आंबेडकरवादी साहित्यकार जयप्रकाश कर्दम बहुआयामी रचनाकार रहे हैं। गद्य लेखन के अलावा उन्होंने पद्य के क्षेत्र में भी अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है। अभी हाल ही में उनका पांचवा काव्य संग्रह ‘दुनिया के बाज़ार में’ प्रकाशित हुआ है। उनकी अन्य चर्चित काव्य संग्रहों में ‘गूंगा नहीं था मैं’ , ‘तिनका तिनका आग’, ‘खण्ड काव्य राहुल’ और ‘बस्तियों के बाहर’ शामिल हैं।
जयप्रकाश कर्दम के इस नए काव्य संग्रह में कुल 111 कविताएं हैं। परंपरा से इतर उन्होंने काव्यात्मक तरीके से अपनी पुस्तक को उन्हें समर्पित किया है जो समाज में अपने वजूद को होने के बावजूद बिखरे हैं। अपने समर्पण में कवि सिर्फ और सिर्फ मनुष्य और मानवता के बचाये रखने की बात करते हैं–
“दुनिया के बाज़ार में खड़े / उस व्यक्ति को, जो / न क्रेता है / न विक्रेता है / न उत्पाद है / केवल भौचक, सहमा / और लाचार है।”
अपनी एक कविता में कर्दम भारतीय समाज के विभिन्न आयामों को सामने तो लाते ही हैं अमीरी और गरीबी के बीच की खाई को भी जगजाहिर करते हैं। उनकी संवेदना देश और समाज के उस व्यक्ति के लिए व्यक्त होती है, जो क्रंकीट के ताजमहलों को देख भौचक है, अपने जैसे हाड़ मांस के व्यक्ति की चकमकहट को देख सहमा और संसाधन के अभाव में लाचार है। प्रश्न यह है कि वह लाचार क्यों है?
दरअसल, साधन संपन्न वर्ग एक तरफ बाज़ार को अपना जीवन मानता है, वही उसी समाज में एक बड़ा वर्ग दो वक्त के लिए रोटी जुगाड़ने में दिन-रात कड़ी मेहनत करता है।
सामान्य तौर पर हम समस्याओं की चर्चा करते हैं लेकिन समाधान की तलाश नहीं करते। ऐसे में स्थितियों में जो बदलाव होने चाहिए थे, वह नहीं हुए हैं। यही कारण है कि जयप्रकाश कर्दम ‘दुनिया के बाज़ार’ शब्द का प्रयोग कर समाज के वंचित व्यक्ति की लाचारी, विवशता और साथ ही उसकी मासूमियत के स्थिति को बयां करते हैं। उन्होंने ‘दुनिया के बाज़ार में’ शीर्षक कविता से इंसानियत, प्यार और अदब को महत्व देते हुए यथार्थ स्थिति को ही स्पष्ट किया है ।वह लिखते है कि–
“लगे थे सब के सब / छीन-झपटकर पाने, हथियाने में / पा लिया था सब ने / कुछ न कुछ / जिसको जो हाथ लगा / जहां तक जिसकी पहुँच बनी / किसी ने धन पाया / किसी ने पद, प्रतिष्ठा / किसी ने सत्ता का सुख / छीनने, हथियाने की / इस आपाधापी, लूट-खसोट और / गलाकाट प्रतियोगिता के घमासान में …”
हम अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए किसी विशेष चाह को हमेशा बनाये रखना चाहते है। यह उसी चाह का ही नतीजा है कि हम दूसरों की परवाह करने की प्रक्रिया को नजरअंदाज कर देते हैं। यही कारण है कवि ‘दुनिया के बाज़ार’ शब्द का प्रयोग करते वक्त तनिक भी नहीं हिचकते और दुनिया के बाज़ार में जो विशिष्ट जन है उनकी स्थिति को बयां करते है। कविता में शब्द पद, प्रतिष्ठा, सता सुख, छीनना, हथियाना, लूट खसोट और गलाकाट जैसे शब्दों से पाठक पहले ही परिचित हैं, लेकिन हमें यह पता होना चाहिए कि इन शब्दों के माध्यम से समाज में स्वार्थ, ईर्ष्या, बेईमानी, अहम का एक व्यापक चक्रव्यूह बना है। जहां सभी जाने-अनजाने भी निकलना नहीं चाहते है। यही कारण है कि कवि इसके नतीजे को भी बयां करते है, क्योकि कवि को चिंता मानवता की है।
