सावित्रीबाई फुले (3 जनवरी, 1831 – 10 मार्च, 1897) पर विशेष
आजादी के 73 साल बाद जब हम जातीय व धार्मिक विद्वेष से अपने आपको तमाम तरह के दबाव, जकड़बंदी, अधिकारों के हनन में अपने आपको असुरक्षित और अकेला महसूस करते हैं तो हिम्मत की एक लौ, साहस की प्रतिमूर्ति, अपने कार्य के प्रति प्रतिबद्ध भारत की पहली शिक्षिका, पहली प्रिंसिपल, सामाजिक विचारक, साहित्यकार शिक्षा की मशाल सावित्रीबाई फुले याद अनायास आ जाती हैं। सावित्रीबाई फुले और जोतीराव फुले द्वारा खोले गए 18 स्कूल और उनमें से भी वह जो विशेषतः दलित, वंचित, पिछड़े बालक-बालिकाओं के लिए खोले गए समाज के लिए विशेष महत्व रखते हैं। सावित्रीबाई फुले द्वारा दिखाए गए रास्ते से रोशनी पाकर बालक-बालिकाओं के लिए आज लाखों विद्यालय चल रहे हैं।
सावित्रीबाई फुले शिक्षा को महज अक्षर ज्ञान से न जोड़कर जिंदगी के ज्ञान से, विवेक से और जीवन में आए बदलाव से देखती थीं। इसलिए वह शिक्षा के हथियार द्वारा अज्ञानता को पीट-पीट कर मार भगाना चाहती थीं। सावित्रीबाई फुले के अनुसार अज्ञान भी कई तरह का होता है। एक अज्ञान वह होता है जो हम मान लेते हैं कि दूसरे ही हमारे भाग्य विधाता हैं और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं। दूसरी अज्ञानता वह है जो हमने ओढ़ी हुई होती है, उस ओढ़ी हुई अज्ञानता के खोल से बाहर निकलना बहुत मुश्किल होता है। तीसरी अज्ञानता परिस्थितिवश या फिर किसी षड्यंत्र के तहत एक समूचे वर्ग को अज्ञानता में ढकेले रखने की साजिश से अज्ञान रहने की विवशता होती है। दलित वंचित समाज को सदियों से अज्ञानता के गड्ढे में ढकेले जाने की साजिश को सावित्रीबाई फुले ने पहचाना था। तभी तो उन्होंने कहा कि अब समय आ गया है कि हमारे बच्चे अंग्रेजी भाषा पढ़े ज्ञानवान बने। शिक्षा को अपनाकर अपने जीवन में आगे बढ़े। मुक्ताबाई साल्वे सावित्रीबाई फुले की शिष्या थीं। वह जब मात्र तीसरी कक्षा में ही थी उस वक्त अपने विद्यालय में आयोजित समारोह में मांग-महारों की स्थिति पर लेख पढ़ा। अंग्रेजी अफसर के चाकलेट का ईनाम देने पर मुक्ता ने जवाब दिया था- “हमें चाकलेट नहीं, लाइब्रेरी चाहिए।” सावित्रीबाई फुले ऐसी ही पढ़ाई और ऐसी ज्ञान की बातें कर रही थीं, जैसे मुक्ता साल्वे ने अर्जित किया।
जब सावित्रीबाई फुले एक के बाद एक स्कूल खोल रही थीं और इसी ज्ञान की धारा को लोगों के बीच खींच ला रही थीं, तब उस समय के कूपमंडूकों, धर्मान्धों ने सावित्रीबाई फुले के ससुर को जाकर कहा था– आपके बहू-बेटा शूद्र-दलितों को शिक्षा दे रहे हैं, जिन्हें वेद आदि पढ़ने की मनाही है, आपका पूरा वंश घोर पाप का भागी बनेगा और आपकी नौ नीढ़ियां नरक में जलेंगी। लेकिन जोतीराव और सावित्रीबाई फुले जानते थे कि यदि दलित-शूद्र शिक्षा का दीपक अपने जीवन में जला लें तो उनकी नौ नहीं अनेक पीढ़ियां तरक्की का रास्ता पाएंगी और विवेकसम्मत बन धर्म के खोखले आडंबर-पाखंड को पहचान जाएंगी। पढ़-लिखकर शूद्र-दलित अपने आपको और अपनी होने वाली दुर्दशा, उत्पीड़न, हिंसा, घृणा को पहचान कर उसके खिलाफ खड़े हो जाएंगे।
