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नाथ पंथ और मछन्दरनाथ

वैचारिक स्तर पर सिद्धों और नाथों में काफी समानताएं हैं। दोनों ने लोक भाषा में काव्य-रचना की है। दोनों का जोर सहज अथवा नैसर्गिक जीवन पर था। दोनों ने ब्राह्मणवाद और वर्णव्यवस्था का खंडन किया है। दोनों ने मन की शुद्धि और स्थिरता की बात कही है। योग, ध्यान और समाधि दोनों के साधन हैं। दोनों ही बौद्ध-परंपरा में हैं। बता रहे हैं कंवल भारती

सिद्धों का समय 800 से 1200 ई. तक माना जाता है। ये 84 सिद्ध माने जाते हैं। इन 84 सिद्धों से ही नाथ पंथ निकला है, जिसने 12वीं से 14वीं सदी तक संत-काव्य धारा को प्रभावित किया था। अतः हम कह सकते हैं कि सिद्धों के समय में ही नाथ पंथ भी अस्तित्व में था। दूसरे शब्दों में सिद्ध और नाथ समकालीन थे। किन्तु सिद्धों की सूची बनाने वालों ने नाथों को भी सिद्धों में ही रखा है। स्वयं नाथों ने भी अपने को सिद्ध ही कहा है।

84 सिद्धों में 46वें सिद्ध जालन्धरपाद हैं, जिन्हें नाथ पंथ का प्रवर्तक माना जाता है। उन्हें आदिनाथ भी कहा गया है। अन्य सिद्धों में मीनपा, नागार्जुन, कण्हपा, चर्पटीपा और कंतालीपा भी नाथपंथी माने जाते हैं।

बौद्ध धर्म से है नाथ पंथ का खास जुड़ाव 

अतः नाथ पंथ पर विचार करने से पूर्व यह जान लेना जरूरी है कि सिद्ध कौन थे? वास्तव में सिद्ध-परंपरा या पंथ वज्रयान का विकास है। बौद्धधर्म की महायानी शाखा से जब वज्रयान निकला, तो उसने तन्त्र-मन्त्र सिद्धान्तों, अलौकिक सिद्धियों और मिथ्या दृष्टियों को अपनाया, जिसके विरोध में प्रबुद्ध वर्ग ने वैचारिक विद्रोह किया। वे ही सिद्ध कहलाए। सभी सिद्ध कवि थे और सामाजिक विद्रोही थे। सिद्ध सरहपाद को इस नई धार्मिक परंपरा का आदि गुरु माना जाता है। सरहपाद बौद्धधर्मी थे, जिनका भिक्षु नाम राहुल भद्र था। उनका नाम सरह तब पड़ा, जब उन्होंने शर (तीर) बनाने वाली जनजाति लड़की से विवाह कर, उसके साथ रहकर स्वयं भी सरकंडे से तीर बनाने का काम करने लगे। वह नालंदा में विद्यार्थी थे और वहीं अध्यापक भी हो गए थे। उन्हें वहां के भिक्षुओं में बहुत सारा ढोंग और पाखंड दिखाई दिया। उन्होंने देखा कि सामन्तों के धन पर पलने वाले भिक्षु बुद्ध-वचनों की सामन्तवादी और ब्राह्मणवादी व्याख्याएँ करके उनको विकृत करने का काम कर रहे थे, जो जनता के साथ विश्वास घात था। राहुल भद्र उस ढोंग से पीछा छुड़ाकर विद्रोही होकर बाहर आ गए। वह गृहस्थ होकर तीर बनाकर श्रम करके जीविका कमाने लगे। सरहपाद (राहुल भद्र) की इस विद्रोही भूमिका से ही सिद्धयान की शुरुआत होती है।

सरहपाद ने बाहर आकर वेद, शास्त्रों, मंत्र-तंत्र, यज्ञ, आडम्बर, पाखंड, ब्राह्मणवाद और वर्णव्यवस्था के खिलाफ जबरदस्त विद्रोह छेड़ दिया। उन्होंने संसार को मिथ्या मानने से इन्कार किया और कहा कि चित्त की शुद्धि में ही तीर्थ है। इस प्रकार यह एक ऐसी भौतिकवादी धारा थी, जो विचारों में बुद्ध का अनुसरण करती थी।

