बीते 28 फरवरी, 2021 को फारवर्ड प्रेस के तत्वावधान में हाल ही में प्रकाशित पुस्तक “हिंदू धर्म की पहेलियां : बहुजनो! ब्राह्मणवाद का सच जानो” का ऑनलाइन विमोचन व एक परिचर्चा का आयोजन किया गया। परिचर्चा का विषय था – “हिंदी प्रदेशों में ‘हिंदू धर्म की पहेलियां’ का महत्व”। इसकी अध्यक्षता प्रो. कांचा आइलैया शेपर्ड ने की। इस परिचर्चा में प्रो. कालीचरण स्नेही, प्रो. बिलक्षण रविदास, प्रो. चंद्रभूषण गुप्त, अलख निरंजन, शिवचंद्र राम व रिंकू यादव ने भाग लिया। इस कार्यक्रम का संचालन फारवर्ड प्रेस के प्रबंध संपादक अनिल वर्गीज तथा धन्यवाद ज्ञापन पुस्तक के संकलक, संपादक और संदर्भ टिप्पणीकार डॉ. सिद्धार्थ ने किया। प्रस्तुत है इस कार्यक्रम में प्रो. चंद्रभूषण गुप्त के संबोधन का संपादित अंश :
परिचर्चा : हिंदी प्रदेशों में ‘हिंदू धर्म की पहेलियां’ का महत्व
- चंद्रभूषण गुप्त
फारवर्ड प्रेस द्वारा डॉ. आंबेडकर की ‘हिंदू धर्म की पहेलियां’ पुस्तक का एनोटेटेड संस्करण के प्रकाशन के लिए मैं इसमें शामिल सभी लोगों को बधाई देता हूं। खास तौर पर डॉ. सिद्धार्थ को, जिन्होंने संकलन, संपादन, संदर्भ-टिप्पणियों से इस किताब को समृद्ध किया है। लिखने-पढ़ने वाले लोगों के बीच मैं यह अक्सर देखता हूं कि वे ऐसे विमर्शों से अपरिचित हैं। पूरे विश्वविद्यालयी जीवन में हम लोग डॉ. आंबेडकर को नहीं जान पाए। बहुजन विचारधारा हमारे पाठ्यक्रमों का हिस्सा नहीं है। विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य के दौरान काफी अरसे बाद मेरा जुड़ाव बहुजन विचारधारा से हुआ। आज हम लोगों को यह बात आश्चर्यजनक लगती है कि उच्च स्तर के पाठ्यक्रमों में डॉ. आंबेडकर को शामिल नहीं किया जाना कहीं सोची-समझी साजिश का तो हिस्सा नहीं है?
बहरहाल, आज हमारे सामने ज्वलंत प्रश्न है कि हिंदी पट्टी में इस किताब के आने से क्या बहुजन विमर्श को केंद्र में लाने में मदद मिलेगी?
निश्चित तौर पर यह पुस्तक हिंदी पट्टी को प्रभावित करेगी। भारत की बहुलांश आबादी हिंदी पट्टी से आती है। यही वह इलाका है, जो सबसे ज्यादा कुंदजहनी का शिकार है। मुझे नहीं लगता कि इस किताब में जितनी बातें कही गई हैं, उनकी तरफ लोगों का सचेत तौर पर ध्यान जाता रहा हो, लोगों के मन में सवाल उठते रहे हों, जैसे कि मेरे मन में उठते हैं। मुझसे अनेक विद्यार्थी प्रायः रामायण-महाभारत के बारे में पूछते हैं कि क्या ये इतिहास हैं। उन्हें सबसे पहले बताना पड़ता है कि मिथकों और इतिहास में में फर्क है। मिथक के बारे में कहा जाता है कि अनंत काल से ऐसी मान्यताएं रही हैं, जिन्हें लोग परंपरा मानकर अनुसरण करते रहे हैं, लेकिन जब हम इतिहास की बात करते हैं तो ईसा पूर्व 10,000 से लेकर अब तक 12,000 वर्षों का हमारे पास प्रमाणित इतिहास है। इसलिए मिथक को इतिहास नहीं कहा जा सकता। यह भी सवाल उठता है कि जिन चीजों के प्रमाण नहीं हैं, उसे आप कैसे कह सकते हैं कि वे सच नहीं हैं। पूरे सिस्टम में यह बात घुमा-फिराकर कही जाती हैं, जिन्हें डॉ. आंबेडकर ‘पहेलियां’ कहते हैं।
