बिहार की राजधानी पटना के जिला मुख्यालय से करीब 12 किलोमीटर दूर है ब्रहम्पुर गांव। इस गांव में ओबीसी जातियों कुशवाहा और यादव की बड़ी आबादी है। यहां की आबादी में अति पिछड़े वर्ग व दलित जातियों के लोग भी शामिल हैं। हालांकि इनकी हिस्सेदारी बहुत कम है। इसी गांव के हैं दीनानाथ क्रांति। ये कुशवाहा (ओबीसी) जाति के हैं। गांव में इन्हें सब इनके नाम से जानते हैं। कुछेक लोग ही हैं जो इन्हें नेताजी मानते हैं।
दरअसल, दीनानाथ क्रांति वर्ष 1980 से ही राजनीति में सक्रिय हैं। ये भूतपूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के करीबी सहयोगियों में से एक रहे हैं। इतने करीबी कि इनकी शादी, जो कि गैर-ब्राह्मणवादी तरीके से हुई थी, में रामविलास पासवान न केवल शामिल हुए थे बल्कि अभिभावक की भी भूमिका निभायी थी। पटना के गेट पब्लिक लाइब्रेरी परिसर में हुई इस आधुनिक शादी में कर्पूरी ठाकुर भी शामिल हुए थे। इनके अलावा उस समय के तमाम बड़े नेता, जो समाजवादी थे और लोकदल के सदस्य थे, भी शरीक हुए थे।
दलित सेना का गठन
उन दिनों को याद करते हुए दीनानाथ क्रांति बताते हैं कि तब रामविलास पासवान सांसद थे और दिल्ली में रह रहे थे। लेकिन उनकी कार्यशैली आम कार्यकताओं जैसी थी। उनसे पहली बार मुलाकात की तारीख बताने में असमर्थता जाहिर करते हुए वे बताते हैं कि उन दिनों वे लोक शांति सेना के सदस्य थे, जिसके संरक्षक पटना हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता रहे प्रणव चटर्जी थे। यह एक सामाजिक संगठन था जिसका मुख्य काम ग्रामीण इलाकों में खेतिहर मजदूरों को वाजिब मजदूरी दिलाना व बंधुआ मजदूरी तथा बेगारी प्रथा को समाप्त करना था। इस संगठन के सदस्यों में तब कर्पूरी ठाकुर, रामविलास पासवान और रामलखन सिंह यादव, लालू यादव, नीतीश कुमार आदि तमाम लोग शामिल थे। उन दिनों ही रामविलास पासवान से मुलाकात हुई थी। तब बिहार के नालंदा जिला के इस्लामपुर में एक कार्यकर्ता शिविर का आयोजन हुआ था जिसमें कर्पूरी ठाकुर और रामविलास पासवान भी आए थे।
बाद के दिनों में लोक शांति सेना कमजोर पड़ने लगी। इस बीच रामविलास पासवान दलित-आदिवासियों के लिए अलग से कार्यक्रमों का आयोजन भी कर रहे थे। इस क्रम में उन्होंने पटना के गांधी मैदान में दलित-आदिवासी सम्मेलन का आयोजन किया था। इसमें दीनानाथ क्रांति और डॉ. सत्यानंद शर्मा की अहम भूमिका रही। इस कारण दीनानाथ क्रांति रामविलास पासवान के बहुत करीबी हो गए। उनके अपने शब्दों में कहें तो “दो-तीन महीने के अंदर ही रामविलास जी और मैं एक थाली में खाना तक खाने लगे थे”। पासवान जाति-पाति कुछ नहीं मानते थे और ना ही कोई हीन भावना रखते थे कि उनका जन्म एक दलित (पासवान) परिवार में हुआ है।
उन दिनों ही रामविलास पासवान ने लोक शांति सेना के सदस्यों के समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि वे सभी साथ मिलजुलकर काम कर सकते हैं। इस पर सभी सहमत हुए तो समस्या नाम की आयी। इसके समाधान के रूप में दलित सेना का नाम सामने आया जिसमें लोक शांति सेना का सेना और दलित शब्द रामविलास जी की तरफ से आया। यह एक विशुद्ध सामाजिक संगठन था, जिसके उद्देश्य अर्द्धराजनीतिक थे।
