धर्म, संस्कृति, साहित्य और शासन के साथ प्रशासन का परस्पर गठबंधन अगर हो जाए तो बंदर को आदमी बना दिया जाता है। वह मनुष्य की भाषा बोलने लगता है। चूहे को गणेश का वाहन मान लिया जाता है। इसके अलावा और भी विभिन्न जानवरों को मनुष्य जाति का रिश्तेदार तक सिद्ध कर दिया जाता है। बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर ने गंभीर अध्ययन के बाद समाज हित में हिंदू धर्म की पहेलियों को सुलझा लिया था। गांधी ने जानबूझकर उन पहेलियों को हल करने का प्रयास नहीं किया। यहां सवाल उभरता है। ऐसा गांधी ने क्यों नहीं किया? वे हिंदू धर्म और वर्ण-व्यवस्था की तमाम जड़ताओं के प्रति मौन क्यों बने रहे?
जवाब में कहा जा सकता है कि गांधी हिंदू धर्म और वर्ण-व्यवस्था के हर पहलू पर विश्वास करते थे। इसीलिए परंपराओं, प्रथाओं और मान्यताओं के खिलाफ कभी एक शब्द भी बोला तक नहीं, भले ही वे कितनी भी समाज विरोधी रही हों। रामराज्य से हिंदू राष्ट्र की संकल्पना तक वे आंखें बंद कर सब कुछ स्वीकार करते रहे। ‘यंग इंडिया’ तथा ‘हरिजन’ पत्रों की पुरानी फाइलें अगर देखें तो गांधी को पूर्ण रूप में समझा जा सकता है और यह भी कि कैसे उनकी नजर में एक गाय की कीमत कई इंसानों की जान से अधिक थी।
आइये सदियों पहले गाय की पवित्रता के इतिहास के साथ राजाओं से लेकर राजाओं के गाय के प्रति व्यवहार का निरीक्षण करें।
ऐसा माना जाता है कि प्राचीन काल के ब्राह्मण वर्ग ने देश के लिए गाय के महत्व को समझते हुए उसे देवता के रूप में अपना लिया था। सिर्फ इतना ही नहीं, गाय का जीवन बचाने के लिए समाज में ऐसा भ्रम भी फैलाया गया कि गाय की सेवा करने वाले को देवता प्रसन्न होकर वरदान भी देते हैं। परिणामस्वरूप भारत के गैर ब्राह्मण भी गाय को पवित्र मानने लगे होंगे। 1921 की असेंबली में एक विद्वान हिंदू सदस्य ने इस विषय में इस प्रकार कहा कि किसी हिंदू को कोई आपत्ति नहीं हुई–
‘इसे आप चाहे पक्षपात कहें, धर्मांधता कहें या धर्म की पराकाष्ठा। पर, यह निस्संदेह सत्य है कि हिंदू हृदय में जितनी गहरी श्रद्धा गाय के प्रति है, उतनी किसी चीज के प्रति नहीं है।’
इसके बाद देखें गाय के प्रति भक्ति भाव बढ़ा या पंडितों/पुरोहितों के स्वार्थ में वृद्धि हुई कि गाय को मारना ब्रह्म-हत्या जैसा महापाप है। ऐसा जोर-शोर से प्रचार-प्रसार किया गया। यहां दिलचस्प, पर दुःखद उदाहरण देखें। उन दिनों ग्वालियर के महाराज नए बने रेलवे ट्रैक पर लोकोमोटिव इंजन चला रहे थे कि अचानक एक गाय ने ट्रैक पर छलांग लगा दी। इससे पहले कि वह इंजन को रोकते, गाय उसके नीचे आकर कटकर मर गई। वर्षों बाद उन्होंने इस संबंध में अपने मित्र को बताया था– ‘मुझे लगता है कि मैं प्रायश्चित, शुद्धिकरण और ब्राह्मणों को दान देकर भी कभी उस पाप से मुक्त नहीं हो सकूंगा।’
राजा हो अथवा किसान, वह उसकी पवित्र गोमाता है। मनुष्य की मृत्यु के समय घर में गाय होनी चाहिए, ताकि वह उसकी पूंछ पकड़कर अंतिम सांस ले सके। सिर्फ इसी कारण से गाय को हमेशा घर के भीतर तैयार रखा जाता है। कहा जाता है कि जब कश्मीर के पूर्व महाराज मरने वाले थे, तो उनके लिए गाय लाई गई। कहा जाता है कि उनके कक्ष तक जाने के लिए किसी भी तरह तैयार नहीं हुई, तो तुरंत महाराजा को ही गाय के निकट लाया गया; जो उनकी आत्मा की मुक्ति के लिए आवश्यक था।
