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जब चालीस लाख जैनियों के लिए धर्म कोड है तो दस करोड़ आदिवासियों के लिए क्यों नहीं?

भारत में 750 से अधिक जनजातियों निवास करती हैं और आदिवासियत उनकी साझी अस्मिता रही है। उनकी आबादी 10 करोड़ से अधिक है। फिर उनके लिए जनगणना प्रपत्र में पृथक धर्म कोड का प्रावधान क्यों नहीं है। सवाल उठा रहे हैं जनार्दन गोंड

हम जानते हैं कि मानव समुदाय की आंतरिक और बाह्य दुनिया दोनों धर्म से सिंचित रहती हैं। मनुष्य की हर आचरण और विचार पर धर्म का गहरा असर दिखाई पड़ता है। धर्म मनुष्यों, समुदायों और राष्ट्रों के बीच टकराव का कारण भी बनता है। कई बार यह टकराव नस्ल-जाति के साथ जुड़कर दुनिया को तबाह कर देता है। हर किसी की धार्मिक पहचान है। दुनिया की तमाम नृ-जातियों की तरह आदिवासियों की भी मुख्तसर धार्मिक पहचान है।

दुनिया में समुदायों की पहचान धर्म और भाषा से मुकम्मल होती है। धर्म को जीवन का उद्देश्य बताया गया है। इसी से समुदाय विशेष का आचरण, कर्तव्य और नैतिकता तय होती है। यही कारण है कि इसे पवित्रता से भी जोड़ा जाता है। हर धर्म-समुदाय में पवित्रता से जुड़े कुछ स्थान हैं। तमाम जाति समुदाय के लोग पवित्रता कायम रखने के लिए पूजा और भक्ति का इस्तेमाल करते हैं।

नृ-जातियों और भारत की प्राकृतिक संपदा की उपलब्धता के समीकरण को तैयार करने का पहला उपक्रम ब्रिटिश भारत में सन् 1872 में किया गया। ब्रिटिश भारत में ही सन् 1881 विधिवत रूप से जनगणना की शुरुआत हुई। तब से लेकर अब तक हर दस साल के अंतराल पर भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अधीन जनगणना का कार्य संपन्न किया जाता है। जनगणना का इतिहास दिलचस्प है। जनगणना का संबंध कई अन्य मामलों से भी जुड़ता है, जैसे संसाधन और आबादी का रिश्ता और राष्ट्र और नागरिकता का रिश्ता। इसलिए इससे किसी राष्ट्र की भौगोलिक सीमाओं में रहने वाले लोगों की संख्या का केवल आकलन ही नहीं होता, बल्कि उनकी पहचान भी मुकम्मल होती है। इतना ही नहीं, कभी-कभी इसके माध्यम से किसी समुदाय विशेष की पहचान के मसले को उलझाया भी जाता है (आदिवासियों के साथ ऐसा ही हो रहा है)।

ब्रिटिश सरकार द्वारा कराई गई पहली जनगणना में आदिवासियों को ‘एबोरिजिनल ट्राइब’ के रूप में दर्ज़ किया गया। इसके बाद की जनगणना में आदिवासियों के लिए अलग से धर्म कोड का जिक्र नहीं था। उन्हें ‘अन्य’ वाले कॉलम में शामिल किया गया था। अर्थात आदिवासियों की धार्मिक पहचान वाले कोड को हटा दिया गया था। यह समझना जरूरी है कि क्या आदिवासियों की कोई धार्मिक पहचान है अथवा नहीं। अगर है तो उन्हें धार्मिक पहचान से वंचित करने की कोशिश को कब अमल में लाया गया?

आदिवासियों का धर्म

भारत में कोयतुरों अर्थात गोंडों की बड़ी आबादी है। कोयतुरों की सांस्कृतिक पहचान और दर्शन को “कोया पुनेम” कहा जाता है। इसमें पारी कुपार लिंगो व जंगो रायतार की मान्यताएं हैं। साथ ही, इसमें संभू सेक का वर्णन है जो मानव सभ्यता के विकास से संबंधित है। जिस तरह सनातन धर्म की संपूर्ण पवित्रता ओम में और इस्लाम की संपूर्ण पवित्रता 786 में अंतर समाहित है, उसी तरह “कोया पुनेम” की पवित्र संख्या 750 है। इसमें पहले अंक सात का अभिप्राय सात पवित्र गुणों से है। ये सात गुण हैं – प्रेम, ज्ञान, पवित्रता, सुख, शांति, आनंद और शक्ति। जबकि दूसरे अंक पांच का मतलब पांच तत्वों से है, जिनसे सृष्टि का निर्माण हुआ है – आकाश, धरती, पानी, आग और हवा। वहीं तीसरे अंक शून्य का मतलब अनहद, निराकार और अनंत है।

