स्मृति शेष : सुजाता पारमिता (20 मार्च, 1955 – 6 जून, 2021)
कोई भी दुर्घटना फिर चाहे वह छोटी हो या बड़ी, हमसे बहुत कुछ छीन लेती है। कोरोना के इस दौर में एक-एक कर साथी जुदा हो रहे हैं। गत 6 जून, 2021 को सुजाता पारमिता का नाम भी ऐसे साथियों की सूची में पिछले सप्ताह दर्ज हो गया। आज वह हमारे बीच नहीं है, हैं तो सिर्फ उसकी यादें। उसके जुड़ी यादें, मुलाकातों का दौर, किस्से, कहानियां, जो हमेशा साथ रहते हैं और रहेंगे भी। जीवन यही है, जहां सुखद और दुःखद चित्र होने लाजमी होते हैं।
सुजाता यानी सुजाता सिंह से सुजाता पारमिता। जीवन के अंतिम दशक में उन्होंने यह उपनाम लगाया था। क्यों पारमिता उपनाम प्रयोग किया, यह तो वही जाने। उसका व्यक्तित्व कुछ ऐसा था कि वह चर्चाओं के केंद्र में रहती थी।
सुजाता शुरू से ही बिंदास थी। हर बाधा से मुक्त होना चाहती थी। जैसे नदी को पसंद नहीं होता है कि उस पर कोई बांध बने। वैसे ही वह भी थी। उसे भी पसंद नहीं था कि उसपर कोई बंदिश लगाये, उसके हर काम पर टोका-टाकी करे। जिस रास्ते को उसने चुना, उस पर वह आगे बढ़े। हिदायतें तो परिवार की तरफ से बहुत-सी थीं, लेकिन वह ध्यान नहीं देती थी।
सुजाता की मां कौशल्या बैसंत्री, समाजसेवी और लेखिका थीं। उनकी आत्मकथा – ‘दोहरा अभिशाप’ पितृसत्ता और सांस्कृतिक जड़ता से विद्रोह था। मां संघर्ष से होकर आई थी। फिर बेटी भी कैसे पीछे रहती। संघर्ष तो उसे भी करना ही था। इसलिए कि अपने जीवन की राह उसे स्वयं निर्माण करनी थी। उसके पिता सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में कार्यरत थे। नाम था देवेंद्र कुमार। मां ने अंतरजातीय विवाह किया था। और बेटी ने भी। अंतर इतना था कि देवेंद्र कुमार ओबीसी वर्ग के थे, और सुजाता के पति कुलप्रीत सिक्ख राजपूत थे।
स्वयं सुजाता के शब्दों में, “पहले मैंने जब कत्थक सीखा, तब पिता ने विरोध किया। दुःखद आश्चर्य होता है, एक तरफ वे स्त्री-शिक्षा पर कार्य करते थे दूसरी ओर अपने ही घर की छत के नीचे अपनी ही बेटी का विरोध भी करते थे। मजबूर होकर कत्थक डांस छोड़ना पड़ा।”
बिहार से ट्रांसफर हुआ तो उसके पिता ने दिल्ली में आकाशवाणी में ज्वाइन किया। सुजाता को नया परिवेश मिला, नये मित्र मिले। जीवन में नई आशाओं का संचार हुआ। उन्होंने स्वयं आकाशवाणी में आर्टिस्ट के रूप में भी कार्य किया, पर दिल्ली में भी उनके पिता को सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेना अच्छा नहीं लगता था। हालांकि वे बेटों को आजादी देते थे, परंतु बेटी पर शिकंजा कसते थे। पिता की नज़रों में उनकी बेटी आवारा हो चली थी, सड़कों पर घूमती थी, जो उन्हें पसंद नहीं था।
संभवतः सुजाता से मेरी मुलाकात मुनिरका नई दिल्ली के डीडीए फ्लैट में हुई थी। स्वयं उनकी मां कौशल्या ने मुझसे मिलवाया था। यह 70 के दशक के मध्य की बात थी। बैसंत्री जी उन दिनों सामाजिक गतिविधियों में रुचि लेने लगी थीं। उन्होंने दिल्ली में रहते हुए ‘महिला समता समाज’ के नाम से चेतना के कार्यक्रम चलाए। परंतु बेटी को जैसे अपनी अलग राह चुननी थी। उसकी रुचि फिल्म और नाटक में थी। 1974 में वह पूना चली गई, जहां फिल्म इंस्टीट्यूट में रहते हुए अभिनय में दो वर्ष का डिप्लोमा किया।
यहां तक सब कुछ अच्छा ही चल रहा था। सुजाता के पास उड़ान भरने के लिए सारा आकाश था। वह तमाम दुष्परंपराओं और प्रथाओं से मुक्ति चाहती थी, जो लड़कियों को उड़ने से रोकती हैं। तभी बेटी को पिता का पत्र मिला। उन्होंने लिखा था, “मैं तुम्हें सपोर्ट नहीं करूंगा। बेहतर होगा कि नौकरी करो या शादी।” बंबई का जीवन बड़ा मुश्किल होता है। ऐसी स्थिति में सुजाता को विवाह करना पड़ा।
