सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक चेतना के निर्माण में लघु पत्रिकाओं का हमेशा से अमूल्य योगदान रहा है। ऐसे समय में जब धर्म और राष्ट्रवाद के नारों के बीच असली मुद्दों को किनारे लगाया जा रहा है, बिहार की राजधानी पटना से प्रकाशित “सबाल्टर्न” पत्रिका अपने वैचारिक पैनापन तथा निर्भिकता के साथ बहुजन बुद्धिजीवियों के बीच अपनी खास जगह बना रहा है। बहुजन वैचारिकी की इस पत्रिका की आवृत्ति त्रैमासिक है। इस पत्रिका के प्रधान संपादक हैं- महेन्द्र सुमन। कार्यकारी संपादक द्वय अरुण आनंद और संतोष यादव ने पत्रिका के ध्येय वाक्य “बहुजन चेतना के वाहक” के अनुरूप ही मई 2021 में सद्य: प्रकाशित पत्रिका के पांचवें अंक का संपादन किया है जो कि एक अनियमित अंतराल के बाद प्रकाशित हुआ है। पत्रिका के मकसद के संदर्भ में संपादकीय में अरुण आनंद लिखते हैं, “लघु पत्रिकाओं का मतलब ही है, संघर्ष। यह संघर्ष समाज में यथास्थितिवाद बनाये रखने वाली शक्तियों से भी है और संसाधनों के स्तर पर भी।”
बहुजन समाज के सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक समस्याओं की पहचान और उसके निवारण के उपाय की पड़ताल पत्रिका के एजेंडे में शामिल है। संपादकीय में अरुण आनंद लिखते हैं, “अपने यहाँ संघर्षों की एक लंबी परंपरा हर दौर में रही है। उसके समानांतर प्रतिक्रांति की नियामक शक्तियों का संघर्ष भी उतना ही तीव्र रहा है। संपादक के चिंतन में बहुजन समाज की बेहतरी की चिंता और बेचैनी साफ-साफ दिखाई देती है जब वे लिखते हैं, “हमारे लोकतंत्र में सामाजिक संघर्षों से जो कुछ हासिल हुआ था, इन वर्षों में तार-तार हुआ है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि जनतंत्र में संख्याबल की कीमत पर यह सारा कुछ पिछड़े और दलित जनप्रतिनिधियों की सहमति से हो रहा है।”
पत्रिका में शामिल लेखों को आठ उपखंडों में बांटा गया है– ‘वैचारिक राजनीतिक मुद्दे’, ‘विमर्श/ उत्तर भारत में सामाजिक न्याय की राजनीति में गतिरोध’, ‘वैश्विक क्षितिज’, ‘इतिहास दृष्टि’, ‘शताब्दी स्मरण’, ‘गुमनाम नायक’, ‘श्रद्धांजलि स्मरण’, तथा ‘पुस्तक चर्चा’।
पत्रिका का पहला लेख है, ‘खेती के गहराते संकट के बीच किसान आंदोलन’। इस लेख में सचिन कुमार ने किसानों की समस्याओं को उसके इतिहास और वर्तमान परिपेक्ष्य में रखने की कोशिश की है। 2020 में संसद से पारित तीन कृषि कानूनों के निर्माण की पृष्ठभूमि और उसके निहितार्थ को रखने में लेखक कामयाब रहे हैं। खालिद अनीस अंसारी ‘कुलीन मुसलमानों के नुमाइंदा हैं, ओवैसी’ नामक लेख में मुस्लिम समाज की परतें और वंचना के शिकार पसमांदा मुसलमानों की समस्याओं को नजरअंदाज करने की ओवैसी की राजनीति का पर्दाफाश करते हैं।
‘बेगमपुरा बनाम रामराज्य’ शीर्षक लेख में डॉ. सिद्धार्थ रैदास के बहाने बहुजन परंपरा के मूल्यों की न सिर्फ पहचान करते हैं बल्कि तथाकथित प्रगतिशील परंपरा के विरोधाभासों और छल-छद्मों को बेनकाब करते हैं। संजीव चंदन के लेख ‘ब्राह्मण समाज में कोई वाल्टेयर पैदा नहीं हुआ’ में ब्राह्मण समाज के प्रगतिशील वर्ग की प्रगतिशीलता की सीमाओं की पहचान करते हुए उनको आईना दिखाया गया है। इस लेख में वे कहते हैं, “ब्राह्मणों की कथित सहनशीलता तभी तक काम करती है जबतक उनकी सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक सत्ता को चुनौती नहीं मिलती।”
लेखक त्रयी दिव्या द्विवेदी/ शाज मोहन/जे रघु के लेख ‘फुलेवादी और तिलकवादी राजनीति का संघर्ष’ में तिलकवादी और फुलेवादी विचारधारा के बीच चलने वाले संघर्षों में रणनीतिक रूप से फुलेवादियों के पिछड़ने का कारण बहुजनों की अपनी परंपरा से अनभिज्ञ होना बताते हैं। वे लिखते हैं, “धर्म का उपयोग उन शोषित जातियों की राजनीतिक आकांक्षा को दबाने और नियंत्रित करने के लिए किया गया है, जिन्हें पिछली सदी में बिना कोई मशविरा किए हिंदू धार्मिक श्रेणी में जोड़ दिया गया था।”