अब इसे चलन कहें या अंधविश्वास लेकिन हकीकत यही कि गाय के प्रति लोगों में भक्तिभाव बढ़ने लगा था। गोमाता नाम शायद इसीलिए पड़ा हो। इन सबसे एक फायदा यह हुआ कि मंदिरों, मठों और आश्रमों में गायों की संख्या बढ़ने लगी। ब्राह्मण के घर पर गाय का होना तो जरूरी हो ही गया था। भक्त लोगों के साथ श्राप से मुक्ति पाने वाले गाय मुहैया कराते थे।
बावजूद इसके कि यहां गाय को गोमाता बना दिया, देश में गायों की स्थिति आरंभ से ही अच्छी नहीं रही। बिल्कुल महिला की तरह, एक तरफ उसे देवी बना दिया गया, दूसरी ओर उसकी स्थिति बांदी रखैल और नौकरानी की तरह हो गई। जबकि विदेश में ऐसा नहीं है। न वहां गाय की पूजा की जाती है और ना ही महिलाओं को देवी बनाया जाता है। इस बारे में मि. देसाई लिखते हैं–
‘जैसे इटली में गाय एक मूल्यवान संपत्ति समझी जाती है, वहां उसकी सेवा प्यार से की जाती है। जबकि भारत में वह केवल पूजा की वस्तु है। इसलिए उसे जनता के बीच ऐसे मैदानों में खड़े रहने और भूखों मरने के लिए छोड़ दिया जाता है, जिन्हें चारागाह भी नहीं कहा जा सकता।’
गांधी ने ‘यंग इंडिया’, 5 नवंबर 1925 में लिखा है– ‘हम भूल जाते हैं कि मुसलमानों द्वारा कुर्बानी के लिए मारी गई हजारों गायें व्यापार के मकसद से मारी जाती हैं। इन गायों के स्वामी हिंदू होते हैं। यदि वे हिंदू अपनी गायों को बेचने से मना कर दें, तो कसाइयों का यह व्यापार बंद हो जाएगा।’
इस मुख्य लेख के प्रकाशन के चार सप्ताह बाद गांधी बंगाल और मध्य प्रांतों में काम कर रही इंडियन इंडस्ट्रियल कमेटी की रिपोर्ट से कुछ तथ्यों को उद्धृत करते हुए फिर इस विषय पर लिखते हैं। गोमांस और खाल के लिए गायों को व्यवसायिक रूप से काटने पर सुनवाई हुई। जांच समिति इंडस्ट्री के आसपास मौजूद हिंदुओं के रवैये के संबंध में पूछती है–
‘ये बूचड़खाने यहां के लोगों में क्या भावनाएं जगाते हैं?’
एक व्यक्ति उत्तर देता है–
‘ये बूचड़खाने यहां के लोगों में लालच की भावनायें जगाते हैं, क्रोध की नहीं। मुझे लगता है कि इन बाड़ों में आपको नगरपालिका के भी बहुत-से सदस्य साझेदार के रूप में मिल जाएंगे। इनमें ब्राह्मणों और हिंदुओं की भी साझेदारी मिल जाएगी।’
गाय से सम्बन्धित हिंदुओं की उदारता या प्रेम के बारे में अगर हम मिस कैथरीन मेयो का यह बयान पढ़ें तो तस्वीर और स्पष्ट होती है। हालांकि इस बारे में उदाहरण देने की जरूरत नहीं कि विशेषरूप से गायों को भूखा प्यासा रख तथा उनसे आय कमाने वाले हिंदू कितने क्रूर होते हैं।
‘हम पश्चिम के लोगों को यही खतरनाक गलतफहमी बनी हुई है कि भारतीय लोग कल्पना से किसी शब्द या विचार का जो चित्र मन में बना लेते हैं, वही उसके और हमारे लिए महत्वपूर्ण होता है। अंग्रेज अपनी सुविधा से हमें इस गलती में सहायता करते हैं। हम यह मानते हैं कि जैसी उसकी भाषा है, वैसा ही उसका विचार है। उदाहरण के लिए, वह कहता है कि वह सभी जीवों का सम्मान करता है और सभी जानवरों के प्रति स्नेह से भरा है। वह अमेरिका में बोलते हुए इस दिशा में हिंदुओं के संवेदनशील संस्कारों पर भाषण देता है और हमारी भौतिक सांसारिकता से अपनी अनिच्छा तथा अपनी महत्वपूर्ण धार्मिक एकता पर हमारी अनभिज्ञता के बारे में बताता है।
