सुभाषचंद्र आर्य उर्फ मुद्राराक्षस (21 जून, 1933 – 13 जून, 2016) पर विशेष
मुद्राराक्षस ऐसी शख्सियत रहे, जिनका स्मरण होते ही स्मृतिपटल पर एक नायक की छवि उभरती है, जिन्होंने अपनी असाधारण प्रतिभा एवं सृजनशीलता से समाज, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में हजारों वर्षों से जमे-जमाए सामाजिक विद्रुपताओं पर जमकर प्रहार किया। वे आजीवन समाज के हाशिए पर धकेल दिए गए हिस्से के पक्ष में मुखर आवाज बने रहे। भावुक हृदय, साधारण लिबास, फ्रेंचकट दाढ़ी, चौड़ा ललाट, छोटी सी कद-काठी, हल्के-फुल्के गात, परिवर्तनाकांक्षी छोटी-छोटी सी आँखें, जनसरोकारों के लिए जारी संघर्षों की अग्रिम पंक्ति में मुट्ठी भींचे हाथ और चाल में गजब की फूर्ति से इस अतिवृद्ध को आसानी से पहचाना जा सकता था। तीखे तेवर के लिए विख्यात मुद्राराक्षस ने उपन्यास, कहानी, कविता, आलोचना, नाटक, इतिहास,संस्कृति, पत्रकारिता, समाजशास्त्र और अर्थतंत्र जैसी विधाओं में अपनी लेखनी से वंचित जमात के पक्ष में जबरदस्त हस्तक्षेप किया। वे अपने धारदार लेखन से सामाजिक सरोकारों को हाशिए से केंद्र की ओर लाने में सफल रहे। सड़क पर लड़ी जा रही जनपक्षीय लड़ाई में वे हमेशा अग्रिम पंक्ति में खड़े रहे तथा समसामयिक राजनीति के मैदान में निर्भीक टिप्पणीकार के रूप में पहचाने जाते रहे।
मुद्राराक्षस का जन्म लखनऊ शहर के निकट बेहटा नामक गांव में 21 जून, 1933 ई. को शिवचरण लाल गुप्ता के घर में हुआ। इनके बचपन का नाम सुभाषचंद्र आर्य था। पिता शिवचरण लाल गुप्ता ने अपने बेटे का नाम उस दौर के प्रखर स्वतंत्रता सेनानी सुभाषचंद्र बोस के सम्मान में रखा था। गांव की ही प्राथमिक पाठशाला में चौथी कक्षा तक उनकी पढ़ाई-लिखाई हुई। अग्रेत्तर शिक्षा के लिए 1943 में वे अपने पिता के साथ लखनऊ आ गए, जहां उनका नामांकन सोहनलाल मुराई पाठशाला में हुआ। सन् 1950 में दसवीं पास करने के बाद वे डीएवी कालेज में नामांकित हुए, जहां से वे 12वीं की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। ।
साहित्य से लगाव उन्हें तभी से हो गया था। डीएवी कालेज के पुस्तकालय में हिंदी साहित्य का विपुल भंडार था। किशोर सुभाष उस लाइब्रेरी का लाभ एक जिज्ञासु छात्र के रूप में उठाने लगे थे। वर्ष 1952 में जब उनका नामांकन लखनऊ विश्वविद्यालय में हुआ, तबतक उनका रूझान हिंदी साहित्य की ओर काफी बढ़ गया था, वे लखनऊ के साहित्यिक गोष्ठियों का हिस्सा बनने लगे थे।
मुद्राराक्षस के पिता शिवचरण लाल गुप्ता उर्दू-फारसी के जानकार, शायर, लोकगायक, लोकनाट्य कलाकार और अच्छे तबलावादक थे। शिवचरण लाल जी हिन्दू महासभा से जुड़े हुए कट्टरपंथी विचारधारा के व्यक्ति थे। वे हिंदुत्व के समर्थन में-बढ़ चढ़कर भाषण दिया करते थे। पिता के विचारों और पारिवारिक वातावरण से भला युवा सुभाष कैसे अछूता रह सकता था!