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फिर 1976 में वह बंबई से दिल्ली आ गई, लेकिन 1979 में फिर बंबई चली गई। पांच सितारा होटल सेंटूर में रेडीमेड कपड़ों की दुकान के लिए आवदेन करना था। आरक्षित कोटे से दुकान मिल गई। इस बीच 1998 में उसका तलाक हो गया।
वहीं 1982 में दिल्ली के एक पांच सितारा होटल में भी दुकान मिल गई। और वह दिल्ली आ गई। इस बीच पति से सुलह हो गई। बंबई की दुकान वह देखने लगा। दिल्ली में सुजाता को आर्थिक झमेलों से थोड़ी मुक्ति मिली और उसकी रुचि सामाजिक गतिविधियों में बढ़ने लगी।
दिल्ली में 1980 के दशक में दलित थिएटर की शुरुआत हो गई थी। स्वयं मेरे द्वारा लिखित ‘हैलो कामरेड’ की कई प्रस्तुति हुई थी। अन्य साथी भी रंगमंच से जुड़ने लगे थे। दिल्ली में उन दिनों वह गोल मार्केट के पास फ्लैट में रहती थी। दिल्ली में रहते हुए सुजाता ने ‘आह्वान’ थिएटर की स्थापना की थी और ब्लैक नाटक ‘म्युलैटो’ के साथ ‘बकरी’ नाटक का मंचन किया था। ‘म्युलैटो’ का मंचन स्वयं सुजाता सिंह के निर्देशन में 14 और 15 मई, 1986 को नई दिल्ली के ‘कमानी ऑडिटोरियम’ में हुआ था। ‘म्युलैटो’ अमेरिकन ब्लैक साहित्य के आधार स्तंभ लैंगस्टन ह्यूजेस के द्वारा लिखा गया नाटक था। उनका जन्म 1 फरवरी, 1902 में अमेरिका के मसूरी शहर में हुआ था। श्याम वर्णीय (कलर या रेस) होने के कारण उन्हें बेहद संघर्षमय दौर से गुजरना पड़ा था। मराठी लेखक त्र्यंबक महाजन ने इस नाटक का हिंदी में अनुवाद किया था। ‘देवदासी’ का मंचन 27 मई 1985 को डॉ. बी. आर. आंबेडकर की 14वीं वर्षगांठ के अवसर पर श्रीराम सेंटर प्रेक्षागृह में ‘आह्वान’ के कलाकारों द्वारा किया गया था। निर्देशिका थी सुजाता सिंह।
प्रेमानंद गज्वी लिखित और सुजाता सिंह तथा यशवंत निकोसे द्वारा नाट्य रूपांतरित इस नाटक में जिस ज्वलंत सामाजिक समस्या के कटु यथार्थ को दर्शकों के सामने रखा गया है वह अंदर तक झकझोर देता है। दलित वर्ग का अंधविश्वास, उसकी आर्थिक-सामाजिक विवशता तथा पुजारियों और कथित संभ्रांत वर्ग की कुटिलता एक ऐसे सत्य को रेखांकित करती है कि सभ्य आदमी को अपने पर शर्म आने लगती है।
इस बीच 1980 का दशक खत्म होते-होते सुजाता फिर बंबई चली गई। दिल्ली उसे रास नहीं आ रही थी। यहां वह छटपटा रही थी। कभी अतीत की स्मृतियों में खो जाती, कभी भविष्य के बारे में सोचती। जैसे अंधेरे में उजाले की किरणों को तलाश करती। स्वयं उन्होंने अपनी आपबीती में संक्षिप्त रूप से (मेरे जीवन का बयान) लिखा, “अंततः मुझे रास्ता मिला। मैंने विजडम ट्री फाउंडेशन की स्थापना की। मधुबनी पेंटिंग पर काम किया। दलित महिलाओं की पेंटिंग्स आदि का संकलन किया। पर मेरी सबसे बड़ी परेशानी शारीरिक बीमारी थी।” (‘बयान’ के दलित अस्मिता विशेषांक, मार्च 2007 में प्रकाशित) हालांकि बीमारी मानसिक भी थी, जो वह कम ही बयान करती थी।
मेरे बंबई प्रवास में एक बार सुजाता ने हालांकि पति से तलाक हो गया था, फिर सुलह भी हुई। लेकिन संबंधों में मिठास न थी, दरारें थीं। फिर चुमकी जवान होने लगी थी। बेटी को वह चुमकी कहती थी। यही नहीं बेटी का मोह पिता से बढ़ने लगा था और मां से कम होने लगा था। यह भी दुविधा थी। अन्य दुविधाएं भी थीं, अभाव भी। मां की मृत्यु हो गई थी। भाइयों ने बहन से हाथ खींच लिये थे। पति से भी संबंध विषम थे। कोशिशें जारी थीं। नदी सूखे नहीं, पानी के साथ बहती रहे, पर नदी को अंततः सूखना ही था।
(संपादन : इमानुद्दीन/नवल)
(आलेख परिवर्द्धित : 14 जून, 2021 7:54 PM)
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