पुस्तक समीक्षा
औपनिवेशिक काल से लेकर अब तक आदिवासी अस्मिता का संघर्ष बड़ी कठिनाइयों और अवरोधों से भरा रहा है। एक लंबे संघर्ष के बाद समाजविज्ञानी और अध्येताओं का ध्यान उनके विमर्श की ओर गया है। अब दलित साहित्य और स्त्री साहित्य की तरह ही आदिवासी साहित्य विमर्श के केंद्र में है। प्रसिद्ध लेखिका वंदना टेटे पिछले तीन दशकों से आदिवासी साहित्य और वैचारिकी पर बड़ी गंभीरता से सृजनरत हैं। उनका बौद्धिक हस्तक्षेप आदिवासी साहित्य और दर्शन को एक नए सिरे से देखने परखने का नज़रिया प्रदान करता आ रहा है। अभी हाल में ही वंदना टेटे की आदिवासी दर्शन और साहित्य पर ‘वाचिकता : आदिवासी दर्शन, साहित्य और सौंदर्यबोध’ शीर्षक से बड़ी गंभीर किताब प्रकाशित हुई है। इस किताब में उन्होंने अकादमिक ढंग से आदिवासी साहित्य, परम्परा, वाचिकता, दर्शन पुरखा-स्मृतियाँ, भाषा संस्कृति, भूमंडलीकरण के प्रभाव से लेकर आदिवासी साहित्य, भाषा, संस्कृति, बाजारवाद के असर की बड़ी गंभीरता से पड़ताल की हैं।
दरअसल, आदिवासी समाज और दर्शन को लेकर एक मोटी और सतही तौर पर लोगों की समझ यह है कि आदिवासी समाज के पास दर्शन जैसी कोई चीज नहीं है और यह समाज आदिम और पिछड़ा हुआ है। इस किताब के पहले लेख में वंदना टेटे आदिवासी दर्शन को समग्र रूप से प्रस्तुत करती हैं। अपनी पड़ताल में बताती हैं कि जैसे दुनिया के सभी समाज का दर्शन और साहित्य होता है, वैसे ही आदिवासी समाज का भी अपना दर्शन और साहित्य मौजूद है। भारतीय साहित्य, मार्क्सवादी साहित्य और दलित साहित्य के दर्शन की तरह ही आदिवासी साहित्य का भी दर्शन है। वंदना टेटे आदिवासी दर्शन को जल, जंगल और ज़मीन से जोड़कर देखती हैं। उनका कहना है कि आदिवासी दर्शन प्रकृतिवादी है। आदिवासी समाज धरती प्रकृति और सृष्टि के ज्ञात-अज्ञात निर्देश, अनुशासन और विधान को सर्वोच्च स्थान देता है। इस दर्शन के भीतर ऊंच-नीच जैसी कोई अवधारणा नहीं है।
वंदना टेटे इसी लेख में गैर-आदिवासी समाज और आदिवासी साहित्य संस्कृति और अवधारणाओं में जो बुनियादी अंतर है, उसे भी स्पष्ट करती हैं। उनका निष्कर्ष है कि दोनों की संस्कृति और साहित्य में अनेक बुनियादी अंतर हैं, जिनमें भौतिक जीवन और अभौतिक जीवन की दोनों संकल्पनाएं भिन्न हैं।
इस किताब में वंदना आदिवासी साहित्य की अवधारणा, पृष्ठभूमि, वाचिकता और उसके उद्देश्य पर बड़ी गहनता से मंथन और विचार करती हैं। उनकी चिंता है कि दक्षिणपंथी, गांधी-लोहियावादी, आंबेडकारवादी और मार्क्सवादी अवधारणा के अनुरूप ही आदिवासी साहित्य अवधारणा को स्थापित करने की कवायदें हो रही हैं। जबकि आदिवासी साहित्य इनमें से किसी भी अवधारणा के तत्व को अंगीकार नहीं करता है। वंदना टेटे के कहने का अर्थ है कि आदिवासी साहित्य अपने आप में स्वतंत्र और पूर्ण है। वह किसी भी साहित्य की अवधारणा को अपने भीतर स्वीकार नहीं करता है, क्योंकि उसका दर्शन और जीवन किसी भी समाज से मेल नहीं खाता है। मसलन, आदिवासी समाज के भीतर हिंदू वर्ण–व्यवस्था और जाति-पांति जैसी कोई अवधारणा नहीं है। वह हिंदू धर्म-दर्शन के दायरे से बाहर का समाज है।
