बिहार में राजनीति का तो मंडलीकरण हुआ है परन्तु साहित्य, कला और संस्कृति का क्षेत्र इससे अछूता है। हम उस बिहार की बात कर रहे हैं, जहां बड़ी संख्या में बहुजन समाज के लेखकों का बाहुल्य रहा है। लेकिन बिहार के पिछले तीस वर्षों के मंडल राज में राजभाषा पुरस्कारों की सूची पर नजर दौड़ाएं तो पुरस्कार निर्णायक से लेकर पुरस्कार प्राप्त करनेवालों में बहुसंख्या सवर्ण जाति के ही लेखक, पत्रकारों रहे हैं। यह स्थिति तब है जबकि लालू प्रसाद और नीतीश कुमार जैसे दो मजबूत जनाधार वाले मुख्यमंत्री लगातार शासन में रहे हैं। यह इस बात का भी संकेत है कि पिछड़े, दलित बौद्धिक जिस प्रतिनिधित्व को लेकर आत्मविश्वास से लबरेज रहते हैं, उन्हें यह जानना चाहिए कि यह प्रतिनिधित्व उनके नेताओं के भौतिक, वैभव विलास के लिए चाहे जितना मुफीद रहा हो, उनके समाज के लिए उसका कोई मतलब नहीं। अभी हाल ही में राजभाषा ने जिन 14 लोगों को पुरस्कार के लिए चयनित किया है, उनमें 12 लेखक सवर्ण जाति समुदाय से और एक-एक दलित, पिछड़ा वर्ग और अत्यंत पिछड़ा वर्ग से आते हैं। यानी बिहार में सवर्ण समाज की कुल जनसंख्या में प्रतिशत लगभग 12 है परन्तु पुरस्कार में उनकी उपस्थिति करीब सौ प्रतिशत है और जिस बहुजन समाज की बहुसंख्या है, पुरस्कारों की सूची में उनकी उपस्थिति अत्यंत निराशाजनक है।