दरअसल, बाज़ार पूंजी निर्मित शब्द है। इसमें संवेदना, प्रेम और इंसानियत के लिए जगह न के बराबर है। कवि सचेत भी करना चाहते है कि अगर इसी तरह बाज़ार में अपने को हम समर्पित करते रहे तो उसका नतीजा अच्छा नहीं होगा। वहीं वह यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि मनुष्य के माध्यम से ही बाज़ार निर्मित है अगर मनुष्य को बचाए रखने वाली शक्ति प्रेम और इंसानियत का जगह संसाधन कुछ समय के लिए भले ही ले ले, लेकिन यह स्थायी नहीं है।
जयप्रकाश कर्दम आगे लिखते है कि–
“नहीं बचा था उनके लिए कुछ भी शेष / पाने या हथियाने को / लेकिन / बचा रह गया था इस सब के बीच / बेकद्र और गैर-जरुरी सा / थोड़ा सा अदब / थोड़ी सी इंसानियत / थोड़ा सा प्यार / नहीं था इस सब का खरीदार / दुनिया के बाजार में।”
बाज़ार के बढ़ते प्रकोप ने मनुष्य के जीवन से मानवता को जिस तरह झकझोरा है ठीक उसी प्रकार स्वार्थ, मोह और अकेलापन को भी जबर्दस्ती थोप दिया है। ऐसे में इस काव्य संग्रह की पहली कविता ‘अपनो के संग’ रिश्तों को जोड़ने के साथ अपनों के महत्व को भी व्यक्त करती है, क्योंकि एकाकीपन के भाव ने मनुष्य के शक्ति और ऊर्जा दोनों को कमजोर ही किया है।
जयप्रकाश कर्दम जीने की उमंग में अपनों के महत्व को ही महत्वपूर्ण मानते हैं–
“कोई भी रंग हो / कोई भी हो ढंग / बनी रहनी चाहिए/ जीने की उमंग / जीतने का जज्बा / जिंदगी की जंग / अपने के संग।”
कवि के रूप में भी जयप्रकाश कर्दम भौतिकवाद और अनात्मवाद को अहम मानते हैं। मैत्री, सद्भाव, शालीनता और मदद जैसे शब्द हमारे सजीव और इंसान होने के प्रमाण हैं। अपनी कविता ‘फरिश्ता’ में वह लिखते है कि– “उनको जो भी मिले / मदद करते थे सब / अपनी अपनी सीमा में / लेकिन वे बोलते थे / देते थे नसीहतें / झिड़क भी देते थे कभी कभी / बहुत सी बातों पर / नहीं करते थे फरिश्तों जैसा व्यवहार / क्योकि वे फरिश्ता नहीं थे / वे इंसान थे।”
‘आग’ शीर्षक कविता में वे लिखते हैं–
“जीने के लिए आग जरूरी है / हम जीवित है तभी तक / जब तक हमारे अंदर आग है।”
बदलते समय ने हमारे जीवन को गहरे रूप से प्रभावित किया है। यही कारण है हम एक दूसरे के विश्वास को भी परखने में लगे हुए है। इस संदर्भ में इस संग्रह की ‘परख’ कविता और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है–
“सब कुछ परखा नहीं जाता / जिंदगी में / बहुत कुछ समझा भी जाता है / कभी कभी… “
अतः हम कह सकते है कि ‘दुनिया के बाज़ार में’ कविता संग्रह अभी के समय की परख है। यह काव्य संग्रह हमारे सामान्य जीवन में आये बदलाव से रूबरू कराती है तो दूसरी तरफ हम जीवन से पल पल कैसे दूर होते जा रहे, उसकी पड़ताल भी करती है। कुल मिलाकर कहे तो ‘दुनिया के बाजार’ में मनुष्य और मनुष्यता के बीच के जो अंतर और खाई, मौजूदा समय में बन रही है, उसे जोड़ने का प्रयास है।
समीक्षित पुस्तक : दुनिया के बाजार में
प्रकाशक : अमन प्रकाशन, कानपुर, उत्तर प्रदेश
कवि : जयप्रकाश कर्दम
मूल्य : 295 रुपए
(संपादन : नवल/अनिल/अमरीश)
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