फणीश्वरनाथ रेणु (4 मार्च, 1921 – 11 अप्रैल, 1977) की सौवीं जयंती पर विशेष
प्रायः दूरदर्शी और अनुभवी रचनाकार, समकालीन यथार्थ और भूत का आकलन कर, संभावित भविष्य को अपने कथा साहित्य में चित्रित करते हैं। यह गुण, बहुमुखी प्रतिभा के धनी, ग्रामीण जीवन के चितेरे कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु में भी था । उन्होंने समकालीन भारतीय ग्रामीण जीवन के संक्रमण काल का गहन अध्ययन किया था। उन्होंने आज़ादी से पूर्व 1942 की क्रांति का समय देखा था और आज़ादी के बाद हुए राजनीतिक परिवर्तन के शुरुआती दौर में एक क्रांतिकारी, चिंतक और लेखक के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज़ करायी थी। रेणु संपूर्ण उत्तर भारत, नेपाल, पूर्वी भारत के कुछ हिस्सों और तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) के इलाकों में हुए राजनीतिक, सामाजिक परिवर्तन को न सिर्फ महसूस करते हैं, वरन कहीं-कहीं प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में अपनी उपस्थिति भी दर्ज़ कराते हैं।
आज़ादी के बाद हुए राजनीतिक परिवर्तन, संवैधानिक उपचार, न्याय और समानता की परिकल्पना को हकीकत में परिवर्तित होते देख सर्वहारा वर्ग के मन में आशा की किरण फूटती है। आज़ादी से पूर्व जो स्वप्न देखा गया था उसे अब पूरा करने का समय शुरू हो गया था। आर्थिक स्थिति में बदलाव की बयार बहने की शुरुआत हो चुकी थी। पिछड़े, अति पिछड़े, अनुसूचित जातियां और अनुसूचित जनजातियां, लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपनी उपस्थिति को दर्ज़ करने हेतु आतुर थीं। उस समय में देश की लगभग 90 फीसदी आबादी कृषि पर निर्भर थी। आज़ादी के प्रारंभिक काल में सरकार द्वारा कुछ योजनाएं आरंभ की गईं, ताकि कृषि व्यवस्था में कुछ सुधार हो।
रेणु के कथा साहित्य में तत्कालीन समाज के किसान-मजदूर, गरीब गृहस्थ और लोक जीवन के विविध रंग, ग्रामीण संस्कृति, ग्रामीण समाज के आर्थिक, राजनीतिक जीवन व लोक जन समुदाय का यथार्थवादी चित्रण मिलता है। रेणु, प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने वालों में से हैं, जिनके कथा साहित्य के अधिकांश नायक ग्रामीण समाज के दबे-कुचले, पिछड़े, अति पिछड़े, दलित आदि हैं। उनका साहित्य ग्रामीण अंचल के विभिन्न विमर्शों को रूपायित करता है और समकालीन समाज के एक प्रमुख विमर्श, कृषक जीवन और संघर्ष को चित्रित करता है।
ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि योग्य भूमि पर अधिकतर सवर्णों, नम्बरदारों अथवा जमींदारों का कब्ज़ा रहा है। वहीं दूसरी ओर भूमिहीनों, खेतिहर मजदूरों की हालत अत्यंत दयनीय थी। दिहाड़ी की आमदनी से दो जून की रोटी भी मयस्सर नहीं होती थी। ‘मैला आंचल’ के एक प्रसंग में रेणु ने लिखा है, “पांच आने की दिहाड़ी मजदूरी में घर खर्च बमुश्किल से चल पाता है।” यह इस कारण कि गांव के सर्वहारा वर्ग की जीविका का एक मात्र साधन खेती-मजदूरी थी। रेणु कोसी अंचल के इलाकों का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि यहां एक हजार बीघे के काश्तकार थे। ‘मैला आंचल’ में वर्णित मेरीगंज इलाके के प्रसिद्ध किसान विश्वनाथ प्रसाद के पास एक हजार बीघा ज़मीन थी। वहीं ‘परती परिकथा’ में वर्णित परानपुर गांव के किसान, जितेंद्रनाथ मिश्र डेढ़ हज़ार बीघा के स्वामी थे। तात्पर्य यह है कि ग्रामीण अंचल की 90 फीसदी खेती की ज़मीन पर सवर्णों और ज़मींदारों का कब्ज़ा रहा है, जो गांव की आबादी के 5-10 फीसदी ही थे। शेष 90 फीसदी लोगों के पास दस फीसदी ज़मीन थी। रेणु यह रेखांकित भी करते हैं कि यही सामाजिक विद्रूपता संघर्ष का मूल कारण रहा है।
‘मैला आंचल’ में वर्णित मेरीगंज, पोलिया टोली, यदुवंशी टोली, कुर्मछत्री, अमात्य ब्राह्मण टोली, तंत्रिमा टोली, धनुकधारी टोली, रैदास टोली, कुशवाहा टोली आदि में बंटा है। इसके अलावा गांव में कायस्थ टोला और राजपूत टोला भी है, जिनकी आबादी बहुत कम है। लेकिन अकेले राजपूत टोले के रामकृपाल सिंह के पास तीन सौ बीघा ज़मीन, कायस्थ टोले के विश्वनाथ प्रसाद के पास एक हजार बीघा और यादव टोले के खेलावन यादव के पास डेढ़ सौ बीघा ज़मीन है। गांव में एक मठ भी है और उसकी मिल्कियत भी सौ बीघे ज़मीन की है। लेकिन गांव की शेष आबादी के पास मात्र 25 बीघा ज़मीन है। गांव से थोड़ी ही दूर पर संथालों की बस्ती है, जहां अधिकांश लोग भूमिहीन हैं। हालाँकि उनमें से कुछ रैयतों की ज़मीन पर अपना दावा करते हैं, जो गांव के तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद के कब्ज़े में है।
रेणु लिखते हैं कि “संथाल लोग तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद के चालीस बीघा वाले बीहन के खेत में बीहन लूट रहे है। … नई बंदोबस्ती वाले ज़मीन में? – लाठी निकालो। ‘गनौरी ने हल्ला किया, तीर छोड़ दिया। चलो! चलो! मारो! … साला संथाल! बाहरी आदमी! जान जाये तो जाए। … काली माई की जय! इंकलाब जिंदाबाद! भारत माता की जय! सोशलिस्ट पार्टी की जय! झंडा हिन्दू राज का, हिन्दू राज की जय! तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद की जय! … घेर लो चारों तरफ से! भागने न पावे! तीर चला रहा है। … कुहराम मचा हुआ है पाट के खेतों में, कोठी के जंगल में! कहां दो सौ आदमी और कहां दो दर्ज़न संथाल, डेढ़ दर्ज़न संथालिनें! सब ठंडा! सब ठंडा?
