सावित्रीबाई फुले (3 जनवरी, 1831 – 10 मार्च, 1897) पर विशेष
वर्ष 2019 के अंतिम दिनों में मुझे महाराष्ट्र के पुणे शहर जाने का मौका मिला। यह यात्रा उत्सुकता व रोमांच से परिपूर्ण थी। उत्सुकता की वजह थी पुणे शहर में स्थित उन ऐतिहासिक स्थलों का देखना, जिनका संबंध महान युग प्रवर्तक तथा आदर्श स्वरूप जोतीराव फुले व सावित्रीबाई फुले के जीवन से रहा। उनका घर, उनके द्वारा खोला गया प्रथम बालिका विद्यालय तथा उनके नाम से स्थापित संग्रहालय। इन सबके अलावा और भी बहुत कुछ जिनसे भले मैं परिचित नहीं थी परंतु मुझे भावनात्मक स्तर पर बैचेन कर रहा था।
पुणे पहुंचकर मैंने सबसे पहले सावित्रीबाई फुले द्वारा स्थापित पहली बालिका विद्यालय की खोज करनी शुरू की। यह विद्यालय 1 जनवरी, 1848 में बुधवार पैठ, भीड़ेवाड़ा, पुणे, महाराष्ट्र में खोला गया था। मेरी नज़रें और कदम उस शहर की सड़कों पर फैली अत्याधुनिक चकाचौंध को धकियाकर केवल एक ही ओर बढ़ रही थीं जहां से समस्त स्त्री समाज के जीवन में शिक्षा व ज्ञान का नवोन्मेष हुआ था।
होटल से शनिवारवाड़ा नज़दीक था। गाड़ीवाले ने पहले शनिवारवाड़ा में रानी मस्तानी बाई का किला दिखाया जो एक पेशवाई शासक ने अपनी दूसरी मुस्लिम रानी के लिए बनवाया था। उन दिनों संजय लीला भंसाली द्वारा निर्देशित फिल्म ‘बाजीराव मस्तानी’ का बड़ा शोर रहा। लेकिन मुझे इस कट्टर हिन्दूवादी प्रेमकथा में कोई दिलचस्पी नही थी। वहां से भिड़ेवाड़ा और बुधवार पैठ करीब 2 किलोमीटर की दूरी पर थे। हम किले से बाहर निकल कर पहले भिड़ेवाड़ा पहुंचे।
भिड़ेवाड़ा मुहल्ले से कुछ दूरी पर जब हमने कुछ लोगों से सावित्रीबाई फुले द्वारा खोले प्रथम विद्यालय के बारे में पूछा तो लोगों ने हमें प्रश्नाकुल नज़रों से देखते हुए वहां बने भव्य गणेश मंदिर “दगड़ू गणेश” को देखने की सलाह दी। लोगों ने हमें बताया कि वह एक भव्य मंदिर है जिसमें सोने के गणपति हैं, जिनकी भ्व्य आरती को देखने हर शाम दूर-दूर से लोग आते हैं।
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मैं परेशान हो रही थी। एक सज्जन को रोक कर पूछा तो उन्होंने सही जानकारी दी कि दरअसल सावित्रीबाई फुले द्वारा स्थापित स्कूल के बिल्कुल सामने दगड़ू गणेश के इस मंदिर की स्थापना की गई है। आप वहां जाएंगीं तो स्वयं ही विद्यालय देख लेंगी। पुणे की भौगोलिक स्थिति का मुझे बिलकुल ज्ञान नही था। इसलिए उस व्यक्ति द्वारा बताए नाम के हिसाब से तथा गूगल मैप ऐप की मदद लेकर हम आखिरकार 15 मिनट तक एक भीड़भाड़ वाले बाजार के बीचोंबीच चलते हुए एक स्थान पर रुक गए, जहां शाम के छह बजे की आरती के साथ शंखनाद गूंज रहा था। मेरे साथ मेरी एक मित्र थीं, जो आस्तिक हैं, श्रद्धापूर्ण नेत्रों से हाथ जोड़े उस भव्य मंदिर को निहार रही थीं। परंतु मेरी नज़रें उस मंदिर के ठीक सामने की टूटी जर्जर इमारत पर ठहर गई, जो केवल समय की ही नहीं, सरकारी उपेक्षा तथा अनदेखी की भी शिकार रही। यह इमारत आज वहां स्थापित बाजार की भेंट चढ़ रही है। नीचे बहुत सी दुकानें हैं। उपर केवल क्षत-विक्षत ढांचा भर अवशेष है। एक सामाजिक और ऐतिहासिक धरोहर की ऐसी उपेक्षा देख आंखें उस समाज नेत्री के संघर्षों को याद करके सजल हो गईं। यह इमारत वही इमारत थी जिसमें फुले दंपत्ति ने लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला था।
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कुछ क्षण सड़क के दूसरी ओर खड़ी मैं उस जर्जर इमारत को निहारती रही। वहां एक सरकारी बोर्ड टंगा था, जो इमारत के ऐतिहासिक होने की पुष्टि कर रहा था। मैं कल्पना कर रही थी कि सावित्रीबाई फुले किस रास्ते से आती होंगी, रास्ते में जब द्विज उनके उपर गोबर आदि फेंकते होंगे तब वे उनका सामना कैसे करती होंगी। इस इमारत के किस कमरे में वह अपने गंदे वस्त्र बदलती होंगी और कहां उन्हें सुखाती होंगी। मेरा मन कल्पना मात्र से रोमांचित हो उठा कि कैसे वह लड़कियों को पढ़ाती होंगी और कैसे उन्हेोंने भारत की महिलाओं को मुक्ति का मार्ग बताया।
फुलेवाड़ा में फुले दंपत्ति की याद में बनाए गए संग्रहालय ने भी मुझे निराश ही किया। कहां मैं यह कल्पना कर रही थी कि आधुनिक भारत के सबसे आदर्श दंपत्ति से संबंधित वस्तुओं व उनके संदेशों को सुरक्षित रखने को बेहतरीन तरीके उपयोग में लाए गए होंगे। परंतु, वहां जो था, महज औपचारिक ही लगा।
भारी मन और भारी कदमों से मैं उन सड़कों, गलियों, चौराहों पर सम्पूर्ण स्त्री समाज की उस क्रांति ज्योति के स्मृति चिन्हों को तलाशती हुई बुधवार पैठ से भिड़ेवाड़ा और भिड़ेवाड़ा से शनिवारवाड़ा के टैक्सी स्टैंड पहुंची, जहां से मुझे दिल्ली वापस आने के लिए मुम्बई एयरपोर्ट पहुंचना था। गाड़ी अपने गंतव्य की ओर तेजी से दौड़ रही थी और मन कही पीछे छूटे सवालों में उलझा रहा कि आखिर क्यों इस शिक्षा के ऐतिहासिक मंदिर को सहेजा नही जा सका। इसके प्रति सरकार का इतना उदासीन रवैया क्यों हैं? फिर यह बात समझ में आई कि विद्या के इस ऐतिहासिक स्थल के ठीक सामने स्वर्ण गणपति का भव्य मंदिर बनाने का मकसद क्या है। सारा पाखंड साफ-साफ दिखाई देने लगा।
(संपादन : नवल/अनिल)
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