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छाऊ नाच और आदिवासी महिलाओं के सवाल

हमारे सामने सवाल था कि क्या महिलाओं को अधिकार नहीं कि वे भी छाऊ नाच देखें। इस विरासत का मजा लें। शर्म-लिहाज हमेशा महिलाओं के दामन में ही क्यों आते हैं? क्या पुरुषों का यह कर्तव्य नहीं कि वे भी समाज को इतना सुरक्षित बनाएं कि कोई भी महिला जब चाहें घर से निकल सके? मोनिका मरांडी का यात्रा संस्मरण

जब बहुत छोटी थी तब एक पत्रिका में छाऊ (छऊ) नाच के बारे में पढ़ा था। उस समय के नक्शे के अलावा तमाम राज्यों के बारे में मेरी कोई समझ नहीं थी। वर्ष 2017 में चलत मुसाफ़िर वेब पोर्टल की नीव रखी और उसी सिलसिले में पश्चिम बंगाल जाना हुआ। वैसे मैं हूं आदिवासी। इसलिए हमेशा से मेरी रूचि लोक संस्कृति और कलाओं में बनी रहती है। यही रूचि मुझे पुरुलिया के एक सुदूर गांव में ले गई। उसे चुनने का कारण था छाऊ नाच। 

थोड़ी सी खोजबीन ने हमें बता दिया था कि छाऊ के तीन प्रकार के होते। सरायकेला छाऊ, पुरुलिया छाऊ और मयूरभांज छाऊ। ये तीन राज्यों में होता है, झारखंड, पश्चिम बंगाल और ओडिशा। मयूरभांज में छोड़कर बाकि दोनों में मुखौटों का प्रयोग होता है। छाऊ नाच को यूनेस्को ने खतरे में पड़ी विरासत की सूची में डाला है। 

जब पुलिसवाला बहन कहने के बहाने हमे छू लेता था

पुरुलिया पहुंचने के लिए हमने कोलकाता से लोकल पकड़ी। शाम को हम अपनी ही धून में व्यस्त थे। तभी मेरी बगल की सीट में एक पुलिसवाला आ कर बैठ गया। उसने हमसे पूछा कहां जा रही हो। मैंने उन्हें बताया ‘बलरामपुर’ ब्लॉक में ‘आदाबोना’ गांव जा रहे हैं। वह चौक गया और हमारी तरफ शक भरी निगाहों से देखा। उसने कहा कि “ऐसा कोई गांव है ही नहीं”। वह जगह कुछ साल पहले नक्सली इलाका रह चुका था और वो पिछले 25 सालों से उस इलाके में नौकरी कर रहा था। मुझे अपनी रिसर्च पर पूरा यकीन था। उसने तुरंत उस इलाके में मौजूद अपने सहकर्मी को कॉल घुमाया। उसने हमारी जानकारी को सच बताया। यह सुनते ही पुलिसकर्मी हमसे प्रभावित हुआ।

छाऊ नाच करते स्थानीय आदिवासी

वह हमारे और पास आ कर बैठ गया। हर थोड़ी देर में वह यह कहता “कि तुम मेरी बहन की तरह हो”। यह कहते ही वह मेरी जांघों को छू लेता। एक दो बार तो मुझे लगा कि उसने गलती से छूआ है। परंतु, कुछ ही देर में उसकी नीयत का अंदाज़ा हो गया। मुझे गुस्सा आने लगा। वह इलाका बहुत साल पहले नक्सली इलाका रह चुका था। उस इलाके में मैं किसी को नहीं जानती थी। मैंने अपने मन को स्थिर किया। पुलिसवाले की आंखों में आंखें डालकर देखते हुए कहा कि “बात करते हुए मुझे छूने की जरूरत नहीं है”। उसका चेहरा पीला पड़ गया। इसी के साथ उसका हाथ भी रूक गया। कई बार यात्रा करते वक्त ऐसी दिक्कतें आती हैं। जब हमें जोश से नहीं होश के काम लेना होता है। 