लोकभाषाओं के कवि रहे सभी सिद्ध, संस्कृत के नहीं

सिद्धों की दो विशेषताएं थीं। एक, वे सभी कवि थे, या यह भी कह सकते हैं कि कवि होना सिद्ध होने की अनिवार्य शर्त थी; और दो, उनमें जातिभेद नहीं था। उनका संघ वर्ग और जातिविहीन था। 84 सिद्धों में 28 सिद्ध शूद्र जातियों के हैं और 4 स्त्रियां हैं; शेष में ब्राह्मण, क्षत्रिय, कायस्थ आदि अन्य जातियों के सिद्ध हैं। भारतीय चिंतन में यह पहली धारा थी, जिसमें जातिभेद नहीं था। दूसरे शब्दों में यह वह धारा थी, जिसमें जातीय वर्चस्व नहीं था। इसमें जाति नहीं, गुण महत्वपूर्ण था। उनमें गुंडरिपा जैसे चिड़ीमार, चमारिपा जैसे चमार और अचिंतिपा जैसे लकड़हारा ही नहीं, मणिभद्रा जैसी दासी भी सिद्धों में शामिल थी। यह भी उल्लेखनीय है कि सभी सिद्ध कवि लोकभाषाओं के कवि थे, संस्कृत के नहीं।

नाथ पंथ सिद्ध परंपरा से कितना अलग था, यह देखने से पहले यह जान लें कि नाथ कौन थे? जैसा कि कहा गया, नाथ पंथ के आदि प्रवर्तक आदिनाथ माने जाते हैं। सिद्धों की सूची में इनका नाम जालन्धरपाद है, जो ब्राह्मण बताए जाते हैं। इनके शिष्य मछेन्द्रनाथ थे, जो मछुवे या मछुआरे थे। इनके पिता मीनपा भी सिद्ध थे, जो नाथ पंथ में आकर मीननाथ हुए। इन्हीं मछेन्द्रनाथ के शिष्य गोरखनाथ थे, जिन्होंने नाथ-सम्प्रदाय को एक क्रान्तिकारी आन्दोलन का रूप दिया। नाथ पंथ में गोरखनाथ का वही स्थान है, जो वेदान्त में शंकर का है। आदि शंकराचार्य यदि भारत के कोने-कोने में विख्यात हैं, तो गोरखनाथ की ख्याति भी भारत की सीमाओं के बाहर तक है। दोनों में अन्तर यह है कि यदि शंकर हिन्दुओं के गुरु हैं, तो गोरखनाथ भारत की विशाल आम जनता के पूज्य देव हैं। यदि गोरखनाथ न होते, तो नाथ पंथ आगे नहीं बढ़ता।

गोरखनाथ के गुरु थे मछेन्दनाथ 

लेकिन जिस मछेन्द्रनाथ के गोरखनाथ शिष्य थे, उनका नाम हमें 84 सिद्धों में नहीं मिलता, जबकि उनके पिता मीननाथ आठवें सिद्ध हैं। मीननाथ या मीनपा राजा देवपाल के समकालीन थे, जिनका समय 809 ई. से 849 ई. है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मीनपा और मछेन्द्रनाथ नौवीं शाताब्दी के सिद्ध कवियों में थे। सिद्ध-सूची में मीनपा के ठीक बाद गोरक्षपा अर्थात गोरखनाथ का नाम आता है। इसके बाद चोरंगिपा का नाम है, जो गोरखनाथ के गुरु भाई थे। अतः सवाल यह है कि सूची में गुरु भाई का नाम है, गुरु के पिता का नाम है, पर गुरु का ही नाम नहीं है। क्यों? कहीं ऐसा तो नहीं कि मीननाथ और मछेन्द्रनाथ दोनों एक ही हों, मछेन्द्रनाथ ही मीननाथ हो सकते हैं, क्योंकि दोनों नामों का शाब्दिक अर्थ मछली या मछुवारा ही होता है। मछेन्द्रनाथ नाथ-परंपरा के प्रथम आचार्य माने जाते हैं। वे गोरखनाथ के लिए ईश्वर तुल्य थे। गोरख उन्हें अपनी वाणी में बहुत आदर से स्मरण करते हैं। यथा–