कट्टर हिंदू युवा सुभाष जब कालेज गए तो वहां प्रगतिशील विचारों से लैस छात्रों से उनकी बौद्धिक मुठभेड़ें होने लगीं, जिसमें वे अकसर हार जाया करते थे। यहीं से उनके विचारों का परिष्कार होना शुरू हुआ और चिंतन प्रकिया में क्रांतिकारी बदलाव आया। अब वे विचारों को तर्क और विज्ञान की कसौटी पर कसने लगे थे तथा तथ्यों की गहन जांच-पड़ताल करते, तभी उसे स्वीकार करते।
बीसवीं सदी के छठे दशक का लखनऊ साहित्यिक गतिविधियों का बड़ा केंद्र था। देश अभी-अभी आजाद हुआ ही था। यशपाल, डॉ. देवराज, भगवतीचरण वर्मा, अमृतलाल नागर, कुँवर नारायण, डॉ. रघुवंश और धर्मवीर भारती जैसे शीर्षस्थ रचनाकारों की शिरकत से वहां की साहित्यिक गोष्ठियां बराबर गुलज़ार रहा करती थीं। ऐसी ही गोष्ठियों में शामिल होकर सुभाष विभिन्न विचारधाराओं को समझने की कोशिश करते रहते थे। उस कालखंड में उन्होंने कामरेड रामभरोसे यादव के प्रभाव में आकर मार्क्सवादी साहित्य का अध्ययन किया। वहीं शहर के नामी साहित्यकारों का सानिध्य पाकर साहित्य सृजन की ओर उन्मुख हुए।
सन् 1951 से उन्होंने लिखना शुरू किया और दो वर्षों की अल्पावधि में ही वे चर्चित लेखक हो गए थे। ‘युगचेतना’ नामक प्रसिद्ध पत्रिका में ‘मुद्राराक्षस’ के छद्मनाम से छपे उनके एक विवादास्पद लेख ने तो साहित्य जगत में हंगामा ही बरपा दिया था। हुआ यूं था कि उन दिनों अज्ञेय द्वारा संपादित ‘तारसप्तक’ नामक प्रयोगवाद के चर्चे साहित्यिक जगत में सरेआम हो रहे थे। हर कोई इसके पक्ष में कसीदे पढ़ रहा था। लेकिन युवा सुभाष ने अपने चर्चित लेख में अज्ञेय की तारसप्तक योजना पर विदेशी लेखकों की छाप होने का आरोप उदाहरण सहित लगाया था। वे अपनी वैचारिक गहनता तथा तेज और तुर्श लेखन की वजह से शीघ्र ही पहचान लिए गए। जल्द ही ‘मुद्राराक्षस’ नाम साहित्यिक जगत में चर्चित हो गया था। आगे चलकर यही छद्मनाम उनकी वास्तविक जीवन का स्थायी पहचान बनने वाला था। सुभाषचंद्र आर्य को दुनिया अब मुद्राराक्षस के नाम से जानने वाली थी। ‘युगचेतना’ के संपादक ने यह नाम विशाखदत्त रचित ऐतिहासिक नाटक ‘मुद्राराक्षस’ से लिया था। मुद्रा यानी मोहर और राक्षस यानी अडिग, अविचल। वे मृत्युपर्यन्त अपने नाम में स्थित अडिगता की भावना को वास्तविक रूप में चरितार्थ करते रहे, वंचितों-शोषितों के पक्ष में साहित्य से लेकर सड़क तक संघर्ष करते हुए अविचल रहे।