गोंडी धर्म चिन्ह फड़ापेन में 750 का उल्लेख किया जाता है। इसकी मान्यता संभू-सेक से जुड़ी है

कोयतुर इन सबसे गहराई से जुड़े होते हैं और मान कर चलते हैं कि इन सभी चीजों से उनका शरीर और समाज बना हुआ है। इसलिए वे मानते हैं कि प्रकृति और सभी जीवों से उनका जुड़ाव है तथा उनका संरक्षण उनकी अहम जिम्मेदारी है। कोयतुर ये सारे कर्तव्य बोध अपने परिवार और गोटुल से अर्जित करते हैं। उनके लिए “कोया पुनेम” आस्था का मूल आधार है। इसी आस्था के कारण गोंडवाना इलाकों के जंगल, पहाड़ और जल के स्रोत बचे हुए हैं। “कोया पुनेम” में आस्था के कारण ही जमीन की कोख में खनिज के रूप में समृद्धियां बाकी क्षेत्रों की तुलना में अधिक बच पाई हैं।

गोंडी नेताम राजवंश के दुर्ग की दीवार पर लगी मूर्तियों में सात देव और उनकी माता जंगो व पिता लिंगो

इसी तरह देश की तमाम प्राचीनतम आदिवासी समुदायों की अपनी विशेष धार्मिक पहचान है। आदिवासी धर्म को किताबों में संग्रहित नहीं करते, बल्कि उसे आचरण में उतारते हैं। उरांव, मुंडा, और भील जैसी तमाम आदिवासी समुदायों की सांस्कृतिक-धार्मिक पहचान है।

उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि सभी आदिवासियों में रहन-सहन और आचरण के विधि-विधान मौजूद हैं। उनका अपना धर्म है। फिर उनकी धार्मिक पहचान से उन्हें वंचित क्यों किया जा रहा है? यह सवाल विचारणीय है।

एक बार फिर जनगणना के इतिहास पर नजर डालते हैं। सन् 1951 की जनगणना के कुछ पहलुओं पर ध्यान देना जरूरी है। इस जनगणना के समय जनगणना कर्मियों के लिए एक नियमावली जारी की गई थी। इस नियमावली के अंतर्गत भारत के लोगों के ‘राष्ट्र और धर्म’ वाले कॉलम को भरने के विषय में बताया गया था कि देश के लोगों का राष्ट्र भारत होगा और उनकी आस्था और पहचान के आधार पर उन्हें धार्मिक सूचकांकों (कोड) में से किसी एक में स्थान देना होगा। ये कोड इस प्रकार थे[1]

धर्मधर्म कोड
हिंदू1
इस्लाम2
ईसाई3
सिक्ख4
जैन5
पारसी6
बुद्धिस्ट7
यहूदी8
अन्य धर्म (ट्राइब)9
अन्य धर्म (नन ट्राइब)

जनगणना की पुस्तिका में यह हिदायत भी दी गई थी कि यदि किसी व्यक्ति की पहचान इन नौ सूचकांकों से अलग है, तो उसके धर्म का पूरा नाम दर्ज़ किया जाय।

झारखंड की राजधानी रांची में पृथक धार्मिक कोड के लिए प्रदर्शन करतीं महिलाएं

इस प्रकार हम देखते हैं कि आजादी के बाद की पहली जनगणना में आदिवासियों के धर्म को ट्राइब कहा गया था और उनका धार्मिक कोड 9 था। अर्थात आजादी के बाद की पहली जनगणना में आदिवासियों की धार्मिक पहचान कायम थी और उसे सरकार ने दर्ज़ भी किया था।

सन् 1951 की जनगणना नीति भरोसे के लायक थी। लेकिन इसके बाद की जनगणना नीति आदिवासियों का भरोसा को तोड़ने वाली साबित हुई। सन् 1961 की जनगणना में आदिवासियों के धर्म कोड संख्या 9 को हटा दिया गया। धर्म कोड हटाने के कारण को संविधान लागू होने के बाद आदिवासियों का सांगठनिक क्षमता का उभार, उनमें बलवती हो रही राजनीतिक जागरूकता और कई आदिवासी आंदोलनों की भूमिका में तलाशा जा सकता है।