  1. भणत गोरषनाथ मछीन्द्र ना दासा (मछेन्द्र का दास गोरख कहता है)
  2. कथंत गोरषनाथ मछीन्द्र ना पूता (मछेन्द्र का पुत्र गोरखनाथ का कथन है)
  3. मछीन्द्र प्रसादै जती गोरष बोल्या (मछेन्द्र के प्रसाद से यती गोरख बोलता है)
  4. गोरष रहीला मछीन्दर्र ठांई (गोरख मछेन्द्र की शरण में आया)
  5. मछन्दर तुम्हें ईश्वर के पूता (मछन्दर तुम तो ईश्वर के पुत्र हो)

ऐसे महान मछेन्द्रनाथ को सिद्धों की सूची में शामिल न करना गले नहीं उतरता। इसलिए बहुत सम्भव है कि मीनपा ही मछेन्द्रनाथ हों।

द्विज साहित्य और लोक साहित्य में नाथ पंथ

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपने ग्रंथ ‘नाथ-संप्रदाय’ में मछेन्द्रनाथ के एक ग्रन्थ ‘कौल ज्ञान निर्णय’ के हवाले से उल्लेख किया है कि इस ग्रन्थ में मछेन्द्रनाथ का नाम कई प्रकार से लिखा गया है, जैसे– मच्छ्घ्नपाद, मछेन्द्रपाद, मत्स्येन्द्रपाद और मीनपाद। इससे भी यही पुष्टि होती है कि ये चारों नाम एक ही आचार्य के हैं। द्विवेदी जी मछेन्द्रनाथ को ब्राह्मण मानते हैं, जिनका शुद्ध नाम मत्स्येन्द्रनाथ था और एक विशेष कारण से उनका नाम ‘मत्स्यघ्न’ पड़ गया था। यह विशेष कारण एक दंतकथा पर आधारित है, जो ‘कौल ज्ञान निर्णय’ के अनुसार इस प्रकार है– ‘भैरव और भैरवी चन्द्रद्वीप में गए हुए थे। वहां कार्तिकेय उनके शिष्य रूप में पहुंचे। अज्ञान के प्राबल्य से उन्होंने ‘कुलागम शास्त्र’ को समुद्र में फेंक दिया। भैरव ने समुद्र में जाकर मछली का पेट फाड़कर उस शास्त्र का उद्धार किया। इस कार्य से कार्तिकेय बहुत क्रुद्ध हुए। उन्होंने एक बड़ा सा गड्ढा खोदा और छिपकर उस शास्त्र को दुबारा समुद्र में फेंक दिया। इस बार एक प्रचण्डतर शक्तिशाली मत्स्य ने उसे खा लिया। भैरव ने शक्ति-तेज से एक जाल बनाया और उस मत्स्य को पकड़ना चाहा। पर, वह प्रायः उतना ही शक्ति-संपन्न था, जितना स्वयं भैरव थे। हारकर भैरव को ब्राह्मणवेश त्यागना पड़ा। उस महामत्स्य का उदर फिर से विदीर्ण करके उन्होंने ‘कुलागम शास्त्र’ का उद्धार किया।’ (नाथ-सम्प्रदाय, पृ. 43)

उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में एक उपेक्षित मंदिर में गोरखनाथ की एक प्रतिमा

इस कथा में शास्त्र का भक्षण करने वाले मत्स्य स्वयं भैरव है, जो मछली बनकर समुद्र में घुसे थे। इस प्रकार की गल्पों का आज के वैज्ञानिक युग में कोई अर्थ नहीं है। कोई तन्त्रा-मन्त्रा आदमी को मछली और मछली को आदमी नहीं बना सकता। ब्राह्मण विद्वानों ने प्रायः इस दम्भ में, कि सिर्फ ब्राह्मण ही परम ज्ञानी और गुरु हो सकता है, यह गल्प गढ़ी है। ऐसी ही मूढ़ कहानियां ब्राह्मणों ने कबीर और रैदास संतों के बारे में भी, उन्हें ब्राह्मण सिद्ध करने के लिए गढ़ी हैं।