‘युगचेतना’ में छपे लेख ने मुद्राराक्षस को हिंदी साहित्य संसार में प्रसिद्ध कर दिया था। उन दिनों कलकत्ता से छपने वाली प्रसिद्ध पत्रिका ‘ज्ञानोदय’ ने 1955 में उन्हें सहायक संपादक का पद ऑफर किया तो वे कलकत्ता चले आए। वहां राजेन्द्र यादव जैसे साहित्यकारों से उनकी दोस्ती घनिष्ठता में बदलने वाली थी, जो उनके ही समवय थे। उन दोनों की जुगलबंदी ने ‘हंस’ के पुनर्प्रकाशन के दौर में दलित और स्त्री मुक्ति विमर्श को नई ऊंचाई प्रदान की। अभी मुद्राराक्षस की वैचारिकी और रचना संसार विस्तृत हो ही रहा था कि उन्होंने स्वतंत्र लेखन का निर्णय लेते हुए 1958 ई. में ‘ज्ञानोदय’ से इस्तीफा दे दिया। अपने लेखन को ऊंचाई देने के लिए वे अच्छी खासी सैलरी और संतुष्टि देने वाले काम को छोड़ने सहित कोई भी जोखिम लेने को तैयार थे। वहीं वर्ष 1960 में ‘अनुव्रत’ नामक पत्रिका के संपादन के सिलसिले में उन्हें कलकत्ता छोड़कर दिल्ली आना पड़ा।
मुद्राराक्षस 1962 में बतौर इन्सट्रक्टर और स्क्रिप्ट एडिटर आकाशवाणी के ड्रामा प्रोडक्शन विभाग से जुड़ गए। आकाशवाणी के साथ उनका यह सफर लगभग पंद्रह वर्षों तक चला। विविध भारती पर मुद्राराक्षस जी लिखित नाटकों के प्रसारण से उन्हें अपार लोकप्रियता हासिल हो रही थी( वहीं उनके द्वारा लिखित और निर्देशित नाटकों का मंचन प्रेक्षागृहों में विस्तार पा रहा था। उनके नाटकों में संपन्न वर्ग तथा शासन तंत्र के अमानवीय चेहरे को गहराई से उकेरा गया है। उनके नाटकों को निर्देशित करना तथा बतौर कलाकार उसका हिस्सा बनना निस्संदेह किसी पुरस्कार से कम नहीं होता था।
उनका लिखा एक नाटक ‘मरजीवा’ उन दिनों काफी चर्चित हुआ था। इस नाटक का नामकरण प्रसिद्ध साहित्यकार नागार्जुन ने किया था। इस नाटक में सत्ताधारियों की नृशंसता और निर्दयता के वीभत्स रूप को उजागर किया गया है। इसी शैली का उनका दूसरा बहुचर्चित नाटक ‘तिलचट्टा’ था, जिसमें नसीरुद्दीन शाह और पंकज कपूर जैसे कलाकारों ने काम किया था। उनका तीसरा बहुचर्चित नाटक ‘आला अफसर’ था जिसके कारण उन्हें आकाशवाणी से त्यागपत्र देना पड़ा। ‘आला अफसर’ रूसी नाटककार निकोलाई गोगोल के नाटक ‘द गवर्नमेंट इन्सपेक्टर’ की पुनर्रचना थी। इस नाटक में आम आदमी और भ्रष्ट शासनतंत्र के रिश्ते की विद्रुपता को तीखेपन से उजागर करते हुए जोरदार कटाक्ष किया गया था।
आपातकाल के दौर में आकाशवाणी में रहते हुए सरकार के खिलाफ बिगुल फूंकना खतरे से खाली नहीं था। साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र के वे चुनिंदा लोगों में शामिल थे, जो सरकार के तानाशाही रवैया का विरोध कर रहे थे। नाटक मंचन से कुपित तत्कालीन सरकार ने 1976 में उनका स्थानांतरण इंदौर कर दिया तो वे इस्तीफा देकर अपने पैतृक शहर लखनऊ लौट आए। लेकिन अपने वैचारिकी और स्वाभिमान से कभी समझौता नहीं किया।
‘मरजीवा’, ‘योर्स फेथफुली’, ‘तेंदुआ’, ‘तिलचट्टा’, ‘गुफाएं’, ‘आला अफसर’ और ‘डाकू’ सहित उन्होंने कुल तेरह नाटक लिखे और तीस के करीब नाटकों का सफल मंचीय निर्देशन किया। उनके नाटकों में आम आदमी की पीड़ा को हमेशा केंद्र में स्थान हासिल होता रहा। उन्होंने नई रंगभाषा का विकास किया जो जीवंत, तीक्ष्ण और संगीतमय था। वे कुछ चुनिंदा कलाकारों में से थे, जिन्होंने सामाजिक उत्तरदायित्वों का बखूबी निर्वहन किया है।