हिंदू धर्मशास्त्र एवं मिथक इसलिए लिखे जाते रहे हैं ताकि लोगों को बौद्धिक गुलाम एवं गुमराह रखा जा सके। सबसे बड़ी बात है कि वर्ण-व्यवस्था ने शूद्रों को पढ़ने-लिखने से वंचित कर रखा था। अगर उस समय से हम आज की तुलना करें तो अनुमान लगा सकते हैं कि उस समय और भी ज्यादा लोग गुमराह रहे होंगे। ऐसी कहानियों एवं मिथकों ने यहां के लोगों को बौद्धिक रूप से गुलाम बनाये रखा है। साथ ही ऐसे धर्मशास्त्रों को अपौरुषेय घोषित किया जाता रहा है। ऐसा नहीं है कि वेद और पुराण ही सिर्फ अपौरुषेय है, यह बात बाइबिल के बारे में भी कही जाती है। लेकिन बाइबिल को अपौरुषेय कहने से धार्मिक सुधार आंदोलन नहीं रूका। ईसा मसीह यह दावा करते हैं कि मैं सन ऑफ गॉड (ईश्वर का पुत्र) हूं। ईश्वर के पुत्र के संदेश के आधार पर जो बात कही गई, उस पर बाइबिल लिखी गई। लेकिन विज्ञान ने उनमें से ढेर सारी बातों को गलत साबित कर दिया है। आपके अपौरुषेय घोषित कर देने से कोई चीज संदेह से परे हो जाएगी, इतिहास इस बात की गवाही नहीं देता। प्रायः ऐसे ग्रंथों पर जब सवाल उठाये गए, संदेह किये गए, तभी दुनिया आगे बढ़ी है।
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निश्चित तौर पर इन मिथकों एवं पहेलियों का हमारे ऊपर वर्चस्व है, लेकिन यह सत्य पर आधारित नहीं है। इसलिए इस वर्चस्व का टूटना आवश्यक है। चूंकि विज्ञान इस बात की पुष्टि करता है कि दुनियाभर में समस्त मानव जाति के 85 प्रतिशत लोगों में एक ही तरह के जीन पाए जाते हैं। अगर कोई कहे कि वह ब्रह्मा के मुंह से, हाथ से, पेट से या जांघों से पैदा हुआ, तो इस बात को दुनिया में कोई भी मानने को तैयार नहीं होगा। विज्ञान ही हमें सही रास्ता दिखाएगा। खासकर, हिंदी पट्टी में राम की कथा प्रचलित है। ज्यादातर से आप पूछिए तो पता चलेगा कि लोगों ने सिर्फ यह कथा सुनी है, समझने की जहमत बहुत कम लोगों ने उठायी है। मेरे गृह शहर (गोरखपुर) में गीता प्रेस है जो सबसे बड़े धार्मिक ग्रंथों का प्रकाशक है उनके प्रेस से छपी ‘वाल्मीकि रामायण’ की तुलना बाबासाहेब की ‘हिंदू धर्म की पहेली’ पुस्तक के राम की कथा से की जाए तो बहुत आश्चर्य होगा। पहली बार मैं इन उद्धरणों को पढ़ रहा हूं कि राम, जिन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है, पारिभाषिक रूप से मर्यादा में पुरुषों के शिखर पुरुष को पुरुषोत्तम कहते हैं। जब मैं डॉ. आंबेडकर द्वारा वाल्मीकि रामायण की उद्धृत रामकथा पढ़ता हूं तो पता चलता है कि वे राज-काज में दिलचस्पी नहीं लेते थे, आधा दिन पूजा-पाठ करते थे एवं आधा दिन जनानखाने में व्यतीत करते थे। ऐसे ही बहुत सारे प्रसंग मैंने पढ़े हैं, जिससे ज्ञात होता है कि रामकथा में कितना विचलन हुआ है। रामानंद सागर ने जो ‘रामायण’ हमें दूरदर्शन पर दिखाया, वह असली रामायण नहीं है, ऐसी ही तुलसीदास कृत रामकथा है।
दिल्ली विश्वविद्यालय में ‘टू हंड्रेड वर्जन ऑफ रामायणा’ किताब चलती थी, जिसे प्रतिबंधित कर दिया गया है। इस किताब से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल से सैकड़ों रामायण लिखे जाते रहे हैं। इस आधार पर कहा जा सकता है कि अवश्य कुछ लोग रहे होंगे, जिनके अंदर खोज-बीन की प्रवृत्ति रही होगी, जिन्होंने इस तरह के साहित्य रचे। आज के समय में ‘हिंदू धर्म की पहेलियां’ पुस्तक इस काम को थोड़ा भी कर सकी, तो मैं इसे सबसे बड़ा योगदान मानूंगा।
(संपादन : इमामुद्दीन/नवल/अनिल)
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