जब हमारी मुलाकात हुई पद्मश्री नेपाल महतो जी से

तो छाऊ नृत्य की तलाश हमें ले आई आदाबोना नाम के गांव में। यहां पहुंचना आसान नहीं था। मेन रोड से कोई गाड़ी यहां आती नहीं है। मेन रोड से यहां तक की दूरी थी करीब 5 किलोमीटर। हम भी जिद्दी थे और छाऊ नाच को देखने का पक्का मन बना चुके थे। पैदल ही सफर को आगे बढ़ाना शुरू कर दिया। चलते-चलते गांव के नाजारों का आनंद लेते हुए आ रहे थे। आधा रास्ता पूरा ही किया था कि एक गाड़ी की आवाज़ आई। हम तुरंत उस पर बैठ गए और गांव पहुंचे।

बहुत ही खूबसूरत गांव था। जिस इलाके में हम थे, उसे छाऊ पाटी कहते हैं। यहां ज्यादातर लोग छाऊ कलाकार ही हैं। इनमें से कई विदेशों की यात्रा कर आए थे। विडंबना ही है कि जहां विदेशों में हमारी कला के चर्चे हैं, वहीं भारत में वो विलुप्ति के कगार पर खड़ी है। इस गांव में मुलाकात हुई छाऊ नृत्य के लिए पद्मश्री से सम्मानित नेपाल मेहतो जी से। उन्होंने हमें बड़े सम्मान के साथ अपने घर में ठहराया। नेपाल मेहतो देखने में बिल्कुल साधारण इंसान है। उनकी और उनके परिवार की इसी सादगी ने मेरा दिल जीत लिया। किसी अनजान को अपने घर में सहारा देना शहर के लोगों के बस की बात नहीं है।

जब ताड़ी पिए मर्दों के बीच आधी रात में पहुंची

छाऊ केवल नाच नहीं है, यह एक धार्मिक अनुष्ठान की तरह है। विशेष पूजा के समय ही इसे किया जाता है। उसी रात गांव में दो-दो मंडलियों के छाऊ नाच का आयोजन था। एक खुद नेपाल महतो की मंडली, दूसरी प्रख्यात छाऊ कलाकार कृष्ण महतो की मंडली। यह एक नायाब मौका था। परंतु, इस खुशी के मौके पर एक ही बात खल रही थी कि इस आयोजन में महिलाओं की भागीदारी न के बराबर है। मैंने नेपाल महतो जी की बहुओं को साथ आने के लिए कहा। लेकिन उन्होंने मना कर दिया। यहां शाम ढलते ही महिलाएं घर के अंदर चली जाती हैं और मर्द गले तक ताड़ी के नशे में डूब जाते हैं। इसी नशे में छाऊ गाने का अभ्यास भी करते हैं। इन तमाम मर्दों के बीच मैं और मेरी दोस्त आधी रात को घुप्प अंधेरे में निकल गए छाऊ देखने। 

चारों तरफ अंधेरा था और लाइट के नाम पर ट्रक की फ्रंट लाइट ही थी। गाड़ी कच्चे रास्ते पर लड़खड़ा रही थी। कुछ भी देख पाना संभव नहीं था और बहुत डरावना मंजर था। एक भी चूक हमें बड़े से गड्ढे में गिरा देती। किसी तरह हम छाऊ नाच होने वाली जगह पर पहुंचे। मंच के नाम पर बांस थे, जिनपर ट्यूबलाइट लगे हुए थे। दो-तीन स्पीकर लगे थे। 

जिस कला की चर्चा देश-विदेश में है, उसकी बागडोर कुछ शराबियों के हाथों थी। ये नज़ारा किसी को भी हैरत में डाल सकता है। पहले महिलाएं छाऊ नाच में हिस्सा लेती थीं, परंतु शादी के बाद उनके लिए मुश्किल हो जाता है। इसलिए महिलाएं अब यहां नहीं आती। सुरक्षा के नाम पर महिलाओं को घर के अंदर रहना पड़ता है। हमारे सामने सवाल था कि क्या इस गांव की महिलाओं को अधिकार नहीं कि वे भी छाऊ नाच देखें। इस विरासत का मजा लें। शर्म-लिहाज हमेशा महिलाओं के दामन में ही क्यों आते हैं? क्या पुरुषों का यह कर्तव्य नहीं कि वे भी समाज को इतना सुरक्षित बनाएं कि कोई भी महिला जब चाहें घर से निकल सके।