मुद्राराक्षस की वैचारिकी का निर्माण उनके कालेज के दिनों में ही आकार लेने लगा था। वे मार्क्सवाद से खासा प्रभावित थे। लखनऊ के एक बैठक में सत्यदेव द्वारा प्रस्तुत एक लेख ‘जनकल्याणकारी राजव्यवस्था’ पर हुई लंबी बहस ने उन्हें खासा प्रभावित किया था। जल्द ही वे इस विचारधारा से गहरे रूप से जुड़ गए। वे छात्र परिसंघ के सदस्य भी बने थे। लेकिन वे इस विचारधारा के प्रति लगातार प्रश्नाकुल भी रहे कि प्रगतिवाद मेरी या मेरे परिवार की शूद्रवाद से मुक्ति की लड़ाई क्यों नहीं लड़ता है! डॉ. राम मनोहर लोहिया जाति तोड़ो आंदोलन के सिलसिले में एक बार कलकत्ता आए हुए थे। मुद्राराक्षसइस अभियान में लोहिया के साथ हो लिए। लोहिया की भाषण शैली ने उन्हें खासा प्रभावित किया था, लेकिन जल्द ही उन्हें लोहिया की सीमाओं का पता चल गया था। लोहिया हिंदू धर्मग्रंथों की सीमा के पार जाने से बच रहे थे और उन ग्रंथों की आलोचना से भी। जबकि उन्हें जो हिंदू धर्मग्रंथ परिवार में पढ़ने को मिले थे उनमें उनकी जाति सहित बड़ी आबादी को नीच और घृणित माना गया था।
उन्हें लोहिया की बातों में बुनियादी तौर पर आर्यसमाजियों से अलग कुछ नहीं दिखाई दिया। वे समझ गए थे धर्मग्रंथों की समालोचना किए बगैर जाति से मुक्ति का रास्ता नहीं निकल सकता है। बाद के दिनों में उन्होंने ‘धर्मग्रंथों का पुनर्पाठ’ नामक आलोचनात्मक पुस्तक की रचना की। इस पुस्तक में उन्होंने पुरोहितवाद के आधार ग्रंथों की विसंगतियों को उजागर कर पाखंडवाद की हवा निकाल दी है। जाति का विनाश के प्रश्न पर वे अंबेडकर के विचारों से सहमत थे और अपने लेखन में उनकी सोच के साथ खड़े दिखाई देते हैं।
अफ्रीकी लेखक फ्रैंज फ़ैनन को उद्धृत करते हुए ‘नारकीय’ नामक उपन्यास में मुद्राराक्षस लिखते हैं, “आदमी के चमड़ी के काले रंग को खतरनाक प्रवृत्तियों, पाप और निंदनीय काम से जोड़ दिया गया है। काला आदमी अपनी चमड़ी से भय खाता है, उससे घृणा करता है।” उनका मानना था कि भारत की बहुसंख्यक आबादी के लिए यह तथ्य उतना ही सच है, जितना अफ्रीकियों के लिए। उनके पिता शिवचरण लाल गुप्ता जो एक महान लोक कलाकार थे, उनको सवर्ण रचना संसार में इसलिए उचित अवसर और सम्मान नहीं मिला क्योंकि वे शूद्र एवं पिछड़ी जाति ‘सोनार’ के थे।
मुद्राराक्षस अपने पिता के जीवन में फैले शूद्रवाद से उपजे हताशा की नियति को अपने क्रांतिकारी लेखन से पलट देना चाहते थे। उनके वैचारिकी निर्माण में मार्क्सवाद, लोहियावाद, आंबेडकर के चिंतन और बौद्ध दर्शन का गहरा प्रभाव था। बकौल आलोचक वीरेंद्र यादव– “मार्क्स, लोहिया और अम्बेडकर उनके बौद्धिक प्रेरणा स्रोत अवश्य थे लेकिन अपनी संशयालु आलोचनात्मक दृष्टि के चलते वे इन सभी विचार सरणियों के बीच से अपनी अलग बौद्धिक राह बनाने के कायल थे।”
