h n

सपा-बसपा नेतृत्व का वैचारिक दिवालियापन

निश्चित रूप से इन दोनों पार्टियों के सलाहकार ब्राह्मण हैं, जो इन पार्टियों में शायद नंबर दो की या निर्णायक की हैसियत रखते हैं। इसलिए जाहिर है, कि वे अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए अपनी पार्टियों का दिवाला निकालने पर आमादा हैं, जैसे कांग्रेस के ब्राह्मण सलाहकारों ने कांग्रेस का दिवाला निकाल दिया। कंवल भारती का विश्लेषण

दिवाली आने में अभी समय है, लेकिन सपा और बसपा दोनों पार्टियों के प्रमुखों ने अपनी-अपनी पार्टी का दिवाला निकालने की योजना बना डाली है। अपनी-अपनी पार्टी के सिद्धांतों, सामाजिक-आर्थिक नीतियों को जनता के बीच ले जाने के बजाए दोनों सुप्रीमो ब्राह्मणों को अपनी-अपनी पार्टी में लाने के लिए कमर कसे हुए हैं और यह देखना बड़ा दिलचस्प है कि दोनों के अंदर ब्राह्मणों से प्रेम करने का जबर्दस्त उत्साह जागा हुआ है। ब्राह्मणों को रिझाने के लिए दोनों सुप्रीमो प्रभु श्रीराम और भगवान परशुराम के आगे दंडवत नतमस्तक हो गए हैं। इतना ब्राह्मण-प्रेम तो कभी कांग्रेस पार्टी ने भी खुलकर प्रदर्शित नहीं किया, जबकि वह जन्म से ब्राह्मण-वर्चस्व की पार्टी रही है। इतना जबर्दस्त ब्राह्मण-प्रेम कभी आर्यसमाज ने भी सरेआम नहीं दिखाया, जबकि उसके भी संस्थापक ब्राह्मण (महर्षि दयानंद) थे। जहां तक मुझे जानकारी है, भाजपा ने भी कोई ब्राह्मण-सम्मेलन आज तक नहीं किया, जैसाकि सपा और बसपा आतुर हैं। ब्राह्मणों के लिए काम करने वाले सैकड़ों संगठन देशभर में मौजूद हैं, जो अपने हकों की आवाज उठाते हैं और सरकारें उन पर ध्यान भी देती हैं। ये संगठन आए-दिन अपने बैनर तले ब्राह्मण-सम्मेलन करते रहते हैं। किन्तु सपा-बसपा के ब्राह्मण-प्रेम को देखकर ऐसा लगता है, जैसे वे भी राजनीतिक दल से ब्राह्मण-संगठन में बदल गए हैं।

सवाल उठता है कि इन दोनों पार्टियों को ब्राह्मणों का वोट ही क्यों चाहिए? क्या अन्य सवर्ण जातियों से उनकी दुश्मनी है? या, उन्होंने यह मान लिया है कि बाकी सवर्ण जातियां उनके साथ पहले से ही जुड़ी हुई हैं, और उनसे प्रेम करने की अब कोई जरूरत नहीं रह गई है?

निश्चित रूप से इन दोनों पार्टियों के सलाहकार ब्राह्मण हैं, जो इन पार्टियों में शायद नंबर दो की या निर्णायक की हैसियत रखते हैं। इसलिए जाहिर है, कि वे अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए अपनी पार्टियों का दिवाला निकालने पर आमादा हैं, जैसे कांग्रेस के ब्राह्मण सलाहकारों ने कांग्रेस का दिवाला निकाल दिया। पार्टियों का भले ही दिवाला निकल जाए, पर उनके ब्राह्मण सलाहकारों पर कोई आंच नहीं आनी है, क्योंकि उनके लिए भाजपा में बेहतर भविष्य सुरक्षित है।

