पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) इस बार पूरा जोर लगा कर भी तृणमूल कांग्रेस को हरा नहीं पाई। भाजपा बंगाल में बदलाव का नारा देकर चुनाव लड़ रही थी, वहीं तृणमूल बेहतर बंगाल का नारा बुलंद कर चुनाव मैदान में उतरी थी। अब जबकि पश्चिम बंगाल में विधानसभा का गठन हो चुका है और दो सौ से अधिक सीटें जीतकर तृणमूल कांग्रेस तीसरी बार सत्ता हासिल करने में कामयाब हुई है और भाजपा की सीटें भी 3 बढ़कर 77 हो गई हैं तो सवाल है कि क्या विधानसभा की सामाजिक संरचना में कोई बदलाव आया है या उसमें ऐसी कोई बेहतरी दिखी है, जिससे ये माना जा सके कि पिछड़ों, बहुजनों, दलितों-आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की राजनीतिक हिस्सेदारी बढ़ाने के जो जुमले उछाले जाते हैं, उनमें कोई यथार्थ है?
ध्यातव्य है कि पश्चिम बंगाल में एक बार फिर ममता बनर्जी सरकार बनाने में सफल हुई हैं जिनकी सामाजिक पृष्ठभूमि सवर्ण है। वहीं आसाम में भाजपा ने इस बार अनुसूचित जनजाति से आने वाले सर्वानंद सोनोवाल के बदले सवर्ण समुदाय के हेमंत बिस्वा शर्मा को सीएम बनाया है।
अगर पश्चिम बंगाल विधानसभा में विभिन्न समुदायों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व का जायजा लें तो हम पाते हैं कि तमाम प्रगतिशील नारों और वादों के बावजूद पिछड़ों, बहुजनों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के हिस्से एक बार फिर निराशा हाथ आई है। संख्या बल में कम होने के बावजूद राज्य की राजनीति में अभी भी सवर्ण हिंदुओं का कब्जा है। मुस्लिमों को अब सिर्फ एक पार्टी का सहारा रह गया है। पिछड़ों का बुरा हाल है। दलितों ने अपनी गोलबंदी के जरिए भागीदारी बढ़ाई है, लेकिन आदिवासी हाशिए पर खिसकते जा रहे हैं।
वहीं पूर्वोत्तर के राज्य आसाम में ओबीसी की स्थिति पश्चिम बंगाल से थोड़ी सुधरी हुई दिखती है। लेकिन यहां की विधानसभा में भी सवर्ण हिंदू काबिज हैं। नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिकता पंजी (एनआरसी) की वजह से मुस्लिम वोटरों को गोलबंदी तेज हुई है और उन्होंने अपनी स्थिति बेहतर की है। लेकिन महिला प्रतिनिधित्व का बुरा हाल है। राज्य में धनकुबेर नेताओं की पैठ बढ़ती जा रही है और धर्मनिरपेक्ष राजनीति की जड़ें कमजोर हो रही हैं।
बंगाल : सवर्णों की हिस्सेदारी 43 फीसदी
पश्चिम बंगाल में जनरल कैटेगरी के लोग (इनमें से द्विज जातियों की हिस्सेदारी 6-7 फीसदी ही है जबकि बड़ी हिस्सेदारी कुछ पिछड़ी जातियों की है जिन्हें पिछड़े वर्ग की सूची में नहीं रखा गया है) 30 फीसदी हैं। द्विज जातियों में मुख्य रूप से ब्राह्मण व कायस्थ हैं जिनका राज्य की राजनीति में वर्चस्व बरकरार है। वर्ष 2011 के विधानसभा चुनाव की तरह 2016 विधानसभा चुनाव में भी इन्हीं ब्राह्मण और कायस्थ विधायकों का बोलबाला रहा था। इस बार भी तस्वीर बदली नहीं है। इस विधानसभा में भी सवर्णों (अधिकांश ब्राह्मण व कायस्थ) की हिस्सेदारी 43 फीसदी है। मुसलमानों का प्रतिनिधित्व पिछली बार के मुकाबले इस बार 5 फीसदी घटा है। हां, अनुसूचित जातियों की हिस्सेदारी पिछली बार की 24 फीसदी से बढ़ कर 27.4 फीसदी हो गई है। इस बार अनुसूचित जाति के 12 उम्मीदवार सामान्य सीटों से जीते हैं, जो एक तरह से अप्रत्याशित ही है।
पश्चिम बंगाल विधानसभा में विधायकों का जातिगत प्रतिनिधित्व
तृणमूल | भाजपा | |
---|---|---|
सवर्ण | 102 | 26 |
दलित | 44 | 36 |
मुस्लिम | 42 | 0 |
आदिवासी | 10 | 9 |
मझोली/निचली जातियां | 10 | 3 |
ओबीसी | 5 | 3 |
स्रोत : त्रिवेदी सेंटर फॉर पॉलिटिकल डाटा – स्पिनर (यथा स्क्रॉल डॉट इन पर प्रकाशित)