हालांकि मुद्राराक्षस की रचनाएं सन् 1951 से ही छपनी शुरू हुई थीं, लेकिन आपातकाल के बाद ही उनकी रचनात्मकता और वैचारिकता में नया उठान आया। अनेक विधाओं में उनकी करीब 65 रचनाएं प्रकाशित हैं। ‘हम सब मनसाराम’, ‘शांति भंग’ और ‘दंडविधान’ जैसी रचनाओं के माध्यम से दलित, स्त्री और अल्पसंख्यक सहित हाशिए के समाज को हिंदी रचना संसार में केंद्रीय स्थान दिलाने में सफल रहे। समालोचक वीरेंद्र यादव लिखते हैं– “‘अर्द्धवृत’ नामक उपन्यास मुद्राराक्षस की अभिनव कहन शैली और प्रयोगधर्मिता का बेजोड़ उदाहरण है। इस उपन्यास की काल्पनिक कहानी में तर्कशीलता और रूढ़िभंजक विचारधारा के साथ-साथ उनके जीवन के भोगे यथार्थ का बिंब स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होते हैं।”
इस उपन्यास के ‘कसाईबाड़े’ नामक अध्याय में उन्होंने हिंदुत्व की जबरदस्त कपाल क्रिया की है। ‘नारकीय’ उपन्यास मुद्राराक्षस की लंबी लेखकीय यात्रा के रंग-बिरंगे अनुभवों पर आधारित है। ‘दृष्टिवाधा’ नामक रचना में उन्होंने वामपंथ को प्रश्नांकित करते हुए अच्छी खोज-खबर ली है।
मुद्राराक्षस की कहानी ‘युसुफ मियाँ की मृत्यु और प्रधानमंत्री का पानी’ में सब्जी विक्रेता युसुफ मियांदेश की अभावग्रस्त निरीह जनता का प्रतिनिधि है, जो नेताओं द्वारा किए जा रहे सरकारी धन के बंदरबांट को देखने और अभाव में घुटकर मरने को अभिशप्त है। दलित समुदाय से आने वाले मुसहर जाति पर केंद्रित उपन्यास ‘दंड विधान’ उन्होंने तब लिखा था जब हिंदी साहित्य में दलित विमर्श की आमद भी नहीं हुई थी। कालेज के दिनों में एक बार यशपाल के यहां उन्हें चाय नहीं मिली थी। इस घटना से व्यथित होकर उन्होंने एक लंबी कविता लिखी थी। उनकी कविताएं वास्तविक दुनिया की समस्याओं से लगातार मुठभेड़ करती हैं। मुद्राराक्षस का लेखन गैर-पारंपरिक और अनूठा है। उन्होंने किसी भी परंपरा का अनुसरण नहीं किया, बल्कि अपनी खुद की शैली विकसित की जो कि हर मौलिक रचनाकार का धर्म होता है।
साहित्य के अतिरिक्त समाज और राजनीति से उनका गहरा नातेदारी रही है। सामाजिक सरोकारों से उपजे आंदोलनों से जुड़े बगैर वे जी नहीं सकते थे। वे विभिन्न सामयिक और सामाजिक मुद्दों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर लिखते रहे। लेख और स्तंभ में उनके विचार पूँजीवादी सत्ता संरचना के छल और जातिगत भेदभाव के खिलाफ आक्रामक तेवर के रूप में प्रगट होते थे। अभिव्यक्ति की आज़ादी, सांप्रदायिकता, जातिवाद और महिला अधिकार जैसे गंभीर मुद्दों पर वे बेबाकी भरे राय के लिए जाने जाते थे। मुद्राराक्षस छात्र जीवन में ही वामपंथ की राजनीति से गहरे रूप में जुड़ गए थे। आकाशवाणी में काम करते हुए उन्होंने वहाँ के कर्मचारियों के हितपोषण के लिए ट्रेड यूनियन का गठन किया था। इस संगठन से उनका जुड़ाव इस हद तक था कि वे इस संगठन को समय देने के लिए नाटकों का निर्देशन छोड़ने के लिए तैयार थे। उनके नेतृत्व में आकाशवाणी के कर्मचारी संगठन ने कर्मचारियों की आर्थिक स्थिति में परिवर्तन लाने में सफलता हासिल की।