‘किन्तु, यदि आपको इन सारे शब्दों से यह लगता है कि भारत का औसत हिंदू पशु जीवन के प्रति वह भाव दिखाता है, जिसे सहृदयता कहते हैं, तो आप सच्चाई से दूर हैं।’
यहां यह बताना जरूरी होगा कि विशेष रूप से मुस्लिम लोगों के साथ वैमनस्य होने के अलावा हिंदुओं का लगभग वैसा ही व्यवहार दलितों के साथ भी रहा। इसका जिक्र हम पहले भी कर चुके हैं कि गाय से बढ़कर दलितों की जान की कीमत नहीं थी। जब हम गाय और दलितों के संदर्भ में हिंदुओं के अत्याचार दलित जनों पर देखते हैं तो गांधी वहां मौन रहते हैं।
आइए ‘गाय बचाओ आंदोलन’ की शुरुआत का इतिहास देखें। रामनारायण रावत लिखते हैं–
‘देखा जाए तो उत्तर प्रदेश के पूर्वी क्षेत्रों में बहुत पहले से ही (1892-93) गोरक्षा सभा आदि के रूप में हिंदू जन के बीच आंदोलन शुरू हो गया था। जैसा वे बतलाते हैं कि इस बारे में मुसलमान और दलितों (विशेषरूप से चमार) को गाय का दुश्मन मान लिया गया। यहां उन्होंने पवित्र गाय लिखा है।’’
इसी बारे में बलदेव चौबे का आलेख देखें। उनके आलेख का शीर्षक है– ‘गो रक्षा और अछूत जातियां’। वे अपने आलेख में गोकशी के लिए चमार जाति के लोगों को जिम्मेदार मानते हुए लिखते हैं कि चमारों की यह संस्कृति और परंपरा है कि वे सभी तरह के जानवरों का मांस खाते हैं। यहां तक कि गाय का मांस भी। जन्म से ही चमार गंदे और दूषित होते हैं। गाय माता के प्रति उनमें श्रद्धा भाव नहीं है। इस बारे में ज्ञानेन्द्र पाण्डे ने लिखा भी है कि अनेक बार हिंदुओं ने दलितों पर हमले भी किये। ज्ञानेन्द्र पाण्डे के अनुसार गाय पवित्र है और दलित अपवित्र है। इसी विचार ने सवर्णों को सिखाया कि वे दलितों पर हमले करें, उन्हें जान से मारें व उनके घर जलाएं। मनु ने तो बहुत पहले यह सब सिखाया ही था।
हां, गांधी का इसमें कोई दखल नहीं था। कभी उन्होंने इस बारे में सत्याग्रह किया हो, ऐसा हमें उदाहरण नहीं मिलता। बल्कि गांधी लिखते हैं, ‘उस देश में, जहां गाय की पूजा होती है, वहां तो किसी पशु को कोई कष्ट होना ही नहीं चाहिए।’
गांधी का यह विचार एक जानवर के बारे में रहा है। जबकि दलितों के बारे में वे कोरी सहानुभूति का प्रदर्शन भी नहीं करते थे। उनके लिए हरिजन सीढ़ी का अंतिम पायदान था, जिस पर चढ़कर सवर्ण नेता उन्नति के शिखर पर चढ़ते गए। पर दलित वहीं रहे। आजादी से पहले ऐसे बहुत-से उदाहरण दिए जा सकते हैं, जब गाय के बहाने दलितों को मारा गया। एक नहीं, दो नहीं, चार-चार-पांच-पांच की सामूहिक हत्या की गई। अखबारों में ऐसे बहुत-से समाचार दफ्न हो गए हैं।
आजादी के बाद भी विशेष रूप से गुजरात और हरियाणा में ऐसी घटनाएं होती रही हैं। जब गाय को मारने के बहाने या गाय की खाल ले जाने के कारण दलितों की पीट-पीट कर हत्या कर दी गई। ऐसे समय पर न गांधी के अनुयायियों ने दलितों को बचाया और ना ही अन्य किसी सवर्ण नेता ने। यहां तक कि संसद और विधानसभाओं में भी ऐसे सवालों को लेकर गूंज नहीं सुनाई दी। हां, गाय को वेद, पुराण तथा शास्त्रों से जरूर जोड़ दिया गया, जिससे बाबा रामदेव, मेनका गांधी, ऋतंभरा, उमा देवी और न जाने किन-किन के आश्रमों में गाय के नाम पर सरकारी मदद तो मिली ही, साथ ही सवर्ण व्यापारियों के द्वारा चंदा भी दिया गया।