बसपा सुप्रीमो मायावती को अच्छी तरह पता है कि मुसलमान उनके साथ नहीं हैं। वे काफी हद तक सपा से जुड़े हुए हैं। उत्तर प्रदेश में मुस्लिम आबादी भी लगभग 20 प्रतिशत है, जो ब्राह्मणों से तो कम से कम छह गुना ज्यादा ही है। लेकिन क्या कारण है कि मायावती ने मुसलमानों को जोड़ने के लिए मुस्लिम-सम्मेलन नहीं किया? बसपा के साथ पिछड़ा और महादलित वर्ग भी जुड़ा हुआ नहीं है, जो प्रदेश में सबसे बड़ी आबादी हैं। लेकिन मायावती ने उनको भी अपनी पार्टी से जोड़ने के लिए कोई उत्सुकता नहीं दिखाई।

बसपा प्रमुख मायावती व सपा के सर्वेसर्वा अखिलेश यादव की तस्वीर

सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव के चेहरे पर इस बात का दर्प है कि प्रदेश के मुसलमान सपा के वोट बैंक हैं। लेकिन यह दर्प अब चूर हो सकता है, क्योंकि असदुद्दीन ओवैसी की ‘मजलिसे इत्तेहादुल मुस्लिमीन’ पार्टी 2022 के विधानसभा चुनावों में सपा को टक्कर दे सकती है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उसका जनाधार जिस ढंग से बढ़ रहा है, वह सपा के लिए खतरे की घंटी से कम नहीं है। भाजपा भी ओवैसी की पार्टी को बढ़ावा देना चाहती है, क्योंकि ऐसा करने से मुस्लिम वोट के विभाजन का लाभ भाजपा को मिलेगा।

सपा में नंबर दो माने जाने वाले माता प्रसाद पांडेय के साथ मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव

सपा पिछड़ी जातियों की पार्टी मानी जाती है, परंतु सच यह है कि सर्वाधिक पिछड़ी जातियां आज भाजपा के साथ हैं। भाजपा ने इन्हें महापिछड़ा वर्ग घोषित किया हुआ है। सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव महापिछड़ा वर्ग की सपा से दूरी को लेकर चिंतित क्यों नहीं हैं? वे ब्राह्मणों की ओर ही क्यों आकर्षित हो रहे हैं? महापिछड़ा वर्ग को आकर्षित करने की आकांक्षा उनमें रत्तीभर पैदा नहीं हो रही है? दलित वर्गों को जोड़ने के लिए भी उनमें कोई उत्सुकता नहीं है। पूर्व में मायावती से गठबंधन करने के बावजूद उनकी छवि दलित विरोधी की बनी हुई है, जिसे रामपुर जैसे शहर में उनकी पार्टी के कद्दावर नेता आज़म खान ने और भी पुख्ता किया है।

सवाल यह है कि अगर सपा और बसपा दोनों पार्टियों को एकाध प्रतिशत वोट ब्राह्मणों के मिल भी गए, तो क्या वे मंजिल पा लेंगे?

यह भी पढ़ें : मायावती के ब्राह्मण-सम्मेलन से कितने प्रभावित होंगे ब्राह्मण?

किन्तु इससे भी बड़ा सवाल सपा-बसपा प्रमुखों के वैचारिक भटकाव का है, जिसके कारण वे पथ-भ्रष्टता, दिशा-हीनता और बौद्धिक जड़ता के शिकार हो गए हैं। इसी भटकाव से मायावती बहुजन हिताय से सर्वजन हिताय की ओर आ गईं हैं, जबकि यह सार्वभौमिक सत्य है कि सर्वजन हिताय एक ऐसा शब्द युग्म है, जो अपने मूल अर्थ में ही एक असम्भव क्रिया है। अगर यह एक संभव क्रिया होती, तो बुद्ध बहुजन हिताय की जगह सर्वजन हिताय ही कहते। वे जानते थे कि सबका हित नहीं किया जा सकता, हित उन्हीं का किया जा सकता है, जो दुखी हैं, पीड़ित हैं, शोषित हैं, और ऐसे लोगों की संख्या सर्वाधिक है। ऐसे सर्वाधिक लोग ही बहुजन हैं। सर्वजन हिताय में सबके हित का मतलब है शोषक का भी हित और शोषित का भी, चोर का भी हित और शाह का भी, अमीर का भी हित और गरीब का भी तथा शीलवान का भी हित और दुष्ट का भी। क्या मायावती सर्वजन हिताय का नारा देकर शोषक वर्गों का हित करने का संदेश दे रही हैं? लगता तो ऐसा ही है।