इस संदर्भ में इतना जरूर कहा जा सकता है कि जिस तरह 16 अक्टूबर, 1956 को बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर अपने समर्थकों सहित बौद्ध धर्म में शामिल हुए और दलितों को एक अलग-धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान दी, वह हिंदू धर्म के फेरे में फंसे दलितों को अलग पहचान देने का यह एक महान अभियान था, जिसकी परिणति बाद में दलित राजनीतिक महत्वाकांक्षा और सफलता में फलीभूत हुई। दुखद है कि ऐसी कोई पहल आदिवासी नेताओं या समाज सुधारकों द्वारा नहीं हुई, जिससे वे इस्लाम, ईसाई और हिंदू धर्म में धीरे-धीरे वैसे ही घुलते जा रहे हैं, जैसे पानी में फिटकरी। (मतलब यह कि दूसरे धर्म को स्वीकार करने के बाद भी वे अपनी पहचान को कायम रखते हैं।)

अब अगर 2011 के जनगणना प्रपत्र में धर्म कॉलम की चर्चा करें तो उसमें ट्राइब धर्म कोड का कॉलम नहीं था। साथ ही कहा गया है कि – “कृपया धर्मों का पूर्ण विवरण भरें, किंतु कोई धर्म कोड न दें”। उसमें यह भी कहा गया है कि अनुसूचित जाति का भारतीय हिंदू, सिक्ख और बुद्धिस्ट हो सकता है। किंतु अनुसूचित जनजाति का भारतीय व्यक्ति किसी भी धर्म का हो सकता है।

अब यह साफ है कि सबसे अधिक खुला खेल आदिवासियों के साथ खेला जा रहा है। उनकी पहचान को लुप्त करके उन्हें एक खास धर्म के आवरण में लाने की कोशिश हो रही है। इस कोशिश को नाकाम करने के लिए झारखंड सरकार ने ‘सरना आदिवासी धर्म कोड बिल’ पारित कर दिया है। हालांकि यह मुहिम भी सियासत की भेंट चढ़ गई है। फिर भी इसे खोई हुई स्वायत संस्कृति/ अस्मिता/ पहचान/ धार्मिक आजादी प्राप्त करने के लिए जरूरी पहल के रूप में देखा जा सकता है।

क्या आदिवासी धर्म कोड की मांग लायक आबादी नहीं आदिवासियों की?

भारत में आदिवासी समुदायों की अनुमानित आबादी लगभग दस करोड़ है। करीब 750 से अधिक आदिवासी समुदाय हैं।

आदिवासी समुदायजनसंख्या
भील2 करोड़
गोंड1.60 करोड़
संथाल80 लाख
मीणा50 लाख
उरांव42 लाख
मुंडा27 लाख
बोडो19 लाख

जनगणना में करोड़ों की आबादी वाले आदिवासियों को धर्म कोड नहीं दिया गया है। वहीं मात्र चालीस लाख की आबादी वाले जैन मतावलंबियों को धर्म कोड दिया गया है, जो कि उरांवों की आबादी से भी कम है।

बहरहाल, आदिवासी इस देश के प्राकृतिक पहरूआ हैं। उन्होंने धरती, पानी, पहाड़ और जंगलों की हिफाजत की है तथा आज भी कर रहे हैं। आदिवासियों को धर्म कोड न देना उनकी सांस्कृतिक पहचान को मिटाने, तमाम योजनाओं से वंचित रखने के साथ – साथ पूंजीवादी बुलडोजरों के साथ हुए समझौतों की राजनीति से भी जुड़ा हुआ है।

[1] http://lsi.gov.in:8081/jspui/bitstream/123456789/60/1/41020_2001_REL.pdf

(संपादन : नवल/अनिल/अमरीश)


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लेखक के बारे में

जनार्दन गोंड

जनार्दन गोंड आदिवासी-दलित-बहुजन मुद्दों पर लिखते हैं और अनुवाद कार्य भी करते हैं। ‘आदिवासी सत्ता’, ‘आदिवासी साहित्य’, ‘दलित अस्मिता’, ‘पूर्वग्रह’, ‘हंस’, ‘परिकथा’, ‘युद्धरत आम आदमी’ पत्रिकाओं में लेख ,कहानियां एवं कविताएं प्रकाशित। निरुप्रह के सिनेमा अंक का अतिथि संपादन एवं आदिवासी साहित्य,संस्कृति एवं भाषा पर एक पुस्तक का संपादन। सम्प्रति इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी व आधुनिक भारतीय भाषा विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।

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