राजनीति और विवादों से उनका गहरा नाता था। वे आलोचना की धार से किसी को भी नहीं बख्शते थे, चाहे गांधी हों, नेहरू हों या प्रेमचंद। एक दौर ऐसा भी रहा जब वे कम्युनिस्ट नेता श्रीपाद डांगे और राममनोहर लोहिया के सीधे संपर्क में थे। पूर्व प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह और विष्णुकांत शास्त्री से उनकी घनिष्ठ मित्रता रही। सत्ता के चरित्र के विरोध में वे प्रतीकात्मक रूप में चुनाव भी लड़े लेकिन असफल रहे। सत्ता का मुखापेक्षी होना उनके स्वभाव में नहीं था। नक्सलियों से सांठगांठ के आरोप में उनकी जासूसी भी की गई। वे लिखते हैं– “मैं खुद विवादों से बचता हूं, लेकिन कुछ बातें ऐसी हो जाती हैं जो विवादास्पद हो जाती हैं।” स्त्री, दलित मुक्ति और जातिगत भेदभाव के प्रश्न को वामपंथियों द्वारा कमतर बताए जाने को वे धोखा मानते थे। उनके पुत्र रोमेल याद करते हुए लिखते हैं– “मुद्रा जी का जीवन, शब्द और कर्म की एकता के अनुपम उदाहरण रहे हैं। मुद्रा जी की लेखकीय वैचारिक ताप से हिंदी साहित्य और रंगमंच लाभान्वित होता रहा लेकिन खुद उस आग में झुलसते रहे।” उनकी ख्याति एक ऐसे चिंतक की रही जिसने समरस समाज की स्थापना के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पित कर दिया। स्वतंत्र लेखन ही उनकी जीविका का एकमात्र साधन था। जब उन्हें केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिला, तो उनके बोल थे– “हाँ,अच्छा हुआ कुछ पैसे मिल गए! इससे पत्नी (इंदिरा) का इलाज हो जाएगा।”
उन्हें केन्द्रीय ‘संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार’ के अलावा ‘साहित्य भूषण’, ‘लोकनाट्य शिरोमणि’, ‘शूद्राचार्य’, ‘दलित रत्न’ सहित अनेक सम्मान और पुरस्कारों से नवाजा गया। वे ऐसे पहले साहित्यकार थे जिन्हें जनसंगठनों ने सिक्कों से तौलकर सम्मानित किया था। बहुत कम ऐसे साहित्यकार हुए हैं, जिन्होंने सभी साहित्यिक विधाओं में समान अधिकार से लिखा है। प्रो. सतेन्द्र तनेजा लिखते हैं– “मुद्राराक्षस की बहुमुखी प्रतिभा संस्कृति के क्षेत्र में प्रचलित विभिन्न विचारों की टकराहट से विकसित हुई थी।” मुद्राराक्षस का साहित्य वर्चस्व की संस्कृति और समाज के समानांतर वंचितों के पक्ष में प्रश्नाकुल संसार हैं। वे समाज, समय और संस्कृति के अप्रतिम व्याख्याकार थे। सामाजिक रूढियों और धार्मिक कर्मकांडों की धज्जियाँ उड़ाने वाले अग्रणी रचनाकार थे। उन्होंने बड़े-बड़े अवसरों को ठुकरा दिया और सत्ता के गलीचों को लात मार दी। परेशानियों को झेल लिया लेकिन वे कभी न तो झूके और न ही बिके।