बसपा के निर्णायक सलाहकार सतीशचंद्र मिश्रा और मायावती

अखिलेश यादव स्वयं को समाजवादी कहते हैं। फिर वह जनता में समाजवादी विचारधारा का प्रचार करने के बजाए ब्राह्मणों को आकर्षित करने के लिए भगवान परशुराम की विशाल मूर्ति बनवाने की घोषणा करके किस समाजवाद का परिचय दे रहे हैं? क्या उन्हें नहीं लगता कि उन्हें लोकतंत्र के मुद्दों पर, गरीबों, मजलूमों, मजदूरों, किसानों और स्त्रियों के मुद्दों पर, जन-विरोधी पूंजीवाद के विकास के मुद्दे पर, भाजपा सरकार की गरीब-विरोधी, मजदूर-विरोधी नीतियों और किसान-विरोधी काले कानूनों पर अपनी राजनीति को फोकस करना चाहिए था?

क्या सपा-बसपा दोनों पार्टियों के प्रमुखों को उत्तर प्रदेश में निरंतर बदतर होती शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति दिखाई नहीं दे रही है? अगर दिखाई दे रही है, तो उन्होंने शिक्षा और जन-स्वास्थ्य के मुद्दे पर अपनी पार्टी की ओर से जनता को जागरूक करने के लिए लगातार रैलियां और सम्मेलन करने की जरूरत क्यों महसूस नहीं की? क्या उन्हें योगी सरकार के विरुद्ध एक बेहतर वैकल्पिक शासन-व्यवस्था का मॉडल प्रस्तुत नहीं करना चाहिए था? क्या कारण है कि ये सब न करके वे ब्राह्मणों को लुभाने का हास्यास्पद प्रयास कर रहे हैं? क्या ब्राह्मणों को लुभाना एक बेहतर शासन-व्यवस्था का माडल है?

अगर समय रहते दोनों दलों के सुप्रीमो अपने वैचारिक भटकाव से बाहर नहीं निकले, तो वे भाजपा की ही राह आसान करने जा रहे हैं।

(संपादन : नवल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें 

मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

संबंधित आलेख

छत्तीसगढ़ में सिविल सोसाइटी बनाम जातिवाद एवं ब्राह्मण वर्चस्व
मेट्रो सिटी में बैठे सवर्ण सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा पीयूसीएल, छत्तीसगढ़ के स्थानीय दलित-आदिवासी और महिला नेतृत्व को हाशिये पर धकेलने के लिए मुक्ति मोर्चा...
‘कितने अर्थशास्त्री किसी कारखाने के अंदर गए हैं?’
प्रोफेसर ज्यां द्रेज़ का कहना है कि शैक्षणिक समुदाय का भारत की राजनीति में कोई ख़ास प्रभाव नहीं है। और यह भी कि अमरीकी...
अकादमिक शोध में आचार्यों का खेल– सब पास, आदिवासी फेल
विभिन्न विश्वविद्यालयों में पिछले दो दशकों में प्राध्यापक बने आदिवासियों का अनुभव भी कम भयानक नहीं है। वे बताते हैं कि कैसे आदिवासी विषय...
झारखंड : केवाईसी की मकड़जाल में गरीब आदिवासी
हाल ही में प्राख्यात अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज के नेतृत्व में एक टीम ने झारखंड के आदिवासी इलाकों में सर्वे किया और पाया कि सरकार...
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव : आंबेडकरवादी पार्टियों में बिखराव के कारण असमंजस में दलित मतदाता
राज्य में दलित मतदाता और बुद्धिजीवी वर्ग आंबेडकवादी नेताओं की राजनीति और भूमिकाओं से तंग आ चुके हैं। आंबेडकरवादी राजनेता बहुजन समाज के हितों...