वंदना टेटे आदिवासी साहित्य को परिभाषाबद्ध करते हुई लिखती हैं कि आदिवासी साहित्य से तात्पर्य उस साहित्य से जिसमें आदिवासियों का जीवन और समाज उनके दर्शन के अनुरूप अभिव्यक्त हुआ है। वे आदिवासी साहित्य का आदिम स्रोत वाचिकता को मानती हैं। उनके अनुसार नैसर्गिक रूप से आदिवासी समाज वाचिक रहा है, वह एक ऐसी सत्तारहित संस्कृति का वाहक है, जिसमे वायदे, करार दस्तावेजी प्रमाण आदि लिखित साहित्य की आवश्यकता नहीं थी। आदिवासी साहित्य के उद्देश्य को लेकर उनका निष्कर्ष है कि आदिवासी साहित्य का उद्देश्य ‘मनुष्य’ नहीं बल्कि वह सृष्टि है जिससे मनुष्य, समस्त जीव जगत और समष्टि का असितत्व है। इस किताब के अगले लेख में वंदना टेटे आदिवासी साहित्य की वाचिकता और उसकी परंपरा पर विस्तार से बात करती हैं।
आदिवासी समाज नैसर्गिक रूप से जल, जंगल और ज़मीन के करीब रहा है। प्रकृति की लय में उन्होंने अपने जीवन को संवारा है। प्रकृति की लय ही उनके जीवन की सबसे बड़ी विरसात रही है। प्रकृति विरासत पर ही उनकी वाचिकता आकार लेती है। वंदना टेटे का मत है कि आदिवासी दर्शन और ज्ञान परंपरा वाचिक है। यह समाज प्रकृति के साथ ही संपूर्ण जीव-जगत को समानता के स्तर पर देखता है। इस समाज में विश्वास की परंपरा इतनी प्रगाढ़ और भरोसेमंद थी कि उन्हें कभी कोई वायदा लिखित तौर पर नहीं करना पड़ा। उनका सारा दर्शन और साहित्य वाचिकता के बल पर पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहा। वंदना टेटे ने किताब के अंतिम हिस्से में आदिवासी समाज को संसाधनों से बेदख़ल करने वालों हथकंडों की बड़ी शिद्दत से शिनाख्त की है। सभ्यताओं का विकास और पूंजीवाद की घुसपैठ ने आदिवासी समाज को जल, जंगल और ज़मीन से बेदखल करने का काम किया है।
वंदना टेटे अपनी पड़ताल में बताती हैं कि जल, जंगल और ज़मीन की दावेदारी और अपनी अस्मिता को बचाने के लिए आदिवासी पुरखों ने निरंतर विद्रोह किया है। यह विद्रोह पुरुखा-स्मृतियों में विशेष रूप से प्रकट होता है। चूंकि आदिवासी समाज अपनी प्रकृति में वाचिक रहा है, इसलिए दस्तावेज़ के नाम पर सत्ताएं उन पर दबाव बनाने में काफी हद तक कामयाब हुईं और उन्हें प्राकृतिक संसाधनों से वंचित कर दिया गया।
वंदना टेटे की यह किताब आदिवासी दर्शन, साहित्य, और उसके सौंदर्यबोध की गुत्थियों को सुलझाती है और उसकी कसौटियों का विस्तार करती है। वैश्वीकरण और बाज़ारवाद के दौर में आदिवासी जीवन किस कदर प्रभावित हुआ, उस बहस को भी यह किताब आगे बढ़ाती है। वंदना टेटे बताती हैं कि आदिवासी समाज के भीतर साहित्य और दर्शन की एक बड़ी समृद्ध परंपरा मौजूद रही है। वे अनुसंधान और गहनता के साथ आदिवासी वाचिकता और सौंदर्यबोध की निर्मितियों के मूल तत्व और उसके स्रोतों की पड़ताल कर और पुरुखा संघर्ष से भी परिचित करवाती हैं। उनकी यह किताब जहां अनुसंधान के क्षेत्र में नए-नए आयाम सामने लाती है, वहीं आदिवासी साहित्य, संस्कृति और सौदर्यबोध को समझने में एक निर्देशक की भूमिका भी निभाती है।
समीक्षित किताब – वाचिकता : आदिवासी दर्शन, साहित्य और सौंदर्यबोध
लेखिका – वंदना टेटे
प्रकाशक – राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य – 150 रुपए (अजिल्द)
(संपादन : नवल)
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