इस तरह के मूढ़ विश्वास की कुछ और भी कहानियां या (किंवदन्तियां) मछेन्द्रनाथ और गोरखनाथ के बारे में प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार, गोरखनाथ के गुरु मीननाथ पथ से विमुख होकर कदली देश में सोलह सौ सेविकाओं द्वारा परिवृता मंगला और कमला नामक पटरानियों के साथ विहार करने लगे थे। वहां योगी का जाना निषिद्ध था। केवल नर्तकियाँ ही मीननाथ का दर्शन पा सकती थीं। तब, गुरु के उद्धार के लिए गोरखनाथ नर्तकी का रूप धारण कर मीननाथ के सामने प्रकट हुए। उन्होंने गुरु को पूर्ववर्ती बातों का स्मरण कराया और महाज्ञान बताया। मीननाथ को होश आया और गोरखनाथ उन्हें साथ लेकर विजय नगर लौटे। (वही, पृष् 45-46)

राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में गोगा मेड़ी में नाथ पंथ का एक स्थान (तस्वीर : एफपी ऑन द रोड, 2017)

इस कथा से भी पता चलता है कि गोरखनाथ के गुरु मीननाथ थे और वह महाज्ञान से विमुख होकर स्त्रियों के साथ रमण करने लगे थे। गोरखनाथ ने भी अपनी वाणी में अपने गुरु मछेन्द्रनाथ के महाज्ञान से विमुख होने और स्त्रियों के साथ रमण करने का उल्लेख किया है। इससे भी पता चलता है कि जो मीननाथ हैं, वही मछेन्द्रनाथ हैं।

गाेरखनाथ और मछेन्द्रनाथ के आपसी संबंध

गोरखनाथ ने अपने गुरु के संबंध में अपने पदों में क्या कहा है, यह देखना जरूरी है। यह पहले बताया जा चुका है कि वह सब कुछ छोड़कर मछेन्द्रनाथ की शरण में गए थे और उन्हें ईश्वर का पुत्र मानते थे। इसके बावजूद उन्होंने अपने गुरु को स्त्री-संसर्ग से दूर रहने का उपदेश दिया है। यह पद देखिए–

छांटै तजौ गुरु छांटौ तजै, तजौ लोभ मोह माया।
आत्मा परचै राषौ गुरुदेव, सुन्दर काया।
कान्हीं पाव भेटीला गुरु, विद्यानग्र सैं।
ताथैं मैं पाइला गुरु, तूम्हारा उपदेसैं।
एतैं कछु कथीला गुरु सबैभैला भोलै।
सर्ब रस षोइला गुरु बाघनी चे षोलै।
नाचत गोरषनाथ घूंघरी चै घातैं।
सबै कमाई षोई गुरु, बाघंनी चै राचैं।
रस कुस बहि गईला, रहि गई छोई।
भगत मछिन्द्रनाथ पूता, जोग न होई।

(गोरख बानी, सं. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल, पृ. 87)

इस पद में गोरखनाथ कहते हैं– हे गुरु, लोभ, मोह, माया त्याग दो। आत्मा का परिचय रखो गुरुदेव, यह सुन्दर काया उसी से है। विद्या नगर में कांहपा से भेंट हुई थी, उन्हीं से मुझे तुम्हारी खबर मिली। जो कुछ कहा गया है, वह सब आपके भोले स्वभाव के कारण हुआ है। आपने बाघनी (स्त्री) की गोद में सारा रस खो दिया है। गोरखनाथ कहते हैं कि घुंघरू के स्वर के साथ नाचकर आपने सारी कमाई खो दी है। सारा रस बह गया है, सिर्फ छोई रह गई है। मछिन्दर का पूत यह भगत कहता है कि यह योग नहीं है। 

इस पद में कांहपा का नाम आया है, जो सत्रहवें सिद्ध माने जाते हैं। कथा है कि एक बार गोरखनाथ बकुल वृक्ष के नीचे ध्यान कर रहे थे। उसी समय कांहपा उनके सिर पर से उड़ते हुए आकाश मार्ग से कहीं जा रहे थे। कांहपा ने गोरखनाथ को देखकर कहा– ‘बड़े सिद्ध बने हो, कुछ गुरु का भी पता है कि वे कहां हैं?’ उन्होंने पूछा– ‘कहां हैं?’ कांहपा बोले– ‘कदली देश में महाज्ञान भूलकर स्त्रियों के साथ विहार कर रहे हैं। उनकी शक्ति समाप्त हो गई है।’ इस कथा में कांहपा का उड़कर जाना अवैज्ञानिक है। पर, इससे यह जरूर प्रमाणित होता है कि गोरखनाथ को कांहपा से ही गुरु के महाज्ञान से विमुख होने का पता चला था।