परिजनों को प्राथमिकता
खैर, उन दिनों जो रिश्ता रामविलास पासवान और दीनानाथ क्रांति के बीच बना, उसे दोनों ने समय-समय पर कड़वाहटों के बावजूद निभाया। एक कड़वाहट का जिक्र करते हुए दीनानाथ क्रांति बताते हैं कि “वह 1989 का साल था जब बिहार में विधानसभा चुनाव होने थे। पटना साहिब से मैं सशक्त उम्मीदवार था और रामसुंदर दास जैसे नेता चाहते थे कि मैं चुनाव लड़ूं। चाहते तो रामविलास पासवान भी थे लेकिन उन्होंने अपने समधी पुनीत राय, जो कि फतुहां से चुनाव जीतते रहे थे, के कहने पर मेरा टिकट कटवा दिया और लालू प्रसाद के करीबी रहे गणेश प्रसाद यादव को टिकट दिलवा दिया। तब मैंने भी ठान लिया था कि मैं चुनाव लडूंगा और निर्दलीय लड़ूंगा। लेकिन परिस्थितियां कुछ ऐसी बनीं कि मैं चुनाव नहीं लड़ सका। लेकिन लोग मेरे पक्ष में थे और गणेश प्रसाद यादव की हार हुई। कुल मिलाकर यदि रामविलास पासवान चाहते तो मैं 1989 में चुनाव लड़ता और जीत जाता। लेकिन उन्होंने मुझसे अधिक अपने समधी को प्राथमिकता दी जो इस कारण सशंकित थे कि यदि पटनासाहिब से मुझे टिकट दिया गया तो पड़ोस के विधानसभा क्षेत्र फतुहां के यादव उनको वोट नहीं देंगे।”
तो क्या आपको तब पहली बार अहसास हुआ कि रामविलास पासवान अपने परिवार के प्रति अधिक प्रतिबद्ध थे और अपने कार्यकर्ताओं के प्रति कम? यह पूछने पर दीनानाथ क्रांति स्वीकार करते हुए बताते हैं कि “ऐसा होना कोई बड़ी बात नहीं है। बिहार में जिस तरीके की राजनीति होती रही है, कुछेक नेताओं जैसे कि कर्पूरी ठाकुर आदि को छोड़ दें तो लगभग सभी यही करते रहे हैं। रामविलास पासवान में भी यह ऐब था। उन्होंने अपने परिजनों को प्राथमिकता दी। लेकिन इसके बावजूद वे अपने कार्यकर्ताओं का पूरा सम्मान करते थे। हर विषय पर सीधे बात करते थे। यही उनकी खासियत भी थी।”
रामविलास पासवान का अपने परिजनों के साथ कैसा रवैया रहता था उन दिनों? जवाब में दीनानाथ क्रांति बताते हैं कि “रिश्ते तो सामान्य ही थे। उनके दो भाई, जिनमें पशुपति पारस जो कि एक सरकारी स्कूल में शिक्षक थे शामिल थे, उनके कहने पर राजनीति में आए और उन्हें जगह दी गई। उनके सबसे छोटे भाई रामचंद्र पासवान को भी बिना किसी संघर्ष के जगह मिल गई।”
इन दोनों भाईयों में से राजनीति की समझ किसे अधिक रही? “निस्संदेह पशुपति कुमार पारस। दीनानाथ क्रांति के मुताबिक वे पशुपति पारस ही थे जिन्होंने रामविलास पासवान का हर हुक्म बिहार में बजाया। उन्होंने जो कहा, उसे पूरा किया। यहां तक कि लोग उन्हें बिहार में रामविलास पासवान की प्रतिमूर्ति मानते थे। चूंकि रामविलास पासवान दिल्ली में रहते थे तो आम लोगों के लिए पशुपति पारस ही थे, जो उनसे मिलते और उनका काम करते व करवाते थे। डेमोक्रेसी में इस बात का महत्व अधिक होता है कि कोई नेता अपने लोगों से कैसे मिलता है। रामविलास पासवान यह बात जानते थे। हालांकि वे जब कभी बिहार आते लोगों से सीधे बात करते थे। लेकिन तब भी पशुपति पारस का महत्व कम नहीं होता था।”
वर्तमान विवाद के केंद्र में पारिवारिक अनबन, चिराग की मनमानी और अपनों का अपमान