भारत में खासकर स्त्रियों के बीच सावित्रीबाई फुले ने जो शिक्षा के माध्यम से ज्ञान का द्वार खोला, उसके कारण ही आज अनेक विद्यालय, विश्वविद्यालय लड़कियों के लिए चल रहे हैं। स्त्री-शिक्षा में गुणात्मक परिवर्तन और सुधार आया है। परंतु शिक्षा के साथ ‘विवेक, स्वाभिमान और स्वयं पहचान’ जिसकी बात सावित्रीबाई करती थीं, वह अभी भारत के पितृसत्तात्मक ब्राह्मणवादी समाज होने के कारण बाधा बना हुआ है। बच्चियां पढ़-लिख तो रही हैं, परंतु पढ़ना-लिखना उनको गरिमापूर्ण जिंदगी से, आत्मनिर्भर होकर जीने की अपेक्षा उनके एक सुशिक्षित जो परिवार के लिए सभी तरह से योग्य रहे हैं, मतलब वह एक सभ्य सुशिक्षित सुघढ़, बच्चों, परिवार और पति की उम्मीदों और आकांक्षाओं को एक स्त्री के तयशुदा मानदंडों के अनुरूप पूरा करे। लड़कियां पढ़ने-लिखने और अति शिक्षित होने के बावजूद भी परिवारों में दहेज के नाम पर अपमानित, उत्पीड़ित और मारी-जलाई जा रही हैं। पिछले दिनों एक पढ़ी लिखी डाक्टर का वाकया सामने आया। अभी हाल ही में एक 22 साल की नवविवाहिता आयशा, दहेज के कारण अपने पति के उत्पीड़न से तंग आकर नदी में कूद कर आत्महत्या कर ली। वस्तुतः देखा जाए तो बच्चियां पढ़-लिखकर अच्छा कमाकर भी मर रही हैं, आत्महत्या कर रही हैं।
आज जब हम भारत की बच्चियों, लड़कियों और स्त्रियों की दुर्दशा देखते हैं तो शिक्षा की क्रांति सावित्रीबाई फुले बरबस याद आ जाती हैं। स्त्रियों पर दमन, अत्याचार रूके इसके लिए स्त्रियों के साथ-साथ पुरुषों को शिक्षित और जागरूक करने की सबसे ज्यादा जरूरत है। सावित्रीबाई फुले ने विधवाओं के बाल न काटने के लिए नाइयों की सभा की, उनसे विधवाओं के बाल न काटने का अनुरोध किया। उनके द्वारा किए जा रहे अपराध का अहसास करवाया। अनजाने में भी वह विधवाओं के बाल न काटे। आज इसी तरह भारत के तमाम पुरुष-समाज को इस तरह शिक्षित करना होगा कि वह महिलाओं को अपने बराबर समझें। इसलिए समाज की उसी तरह थेरेपी/शल्य क्रिया करनी पड़ेगी, जैसी सावित्रीबाई फुले ने की थी। सावित्रीबाई फुले का बताया गया रास्ता इंसानी गरिमा से पूर्ण, मूल्यों की महत्ता को स्थापित कर सभी मनुष्यों के समान अधिकार दिलवाने की प्रेरणा देता हुआ आगे बढ़ने को प्रोत्साहित करता है।
(संपादन : नवल/इमामुद्दीन)
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