‘उत्तर भारत में सामाजिक न्याय की राजनीति का वर्तमान गतिरोध’ शीर्षक लेख प्रसिद्ध लेखक और समालोचक कंवल भारती के कलम से निकला है। इस लेख में उन्होंने सामाजिक न्याय आंदोलन के शक्तियों की कमजोरियों और भटकावों पर सारगर्भित समालोचनात्मक समीक्षा प्रस्तुत किया है। वे बहुजन नेताओं के भटकाव का कारण उनका सांस्कृतिक रूपांतरण नहीं होना बताते हैं। इस लेख में उन्होंने तथाकथित बहुजन दलों की विसंगतियों और वैचारिक दरिद्रता को रेखांकित किया है। वे लिखते हैं, सामाजिक न्याय की राजनीति उसी स्थिति में कामयाब हो सकती है, जब बहुसंख्यक जनता में फुले, पेरियार, और आंबेडकर की सामाजिक परिवर्तन की विचारधारा को स्थापित किया जाएगा।” बहुजन राजनीति की समस्याओं की पहचान की अगली कड़ी में रिंकु यादव का लेख है– ‘ब्राह्मणवाद-पूंजीवाद विरोधी चेतना को पुनर्स्थापित करना होगा।’ वे लिखते हैं, “बेशक, नब्बे का दशक में बिहार-यूपी के सामाजिक-राजनीतिक जीवन के उथल पुथल के केंद्र में बहुजनों में ऊंची जाति के चौतरफा वर्चस्व से उबरने और राजनीतिक-आर्थिक बराबरी व विकास की आकांक्षा व उम्मीदें थीं, लेकिन सामाजिक न्याय की राजनीतिक धारा इस आकांक्षा को पूरा करने की दिशा में नहीं पकड़ती है। बहुजनों की आकांक्षा को केवल चुनाव व कुरसी के इर्द-गिर्द सिमटी राजनीति के लिए निचोड़ा जाता है।”
इतालवी लेखक जियोर्जियो एगामबेन के लेख ‘दुश्मन बाहर नहीं, हमारे भीतर है’ हमें बताते हैं कि कोरोना महामारी के इस दौर में किस तरह हमारे सामाजिक जीवन पर संकट उत्पन्न हो गया है। विश्व प्रसिद्ध लेखक युवाल नोआ हमारी अपने लेख ‘कोरोना वायरस के बाद की दुनिया’ के माध्यम से दुनिया भर में सिकुड़ा लोकतंत्र और इलेक्ट्रॉनिक सर्विलांस के माध्यम से हमारी निजता में हस्तक्षेप से आसन्न खतरों से आगाह करते हैं। वे चेतावनी भरे लहजे में कहते हैं, “मौका मिलने पर विवेकहीन राजनेता हमारे लोकतंत्र को पूरी तरह खोखला कर देंगे।
प्रसिद्ध लेखक ओ. पी. जायसवाल ‘नालंदा महाविहार के पतन और विध्वंस से जुड़े मिथकों का सच’ शीर्षक लेख में नालंदा महाविहार के विध्वंस से जुड़े सच सामने लाते हैं। शत वार्षिकी स्मरण के तहत एंगेल्स के पत्र, उनका संक्षिप्त परिचय तथा फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास ‘परती-परिकथा’ की समीक्षा प्रकाशित की गई है। ‘परती-परिकथा’ की समीक्षा के बहाने प्रेमकुमार मणि ने रेणु की वैचारिकी तथा उपन्यास की कथा पृष्ठभूमि की गहन पड़ताल की है। समाजशास्त्री व इतिहासविद् प्रो. ईश्वरी प्रसाद ने पिछड़े वर्ग के नायक ‘गुरु सहाय लाल : पिछड़े समाज के युगद्रष्टा’ को याद किया है। पिछले वर्ष दिवंगत हुए सामाजिक संघर्ष के योद्धा राम अवधेश सिंह के नेतृत्व और कृतित्व को शोधार्थी सत्यनारायण प्रसाद यादव ने ‘सड़क से संसद तक सामाजिक न्याय की वकालत’ शीर्षक लेख में स्मरण किया है। ‘सुनो ब्राह्मण कविता’ संग्रह सहित अनेकानेक रचनाओं से बहुजन समाज को वैचारिक धार देने वाले कवि मलखान सिंह को श्रद्धांजलि अर्पित किये हैं, डॉ. कर्मानंद आर्य ने वहीं बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार नरेंद्र कुमार प्रसाद को स्मरण किया है आदिवासी भाषाओं के अध्येता अश्विनी कुमार पंकज ने। पुस्तक समीक्षा के अंतर्गत पिछले महिनों की चर्चित और बहुप्रशंसित पुस्तक ‘नेपथ्य के नायक’ की समीक्षा नंदकिशोर नंदन ने की है।
इस प्रकार ‘सबाल्टर्न’ पत्रिका आज के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों को बहुजन दृष्टिकोण से रखने में कामयाब रही है। जब शासन के ज्यादातर निर्णय कारपोरेट हित केन्द्रित हो रहे हों, जनता के असली मुद्दों को गायब किये जा रहे हों, नकली मुद्दों को मनुमीडिया के माध्यम से आमजन के दिमाग में संप्रेषित किये जा रहे हों, तब हमारे लिए सबाल्टर्न जैसी पत्रिका लाइटहाउस से कम नहीं है।
समीक्षित पत्रिका- सबाल्टर्न, मई 2021
प्रधान संपादक: महेन्द्र सुमन संपादक: अरुण आनंद, संतोष यादव
मूल्य: 50 रुपये
(संपादन : नवल/अनिल)
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