खैर ऐसे माहौल में वहां मौजूद मर्द आश्चर्यचकित थे। हम जिस ट्रक में बैठे थे, उसके आगे-पीछे घुम-घुम कर हमें देखने की कोशिश करने लगे। पर नेपाल महतो जी का लोग बहुत सम्मान करते थे। इसी कारण लोग कुछ कहने से डर रहे थे। कलाकार ट्रक के चारों और कपड़ा बांध कर तैयार होने लगे। एक ट्रक तो मुखौंटों से भरा हुआ था। लोग मंच के चारों ओर जमा हो गए। 

छाऊ देखने में बहुत आकर्षक लगता है। एक साथ आपको अनेक रंग और ध्वनि दिखाई और सुनाई पड़ती है। उसके बाद आर्श्चय भी होता है कि इतनी भारी पोशाक के साथ कोई कैसे नाच सकता है। लगभग 10-15 किलो की पोशाक और लंबे चौड़े मुखौटे।

इस नृत्य का प्रारंभ कब हुआ, यह कोई नहीं बता सकता। पर माना जाता है जब सम्राट अशोक ने कलिंग पर चढ़ाई करने की ठानी तो कलिंग के राजा ने सभी को युद्ध कला सीखने के लिए कहा। बुजुर्गों, स्त्रियों या बच्चों, सभी को युद्ध का प्रशिक्षण दिया जाने लगा। इसी युद्ध कला ने बाद में नृत्य का रूप ले लिया। उसके ऊपर से पोशाक का भार। नाचने के अलावा बीच-बीच में कलाकार करतब करने लगते। इसे देख कोई भी दंग रह जाए। 

छाऊ पर ब्राह्मणवाद का प्रभाव

छाऊ नाच पर ब्राह्मणवाद का असर साफ दिखने लगा है। पुरुलिया छाऊ की शुरुआत अखा वंदना से होती है, जिसमें शहनाई, धूमसा, ढोल बजाते हुए लोग मंच पर आते हैं। अब बारी थी मैन शो की। लोग चुपचाप बैठे मंच पर नज़रे गढ़ाए हुए थे। तभी एंट्री होती है गणेश की। कंधों को हिला-हिला कर पांव को पटक-पटक कर भाव प्रकट करता है। रंग-बिरंगी पोशाक के भीतर से पैरों पर बंधी गर्म पट्टी झांक रही थी। पूरे जोश से आगे पीछे घूमते और फिर बार-बार गोल चक्कर खा कर घुटनों के बल गिर जाते। साथ ही पीछे से डायलॉग भी बोले जा रहे थे। 

थोड़ी ही देर में अप्सराएं आयीं (अप्सराओं के भेष में लड़के)। ऐसी नजाकत और अंदाज की लड़कियों को भी रश्क होने लगे। इसके बाद शरू हुई राधा-कृष्ण की रासलील। फिर शुरू हुआ महिषासुर मर्दन। महिषासुर बहुत डरावना था और उससे भी डरावनी थी उसकी हंसी। कहानी चलती रही और मंच पर धीरे-धीरे कई भगवान उतरने लगे। शिव, विष्णु, ब्रह्मा, दुर्गा और राक्षसों की सेना भी। 

भारत में क्यों दम तोड़ रही हैं लोक कलाएं

छाऊ को देख कर लगा कि कितनी सारी लोक कलाएं हैं, जिन्हें मैंने अभी देखा नहीं। कितने लोकगीतों को सुनना बाकी है, जो विश्व भर में अपना डंका तो बजा रही हैं, परंतु भारत में दम तोड़ रही हैं। जीवन यापन के लिए सरकार नाममात्र का भत्ता देती है। कई राज्यों में यह भी नहीं है। उस पर महिलाओं को इन लोक कलाओं से दूर कर दिया गया है। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

मोनिका मरांडी

आईआईएमसी की छात्र रहीं मोनिका मरांडी युवा पत्रकार तथा यात्रा आधारित वेब पोर्टल "चलत मुसाफिर डॉट कॉम" व आदिवासी विषयों पर आधारित वेब पोर्टल "सखुआ डॉट कॉम" की संस्थापक संपादक हैं।

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