संथाल टोली के चार आदमी ठंडे हुए, सात घायल हुए और एक लड़के की हालत ख़राब है। संथालिनें दोहरे दर्द से कराह रही हैं। तहसीलदार के दस गुंडे ठंडे हुए, बारह बुरी तरह ज़ख़्मी हुए और तीस आदमी को मामूली घाव हुआ है।” (मैला आंचल, रेणु रचनावली-2, पृष्ठ 176-177)
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तहसीलदार और भूमिहीन संथालों के बीच संघर्ष का कारण कृषि भूमि है। एक हजार बीघे का काश्तकार विश्वनाथ प्रसाद साम, दाम, दंड, भेद की नीति अपनाकर गांव के भोले-भाले लोगों की ज़मीन हड़पने में लगा हुआ है। वर्षों से जिस ज़मीन पर गांव के गरीब, मजलूम, लाचार, पिछड़े, अनुसूचित जातियां, अनुसूचित जनजातियों के लोग अपना हक़ समझते हैं उस पर भू-बंदोबस्ती कानून के द्वारा सवर्ण कब्ज़ा करने में लगे हुए हैं। रैयत, ज़मीन नकदी के लिए दफा 40 की दरख्वास्त देते हैं। परंतु, दफा 40 की अर्जी नामंजूर हो जाती है, क्योंकि कोर्ट-कचहरी में भी उच्च जातियों का दबदबा है। अतः इंसाफ, पैसों और कानूनी दांव-पेंचों के आगे मजबूर है। राजपूतों और कायस्थों के बीच शुरू से ही अनबन है, लेकिन तहसीलदार और संथाल के बीच के हुए संघर्ष में नया तहसीलदार हरगौरी ही लड़ाई का नेतृत्व कर रहा है। गांव के अधिकांश लोगों को हकीकत का पता नहीं है। बालदेव और कालीचरण जैसे जुझारू भी तहसीलदार के बातों में आ जाते हैं। गांधी का नारा लगाने वाले हों या इंकलाब का, अथवा भारत माता का या हिन्दू राष्ट्र का या सोशलिस्ट पार्टी की जयकार करने वाले हों, सभी एक तरफ हैं और गरीब लाचार, पिछड़े आदिवासी दूसरी तरफ।
” मुक़दमे में भी सुराज मिल गया। सभी संथालों को दामुल हौज़ हो गया। धूमधाम से सेसन केस चला। संथालों की ओर से भी पटना से बालिस्टर आया था। बालिस्टर का खर्चा संथालिनों ने गहना बेच कर दिया था। बालिस्टर पर भी बालिस्टर है। यदि इस मुकदमा में तहसीलदार साहेब जैसे कानूनची आदमी नहीं लगते तो इस केस से शिवशक्कर सिंह, रामकृपाल सिंह और खेलावन सिंह तो हरगिज़ नहीं छूटते। …
“रामकिरपाल सिंह ने संथालटोली की नयी बंदोबस्ती ज़मीन में से दस एकड़ तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद को लिख दी है। … मुकदमा उत्सव भी सुराज उत्सव के दिन होगा? … हां, सुराज उत्सव दिन में, मुकदमा उत्सव रात में।”
(मैला आंचल, रेणु रचनावली-2, पृष्ठ 248-249)
वहीं ‘परती परिकथा’ में वर्णित पूर्णिया जिले का परानपुर गांव, समृद्धशाली काश्तकारों का है। यहां पांच सौ बीघा वाले किसान तृतीय श्रेणी के किसान समझे जाते हैं और हर गांव पर इन्हीं किसानों का राज है। “भूमिहीनों की विशाल जमात! जगती हुई चेतना! जमींदारी उन्मूलन के बाद भी हर साल फसल कटने के समय एक-डेढ़ सौ लड़ाई-दंगे और चालीस-पचास क़त्ल होते रहे, तो फिर से ज़मीन की बंदोबस्ती की व्यवस्था की गयी।” (परती परिकथा, रेणु रचनावली-2, पृष्ठ 326)
अपनी कहानी ‘तबे एकला चलो रे’ में रेणु सवर्ण किसानों का हाल बयान करते हैं कि “बिहार विधानसभा में जमीन हदबंदी का कानून पारित होने वाला है, जिसे लेकर क्षेत्र के सभी बड़े किसान सशंकित हैं। बड़े किसानों के मन में यह डर समाया हुआ है कि कहीं, भूमिहीनों, मजदूरों, बटाईदारों को जमीन में हिस्सा देना पड़े अथवा पूरी फसल ही देनी पड़े। अतः सभी बड़े किसान एकजुट होकर फैसला करते हैं कि वे बटाईदारों को एक चुटकी भी फसल नहीं देंगे अर्थात मजदूरों, बटाईदारों को उनकी मेहनत का पारिश्रमिक नहीं दिया जाएगा, वे चाहे जो करें।”
(संपादन : नवल/अनिल/अमरीश)
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