रीय महत्व और तकनीकी क्षेत्रों में बढ़ती इसकी महत्ता को देखते हुए तत्कालीन बिहार सरकार ने तीसरी कक्षा से ही इस विषय को पढ़ाना आरंभ किया। फिर भी मैट्रिक की परीक्षा में अंग्रेजी में पास होना अनिवार्य नहीं है। कहें तो आज भी बिहार में अंग्रेजी के संबंध में शासन की शैक्षणिक नीति कर्पूरी ठाकुर की सोच का ही अनुसरण करती है। उनका मानना था कि भाषा छात्रों के बौद्धिक विकास में सहायक बने, अवरोध नहीं।
और मुंगेरीलाल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करना रहा मास्टर स्ट्रोक
कर्पूरी ठाकुर के मुख्यमंत्रीत्व काल की सबसे अहम उपलब्धि थी- मुंगेरीलाल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करना। इस आयोग का मुख्य कार्य पिछड़ी जातियों की पहचान, उनकी सामाजिक व शैक्षणिक स्थिति का अध्ययन और आरक्षण के स्वरूप के संबंध में सिफारिश करना था जो कर्पूरी ठाकुर जी के चिंतन का मुख्य आयाम था। वे पिछड़ों की पहचान, शिक्षा तथा रोजगार में इस वर्ग की न्यूनतम हिस्सेदारी, आरक्षण की व्यवस्था और उनके स्वरूप को लेकर हमेशा चिंतित रहते थे। इन्हीं समस्याओं के समाधान के साथ मुंगेरीलाल कमीशन की रिपोर्ट आयी। आजादी के बाद बिहार की राजनीति में पहली बार सामाजिक न्याय केन्द्रीय मुद्दा तब बना, जब छह सदस्यीय मुंगेरीलाल कमीशन का गठन 1971 में हुआ। 1976 में इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट सौँपी। उसने अन्य पिछड़ा वर्गों के लिए राज्य स्तरीय सरकारी नौकरियों में 26 फीसदी और शिक्षण संस्थानों में 24 फीसदी स्थानों को आरक्षित करने की अनुशंसा की। इस आयोग ने सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की सूची जाति और आर्थिक दोनों ही आधारों पर तैयार की। इस सूची में 128 जातियां शामिल थीं। इनमें से 94 जातियों को अति पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में रखा गया। इस आयोग ने बिहार की जनसंख्या के 38 फीसदी भाग को अति पिछड़ा वर्ग के रूप में मान्यता दी। इस आयोग ने यह विचार भी व्यक्त किया कि आरक्षण को लागू करते समय पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग पर अलग-अलग विचार किया जाना चाहिए।
मुंगेरीलाल आयोग ने 1976 में जब राज्य सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी, उस समय बिहार में कांग्रेस की सरकार थी। उस सरकार ने मुंगेरीलाल आयोग की सिफारिशों की उपेक्षा की। जून 1977 में हुए विधानसभा चुनाव में जनता पार्टी ने अपने घोषणापत्र में यह वायदा किया था कि उनकी सरकार बनने पर वह मुंगेरीलाल आयोग की सिफारिशों को लागू करेगी। मुख्यमंत्री बनने के बाद कर्पूरी ठाकुर ने इस आयोग की सिफारिशों को लागू करने का फैसला किया। 21 मार्च, 1978 को राज्य मंत्रिमंडल ने इस आयोग के सिफारिशों को स्वीकार करने के फैसले पर अपनी मुहर लगा दी। अक्टूबर 1978 में इस आयोग की सिफारिशों को लागू करने की घोषणा की गई और उसी साल 10 नवंबर को आरक्षण लागू करने की अधिसूचना जारी कर दी गई। इस अधिसूचना से सरकारी नौकरियों में 26 फीसदी और शिक्षण संस्थानों में 24 फीसद आरक्षण लागू हो गया। तकनीकी भाषा में अति पिछड़ों के लिए एनेक्चर-1 और पिछड़ी जातियों के लिए एनेक्चर-2 