लोजपा में इन दिनों जो विवाद चल रहा है, उसके पीछे कारण क्या है? क्या इसके पीछे केवल राजनीति है या फिर कुछ और है? इन सवालों के जवाब में दीनानाथ क्रांति बताते हैं कि “यह राजनीति से अधिक पारिवारिक लड़ाई है। इसका राजनीति से कोई खास लेना-देना नहीं है। हालांकि यह बात सही है कि ताजा घटनाक्रम से चिराग पासवान बर्बाद हो चुके हैं। उन्हें यह समझ में आ गया होगा कि एसी कमरे में बैठकर सोशल मीडिया के सहारे राजनीति नहीं की जा सकती है। इसके लिए लोगों के बीच जाना और उनकी बातों को सुनना जरूरी होता है। लेकिन लोजपा में कभी भी आंतरिक लोकतंत्र रहा ही नहीं। रामविलास जी के लिए उनके परिजन महत्वपूर्ण थे। बाद के दिनों में, खासकर 2010-11 के बाद, जब से चिराग पासवान सरेख हो गए तब उन्होंने अपनी मां के साथ मिलकर रामविलास पासवान जी को बंधक बना लिया था। वे जैसा चाहते थे, वैसा पासवान जी करते थे। बेटे ने जिद की कि वह फिल्म में नायक बनेगा, पासवान जी ने फिल्म बनवा दी। लेकिन जब बेटा कामयाब नहीं हुआ तब उसने उनका राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाने के लिए दबाव डाला।
“रामविलास पासवान अपने बेटे और पत्नी के बंधक बन चुके थे। बेटे की जिद पर वर्ष 2013 में ही उसे पार्टी के संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष बना दिया। यहीं से रामविलास जी की पार्टी, जो कि वास्तव में एक पारिवारिक पार्टी थी और आवरण दलितों की पार्टी का था, में फूट पड़ने लगी। चिराग पासवान की सलाह पर रामविलास पासवान ने 2014 में एनडीए की शरण ली जो एक तरह से ठीक ही रहा। सात में छह उम्मीदवार लोकसभा चुनाव जीतने में कामयाब रहे। लेकिन इस जीत के बाद चिराग पासवान की पकड़ पार्टी पर मजबूत होने लगी। वहीं दूसरी ओर पार्टी के समर्पित कार्यकर्ताओं को निराशा मिल रही थी। पार्टी में चिराग पासवान की छवि ऐसी थी कि कोई उनके सामने अपनी बात तक नहीं रख सकता था।”
अपने साथ एक ऐसी ही घटना का जिक्र करते हुए दीनानाथ क्रांति ने बताया कि वर्ष 2015 में परबत्ता विधानसभा उपचुनाव के समय उनका चिराग पासवान से झगड़ा हो गया। तब सुहेली मेहता लोजपा की ओर उम्मीदवार थीं। मुद्दा चुनावी कार्यक्रम के आयोजन को लेकर था। तब चिराग पासवान ने पार्टी से बाहर कर देने की धमकी दी। बाद में रामविलास पासवान ने दीनानाथ क्रांति को फोन किया तथा पशुपति पारस जो तब खगड़िया में ही थे, से मिलने को कहा। दीनानाथ क्रांति ने बताया कि वे उसी दिन रात करीब 11 बजे पशुपति पारस से मिले और सारा हाल सुनाया। इस पर पशुपति पारस ने उन्हें अपने साथ पटना चलने के लिए कहा और यह भी कि पार्टी चुनाव जीते या हारे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। यह बात यही नहीं रूकी। रामविलास पासवान ने उन्हें दिल्ली बुलाया ताकि चिराग पासवान से सुलह हो सके। लेकिन बैठक से पहले ही चिराग मुंबई भाग गए थे। दीनानाथ क्रांति बताते हैं कि पासवान जी के कहने पर वे पार्टी में बने रहे।
धन-संपत्ति का मामला