इस बार तृणमूल कांग्रेस के 213 उम्मीदवार जीते। इनमें से 47 फीसदी यानी 102 उम्मीदवार सवर्ण जातियों के हैं। भारतीय जनता पार्टी के 77 उम्मीदवार जीते। इनमें से 34 फीसदी यानी 26 सवर्ण जातियों के हैं। तृणमूल कांग्रेस के विधायकों में से 42 मुस्लिम और 44 दलित हैं। भाजपा के 77 विधायकों में से 36 दलित हैं। तृणमूल के विधायकों में मझोली जातियों, पिछड़े वर्ग, आदिवासी के विधायकों की संख्या सिर्फ 25 है। जबकि भाजपा के 77 विधायकों में इनकी संख्या 15 है। स्रोत : त्रिवेदी सेंटर फॉर पॉलिटिकल डाटा – स्पिनर (यथा स्क्रॉल डॉट इन पर प्रकाशित)
भाजपा, लेफ्ट-कांग्रेस और तृणमूल, तीनों ने अपने ज्यादा टिकट सवर्णों को दिए
भाजपा, लेफ्ट-कांग्रेस गठबंधन और तृणमूल तीनों ने अपने ज्यादातर टिकट सवर्ण जातियों के उम्मीदवारों को बांटे। भाजपा ने सबसे ज्यादा यानी 52 फीसदी से ज्यादा टिकट ऊंची जातियों के उम्मीदवारों को दिए। वहीं कांग्रेस समेत वामपंथी गठबंधन ने मुस्लिम उम्मीदवारों को तृणमूल की तुलना में ज्यादा टिकट दिए। तृणमूल ने 15.3 फीसदी मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए जबकि कांग्रेस और वामपंथी गठबंधन की पार्टियों ने 26 फीसदी से अधिक मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया।
आसाम : भाजपा के उभार ने बढ़ाई सवर्ण जकड़बंदी
क्या आसाम में भाजपा के उभार से वहां की राजनीति की सामाजिक प्रोफाइल में कोई बदलाव आया है? आंकड़ों को देखने से तो यही लगता है कि भाजपा के आने से सवर्ण हिंदू गोलबंदी ज्यादा तेज हुई है, लेकिन हकीकत यह है कि यहां की राजनीति में सवर्णों का वर्चस्व पहले से बना हुआ है। राज्य में सवर्ण हिंदू विधायकों की संख्या बढ़ती जा रही है। 2011 में सवर्ण विधायक 24 फीसदी थे। वर्ष 2016 में 32.5 फीसदी हो गए। हालांकि 2021 में इसमें थोड़ी सी गिरावट आई और यह 31 फीसदी हो गई।
आसाम विधानसभा में विभिन्न जाति/वर्गों की हिस्सेदारी
कांग्रेस गठबंधन | भाजपा गठबंधन | |
---|---|---|
सवर्ण | 5 | 34 |
मुस्लिम | 31 | 0 |
जनजातीय (एसटी) | 6 | 11 |
जनजातीय (पहाड़ी) | 0 | 7 |
एससी | 4 | 5 |
ओबीसी | 3 | 15 |
दलित+चाय बागान के श्रमिक समुदाय | 1 | 3 |
स्रोत : त्रिवेदी सेंटर फॉर पॉलिटिकल डाटा – स्पिनर (यथा स्क्रॉल डॉट इन पर प्रकाशित)
कुल मिलाकर चुनावी प्रतिनिधित्व के आंकड़ों में कोई खास बदलाव नहीं दिख रहा है। आसाम विधानसभा में ओबीसी जातियों के विधायकों की हिस्सेदारी 14 फीसदी है। चाय बागान में काम करने वाले समुदायों से आने वाले विधायक चार फीसदी हैं। दलित और आदिवासियों का प्रतिनिधित्व भी स्थिर है। एक दलित उम्मीदवार सामान्य सीट से जीता है और आठ जनजातीय विधायकों में से ज्यादातर बोडो समुदाय से हैं।
भाजपा-गठबंधन के 75 विधायकों में से 45 फीसदी यानी 34 विधायक सवर्ण हिंदू हैं। जबकि कांग्रेस-गठबंधन के 50 विधायकों में से सिर्फ पांच विधायक सवर्ण हिंदू हैं। कांग्रेस गठबंधन के 50 विधायकों में 31 मुस्लिम हैं। यह हिस्सेदारी 62 फीसदी बैठती है।
भाजपा-गठबंधन के 20 ओबीसी उम्मीदवारों में से 15 ने जीत हासिल की है। वहीं कांग्रेस-गठबंधन के ओबीसी उम्मीदवारों ने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया है।
भाजपा ने अपने 43 फीसदी टिकट सवर्ण उम्मीदवारों को दिए
भाजपा के 93 उम्मीदवारों में से 44 यानी 43 फीसदी सवर्ण हिंदू थे। कांग्रेस के 96 उम्मीदवारों में से 32 सवर्ण हिंदू थे। भाजपा ने यहां आठ मुस्लिम उम्मीदवार (ज्यादातर लोअर आसाम में) खड़े किए थे और कांग्रेस ने 19. बद्दरुदीन अजमल की पार्टी एआईयूडीएफ के 20 उम्मीदवारों में से 18 मुस्लिम थे।
(संपादन : नवल/अनिल)
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