इधर के दिनों में भाजपा के प्रवक्ता संबित पात्रा ने एक बार न्यूज चैनल पर हुई बहस के दौरान बयान दे दिया कि गाय का गोबर ‘कोहिनूर’ से भी अधिक कीमती है। परिणामस्वरूप अन्य सवर्ण नेताओं ने भी गोमूत्र तथा गोबर का महिमामंडन कर डाला। कुछ लोग गाय का मूत्र पीते हुए देखे गए तो कुछ गोबर लगा कर नहाते हुए। कहना न होगा कि गोबर के बारे में तरह-तरह के प्रयोग होने शुरू हुए। लगा जैसे धर्म तंत्र ने प्रजातंत्र को असफल कर दिया हो। विचार के स्थान पर प्रथाओं और रीति-रिवाज हावी होते गए। द्विजवादी मीडिया के द्वारा ऐसे लोगों को हवा देने से पाखण्डवाद का विकास हुआ।
हमारे बीच आज गांधी नहीं हैं, पर गाय और गोबर तो है। गाय और गोबर के नाम पर अमानवीय परंपरायें हैं, वेद हैं, पुराण हैं, जिनकी जुगाली करते हुए द्विज अंधविश्वास और पाखंड का प्रचार-प्रसार करते हैं। उनके लिए खाने-कमाने का धंधा है, बाजार है, धर्म है और कुछ चतुर-चालाक राजनीतिज्ञ हैं, दलाल हैं, गाय को बेचने वाले हिंदू कसाई हैं, सरकारी फंड लेने वाले कुछ बेईमान समाजसेवी हैं, और हैं कपोल-कल्पित गाय के नाम पर कथाएं, जिन्हें बांचते हुए पंडित, पुरोहित, लोगों को स्वर्ग-नर्क के बारे में बतलाते हैं।
संक्षेप में कहें तो पहले राजनीति के बाजार में गांधी को बेचा गया अब धर्म के बाजार में गाय बेचना जारी है। वैसे अब गोमूत्र और गोबर का युग है। आप नहाते हुए साबुन की जगह गोबर प्रयोग करें, कोरोना का दौर है यह। विराट हिंदू संस्कृति का नायाब तोहफा। क्या मजाल कि आपको संक्रमण हो जाए। शंकराचार्य और मठाधीश आपकी रक्षा करेंगे। पुजारी और पुरोहित मंदिरों में घण्टे बजाएंगे। भारत सरकार के ही आंकड़े बताते हैं कि गायों को पवित्र पशु मानने वाला यह देश कैसे बीफ निर्यात करने में अग्रणी है। रामराज्य आ ही चुका है। धर्म का सहारा लेकर वे कुछ भी कर सकते हैं। हो सकता है कल गांधी के फोटो के साथ गोबर भी एक्सपोर्ट होने लगे।
संदर्भ
- ‘सबाल्टर्न स्टडीज’, V, रणजीत गुहा (संपादक), ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, दिल्ली, 1987
- शाहिद अमीन, ‘गांधी ऐज महात्मा: गोरखपुर, ईस्टर्न यूपी’, ‘सबाल्टर्न स्टडीज’, III, रणजीत गुहा (संपादन), ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, दिल्ली, 1984
- रामनारायण एस. रावत, ‘री-कंसिडरिंग अनटेबिलिटी, चमार्स एंड दलित हिस्ट्री इन नार्थ इंडिया’, ओरिएंट ब्लैकस्वान, रानीखेत, 2012
- मिस कैथरीन मेयो, ‘मदर इंडिया’, फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली, 2019।
- ‘प्रोसीडिंग्स ऑफ बोर्ड ऑफ एग्रीकल्चर ऑफ इंडिया’, बैंगलोर, जनवरी 21, 1924, तथा उसके बाद के दिवस। राउण्ड टेबुल, नं-59, जून, 1925 भी देखें।
- लेजिस्लेटिव असेंबली डिबेट्स, 1921, राय बहादुर पंडित, जे.एल. भार्गव, वाल्युम-I, पार्ट-I, पृष्ठ-530। यह भी देखिए, ‘कमेंट्रीज ऑफ दि ग्रेट अफोंसो डल्बकर्क’, वाल्टर डि ग्रे बर्च (अनुवादक), लंदन, इक्लुइट सोसायटी, 1877, वाल्युम-II, पृ. 11-78।
- डब्ल्यू. स्मिथ, ‘इम्पीरियल डेयरी एक्सपर्ट’, ‘एग्रीकल्चरल जरनल ऑफ इंडिया’, वाल्यूम-XVII, पार्ट-I, जनवरी, 1922।
- ‘यंग इंडिया’, 26 नवंबर, पृष्ठ-416।
- डॉ.एन. सिंह, ‘शब्बीरपुर, जलते घर-सुलगते सवाल’, दास पब्लिकेशन, नई दिल्ली, 2018।
- ‘यंग इंडिया’, 6 मई 1926, वी.जी.देसाई
(संपादन : इमामुद्दीन/नवल/अनिल)
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