मुद्राराक्षस की रचनाओं का अंग्रेजी, रूसी और फ्रेंच सहित कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है। जनसरोकारों के संघर्ष से जुड़ने के लिए विख्यात मुद्राराक्षस जी को लोक कलाओं और संगीत का अद्भुत ज्ञान था। वे सिद्धहस्त मूर्तिकार भी थे। टूटे हुए फर्नीचर की लकड़ियों को खूबसूरत मूर्तियों में ढाल देना उनकी खासियत थी। खाली समय में वे पेंटिंग में भी हाथ आजमाते थे। पौधों और पालतू जानवरों से उनका प्रेम बड़ा ही अनोखा था।
पिछडे़-दलित समाज से निकले नेतृत्व वर्ग का ब्राह्मणों जैसा सामाजिक व्यवहार उन्हें कचोटता था। वे चाहते थे कि ये नेतृत्व वर्ग अपनी चेतना का इस्तेमाल बहुजनों की ब्राह्मणवादी सोच से मुक्ति के लिए करें। मीडिया के सांप्रदायिक चेहरे से वे खिन्न रहते थे। बहुजन कलाकारों की आर्थिक समस्याओं के पीछे वे जातिवाद मीडिया के छल को जिम्मेदार मानते थे। वे बहुजन प्रेरणा स्थल निर्माण के हिमायती थे। बिगड़ते स्वास्थ्य के चलते घर में कैद हो जाने की मजबूरी में भी वे देश पर गहराते सांस्कृतिक-राजनीतिक संकट से खासे बेचैन रहते थे।
इक्कीसवीं सदी के उथल-पुथल भरे इस दूसरे दशक में जब टेक्नोलॉजी पर सवार धर्मांधता और जातिवाद नए रूप में अपना फन फैला रहा है, छद्म राष्ट्रवाद के नारों से वातावरण कलुषित हो रहा है,हमें मुद्राराक्षस जैसे दिलेर रहबर की सख्त जरूरत थी। ऐसे ही कठिन दौर में वृद्धावस्था जनित रोग के कारण 13 जून, 2016 को 82 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। साहित्य और संस्कृति क्षेत्र के अनमोल चितरे हमेशा के लिए आँखों से ओझल हो गया। अपनी रचनात्मक गहनता, सामाजिक मुद्दों के लिए विद्रोही तेवर, निडरता और प्रतिवादी स्वर के लिए इस जाबांज योद्धा का नाम हमेशा आदर के साथ लिया जाएगा। मुद्राराक्षस को श्रद्धांजलि व्यक्त करते हुए प्रसिद्ध आलोचक वीरेंद्र यादव लिखते हैं– “मुद्राराक्षस जी का देहावसान हिंदी के बौद्धिक जगत को ही नहीं बल्कि बृहत्तर हाशिए के समाज को भी जिस गहराई तक व्यथित कर गया है, वह विरल है।”
संदर्भ :
- मुद्राराक्षस: साहित्य वीथिका, लेखक- रोमेल मुद्राराक्षस
- नारकीय (उपन्यास), लेखक- मुद्राराक्षस
- मति का धीर: मुद्राराक्षस, संतोष अर्श, समालोचन, 15जून, 2016
- रूढ़िभंजक मुद्राराक्षस, दिवान सिंह बजेली, रंगविमर्श ब्लाग पोस्ट डाट कॉम, 28 जून, 2016
- एक सतत विद्रोही स्वर: मुद्राराक्षस, वीरेंद्र यादव, हस्तक्षेप, 23 मार्च, 2019
- साक्षात्कार: मुद्राराक्षस, अशोक दास, दलित दस्तक डाट कॉम
- मुद्राराक्षस, भारत कोश
(संपादक: नवल)
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