दीनानाथ क्रांति के मुताबिक “परिवार में धन-संपत्ति के बंटवारे का कोई मामला सामने कभी नहीं आया। हालांकि इस मामले में सबसे अधिक फायदे में चिराग पासवान ही रहे हैं। खगड़िया के अलौली जो कि पासवान जी का पैतृक इलाका है, वहां 50-60 बीघा जमीन है जो उन्होंने पहले ही अपनी पहली पत्नी राजकुमारी देवी के नाम कर दी थी। इसके अलावा पटना में जो अचल संपत्तियां हैं, वह रामविलास पासवान जी के नाम पर है, उस पर अब चिराग पासवान का कब्जा है। वहीं दिल्ली व देश के कुछ अन्य शहरों में भी अचल संपत्तियां हैं, जिसके मालिक निश्चित तौर पर चिराग ही होंगे। इसके अलावा दो पेट्रोल पंप भी हैं दिल्ली में, जिसके मालिक वही होंगे। साथ ही सात कंपनियां भी हैं उनके नाम से। रामविलास पासवान के भाईयों ने भी धन-संपत्ति अर्जित की है। लेकिन निश्चित तौर पर उतनी नहीं जितनी कि रामविलास पासवान के पास थी। चूंकि रामविलास पासवान के जीते जी उनके भाईयों ने कोई विरोध नहीं किया तो अब उनके जाने के बाद यह ठीक-ठीक तो नहीं कहा जा सकता है कि पारिवारिक लड़ाई के केंद्र में धन-संपत्ति है या नहीं। कुछ होगा भी तो बाहरी तौर पर कोई बात अभी तक सामने नहीं आयी है।”
पासवान परिवार की संपत्ति का लेखा-जोखा (वर्ष 2019 में चुनाव आयोग को दिए गए शपथ पत्र के आधार पर)
रामविलास पासवान* | कुल संपत्ति : 1 करोड़ 41 लाख 58 हजार 956 रुपए
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चिराग पासवान (पुत्र, सांसद) | कुल संपत्ति : 1 करोड़ 84 लाख 66 हजार 66 रुपए |
पशुपति कुमार पारस (भाई, सांसद) | कुल संपत्ति : 6 करोड़ 28 लाख 34 हजार 200 रुपए |
रामचंद्र पासवान (भाई, भूतपूर्व सांसद)** | कुल संपत्ति : 1 करोड़ 73 लाख 75 हजार 975 रुपए |
प्रिंस पासवान (भतीजा, सांसद) | कुल संपत्ति : 1 करोड़ 65 लाख 68 हजार 663 रुपए |
*रामविलास पासवान (5 जुलाई, 1946 - 8 अक्टूबर, 2020) **रामचंद्र पासवान (1 जनवरी, 1962-21 जुलाई, 2019) |
चिराग से मायूस थे रामविलास पासवान
हालांकि दीनानाथ क्रांति यह बताते हैं कि रामविलास पासवान चिराग पासवान की मनमर्जी और तानाशाही रवैये से परेशान रहते थे। यही उनके दुख का कारण भी और उनकी असमय मौत हुई। एक संस्मरण बताते हुए वे कहते हैं कि “लोकसभा चुनाव के करीब दो महीने बाद जब मैं एक काम से दिल्ली गया तो चिराग पासवान से पार्टी के काम के सिलसिले में ही मिलना था और रामविलास पासवान जी से भी मिलना था। समय निर्धारित था। दो बजे चिराग पासवान से और ढाई बजे रामविलास पासवान जी से। चिराग पासवान से मुलाकात हुई तो बातचीत में तीन बज गए। मैंने उनसे कहा कि मुझे बड़े साहब से मिलने जाना है। इस पर उन्होंने कहा कि पापा घर पर ही हैं और आराम कर रहे हैं। मैं उनसे कह दूंगा कि आपसे मुलाकात हो गई। चिराग पासवान से मिलने के बाद जैसे ही उनके घर से बाहर निकला, एक परिचित ने कहा कि रामविलास जी अभी भी अपने मंत्रालय के दफ्तर में बैठे हैं। मुझे वहां पहुंचने में करीब आधा घंटा लग गया। वहां पासवान जी लिफ्ट में सवार हो चुके थे। मैं नीचे आया तो उन्होंने कहा कि मैं आपका एक घंटे से इंतजार कर रहा था। मैंने यह बात छिपाते हुए कि चिराग जी ने यह कहा कि आप घर पर हैं और आराम कर रहे हैं, कहा कि हां, बात हो गई है। फिर उन्होंने जोर देकर पूछा कि कोई और बात है तो बताएं। इस