शब्द का इस्तेमाल किया गया। अब तक केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्ग को ही आरक्षण का लाभ मिल रहा था। अब आरक्षण से वंचित विशाल समुदाय को भी इसका लाभ मिलने लगा। अब पिछड़ों के लिए 8 प्रतिशत, अति पिछड़ों के लिए 12 प्रतिशत, सभी वर्ग के महिलाओं के लिए 3 प्रतिशत एवं देश में सर्वप्रथम गरीब सवर्णों के लिए भी 3 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था थी। हालांकि सवर्ण आरक्षण को कोर्ट के आदेश से समाप्त कर दिया गया। यद्यपि आज नए शासनादेश से गरीब सवर्ण भी 10 प्रतिशत आरक्षण का लाभ उठा रहे हैं, लेकिन उस दौर में पिछड़ों के लिए आरक्षण की व्यवस्था को सवर्ण समाज के लोग हेय-दृष्टि से देखते थे। कर्पूरी ठाकुर के लिए कटाक्ष, भद्दा मजाक और गाली-गलौज आम बात थी। पूरे बिहार में कर्पूरी जी और उनके आरक्षण, जो कर्पूरी फार्मूला के नाम से प्रसिद्ध हुआ, की खूब आलोचना की गई। आरक्षण विरोध का स्वरूप जल्द ही जातिगत दंगों का वीभत्स रूप लेने लगा था। लेकिन दृढनिश्चयी कर्पूरी ठाकुर युवाओं को रोजगार देने के प्रति इतने प्रतिबद्ध थे कि गांधी मैदान में कैंप लगाकर 9 हजार से ज्यादा इंजीनियरों और डाक्टरों को एक साथ नौकरी दी गई। इतने बड़े पैमाने पर एक साथ इंजीनियर्स और डाक्टरों की बहाली फिर कभी नहीं हुई।
शासन-प्रशासन में वंचितों की हिस्सेदारी बढ़ाई
कर्पूरी ठाकुर जनता पार्टी के विधायक दल के नेता चुने जाने के बाद जब दूसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लिए तो इनके मंत्रिपरिषद में कुल 47 सदस्य थे। इसमें पिछड़ी जातियों के 19, उंची जातियों के 15, अनुसूचित जातियों के 5, मुस्लिम समुदाय के 3 और अन्य समुदायों के 5 सदस्य थे। इस तरह से बी. पी. मंडल और दरोगा प्रसाद राय के बाद कर्पूरी ठाकुर ऐसे तीसरे मुख्यमंत्री हुए जिन्होंने अपने मंत्रिपरिषद में ऊंची जातियों के वर्चस्व को तोड़ते हुए मंत्रिमंडल को समावेशी बनाया। पहली बार पिछड़ी जातियों को समुचित प्रतिनिधित्व मिला।
उपर्युक्त महत्वपूर्ण ऐतिहासिक कार्यों के अलावा बहुत-से ऐसे उत्कृष्ट और सराहनीय कार्य कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में किया गया जिनसे आम आदमी के जीवन की गुणवत्ता में आमूलचूल सुधार हुआ।
प्रसिद्ध साहित्यकार प्रेमकुमार मणि कहते हैं, “उस दौर में समाज में उन्हें कहीं अन्तर्जातीय विवाह की खबर मिलती तो वे वहां पहुंच जाते थे। वे हमेशा समाज में एक बदलाव चाहते थे।”
वहीं बिहार सरकार के पूर्व मंत्री अब्दुलबारी सिद्दीकी कर्पूरी ठाकुर को याद करते हुए अपने एक भाषण में कहते हैं, “ऐसे तो बहुसंख्यक, वंचित और गरीब-गुरबों की राजनीति करने वाले लोग हमेशा अपमानित हुए हैं, गाली सुने हैं मगर हमने अपने राजनीतिक जीवन में जितनी गाली सुनते हुए कर्पूरी जी को सुना है उतना बिहार में शायद ही किसी को गाली मिली होगी। लेकिन अब उस परिस्थिति में फर्क आ गया है। अब अगर कोई गाली देता है तो अपने अगल-बगल, दाएं-बाएं जरूर देख लेता है कि कोई पिछड़ा-दलित, आदिवासी तो नहीं है।”
ऐसे थे जननायक कर्पूरी ठाकुर और यह है उनके किए का हासिल।
(संपादन : नवल/अमरीश)
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