पर मैंने उन्हें कहा कि कोई ऐसी बात नहीं है। इसके बाद वे गाड़ी में बैठ गए। गाड़ी के गेट से बाहर निकलने के पहले ही उन्होंने दुबारा मुझे बुलवाया और पूछा कि आपकी मुलाकात चिराग से अच्छे से हुई न? मैंने हां कहा। तब जाकर वे गए। यह मेरी उनसे आखिरी मुलाकात थी। इस मुलाकात के बाद मेरे और चिराग पासवान के बीच तल्खी बढ़ती गई और मैंने रामविलास पासवान जी के निधन के बाद जनता दल यूनाईटेड की सदस्यता ले ली। मेरे पास चिराग ने कोई विकल्प नहीं छोड़ा था। पार्टी छोड़ने के पहले मैं पार्टी के गठन के समय से ही प्रदेश में महासचिव था”
परिजनों ने रामविलास पासवान को नास्तिक नहीं रहने दिया
दीनानाथ क्रांति के अनुसार, “रामविलास पासवान के पिता जामुन पासवान कबीरपंथी थे। उनके छोटे भाई रामचंद्र पासवान ने कबीरपंथ की दीक्षा ली थी। लेकिन बाद में उन्होंने कबीर पंथ छोड़ दिया था। जबकि रामविलास पासवान नास्तिक इंसान थे। हिंदू धर्म में उनको यकीन नहीं था। उन्होंने कभी भी किसी परिजन के मरने पर मुंडन नहीं कराया। लेकिन उनके मरने के बाद उनकी अंत्येष्टि उनके बेटे चिराग और पत्नी रीना शर्मा की मर्जी से वैदिक रीति-रिवाज से हिसाब से हुई। यहां तक कि कार्यकर्ताओं को उनका चेहरा तक नहीं देखने दिया गया। यदि सब कुछ सही रहता तो रामविलास पासवान की अंत्येष्टि में ब्राह्मण शामिल नहीं होता।”
बहरहाल, लोक जनशक्ति पार्टी जो कि पहले एक परिवार की पार्टी थी, जिसे बिहार के पासवान जाति का समर्थन हासिल था, अब अपने खात्मे की ओर है। इस संबंध में दीनानाथ क्रांति बताते हैं कि “भले ही दलितों के लिए रामविलास पासवान ने आवाज उठायी। लेकिन दलित उनकी प्राथमिकता में कभी नहीं रहे। यहां तक कि बिहार में दलितों पर होने वाले अत्याचारों के मामले में भी वे खामोश ही रहते थे। यह उनकी राजनीति का हिस्सा था। वे ऊंची जातियों से बैर भाव नहीं रखते थे। वहीं ऊंची जातियों के लोगों को भी उनसे कोई दुश्मनी नहीं थी।”
लोजपा में सवर्ण
कई मामलों में आरोपी रहे पूर्व सांसद सूरजभान सिंह को पशुपति कुमार पारस गुट द्वारा कार्यकारी अध्यक्ष बनाए जाने के संबंध में पूछने पर दीनानाथ क्रांति बताते हैं कि “सवर्णों को पहले भी रामविलास पासवान जी से कोई परेशानी नहीं थी। सूरजभान सिंह तो पार्टी के लिए जान लगा देने वाले रहे हैं। वर्ष 2005 में जब पार्टी के 29 विधायकों ने पार्टी छोड़ दिया था तब सूरजभान ही थे, जिन्होंने पार्टी को एकजुट रखा था। वहीं चिराग पासवान को भी सवर्णों से कोई परहेज नहीं रहा है। उन्होंने अपना सहयोगी सौरव पांडेय नामक शख्स को बना रखा है जो उत्तर प्रदेश के बनारस का है। चिराग उसी का कहा सुनते हैं और करते हैं।”
अब क्या होगा लोजपा का? इस सवाल पर दीनानाथ क्रांति कहते हैं कि “पशुपति पारस के पास नेतृत्व की क्षमता है। यदि वे चाहेंगे तो पार्टी चलेगी। चिराग के वश की बात नहीं है। हालांकि एक तरह से बिहार में दलित राजनीति का नामलेवा भी खत्म हो गया है। भविष्य में क्या होगा, अभी कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी?”
(संपादन : अनिल/अमरीश)
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