गोरख-बानी और इस कथा से मालूम होता है कि मछेन्द्रनाथ ने अपना अलग मार्ग चुन लिया था और वह अज्ञातवास में चले गए थे, जिसका पता गोरखनाथ को भी नहीं था। इसी स्थिति का चित्रण उनके एक अन्य पद में इस तरह मिलता है–

मेरा गुरु तीनि छंद गावै।
ना जाणौ गुरु कहां गैला, मुझे नींदडी न आवै।

(गोरख-बानी, पृ. 136)

गोरख कहते हैं, ‘मेरा गुरु तीन छंद गाता है। पर अब न जाने, गुरु कहां चले गए हैं, उनके बिना मुझे नींद नहीं आती।’ आगे, वे गुरुजी को संबोधित कर कहते हैं–

गुरुजी ऐसा करम न कीजै, ताथैं अमीं महारस छीजै।
दिवसै बाघणि मन मोहै, राति सरोवर सोवै।
जाणि बूझि रे मूरिष लोया घरि घरि बाघणि पोषै।
पदी तोरै बिरषा नारी संगै पुरषा अलप जीवन की आसा।
मनथैं उपज मेर षिसि पड़ई ताथैं कंथ बिनासा।

(वही, पृ. 137)

गोरखनाथ स्त्री-संग के विरोधी थे। वह योग-साधना में स्त्री को बाधक मानते थे। इसलिए, जब उन्होंने यह सुना कि उनके गुरु सिंहल की पद्मिनियों के बीच रमण कर रहे हैं, तो यह उन्हें महाज्ञान के विरुद्ध लगा। इस पद में, वह गुरु जी को समझा रहे हैं कि गुरुजी ऐसा काम मत कीजिए, जिससे अमृत महारस क्षीण हो जाए। दिन में स्त्री मन को मोहती है और रात्रि में पुरुष के अन्दर के सरोवर को सोख लेती है। जैसे नदी किनारे के पेड़ की लंबी आयु नहीं होती, उसी तरह स्त्री के साथ रहने वाले पुरुष का जीवन भी अल्पजीवी होता है। हे गुरुदेव, आप जानबूझकर मूर्ख क्यों बन रहे हैं?’

मछेन्द्रनाथ के बारे में गोरखनाथ का एक अन्य महत्वपूर्ण पद यह है–

गुरु षोजौ गुरदेव गुर षोजौ, बदंत गोरष ऐसा।
मुषते होइ तुम्हें बंधनि पड़िया, ये जोग है कैसा?
चांम ही चांम घसंता गुरदेव दिन दिन छीजै काया।
होठ कंठ तालुका सोषी, काढ़ि मिजालू षाया।
दीपक जाति पतंग गुरदेव, ऐसी भग की छाया।
बूढ़े होइ तुम्हें राज कमाया, नां तजी मोह माया।
बदंत गोरषनाथ सुनहू मछंदर, तुम्हें ईश्वर के पूता।
ब्रह्म झरंता ये नर राषै, सो बोलो अवधूता।

(वही, पृ. 14)

गोरखनाथ इस पद में कहते हैं– ‘हे गुरुदेव, वास्तविक गुरु की खोज कीजिए। मुक्त होकर भी आप बंधन में पड़ गए। इससे आपका शरीर क्षीण हो रहा है। होठ, कंठ, तालु सब सूख गए हैं। इसने मज्जा तक खा लिया है। जैसे दीपक की ज्योति से आकर्षित होकर पतंगा जल जाता है, वैसे ही भग (योनि) है, जिसके आकर्षण ने आपको नष्ट कर दिया है। हे मछंदर, गोरखनाथ का वचन सुनो। तुम तो ईश्वर के पुत्र हो। जो ब्रह्म की रक्षा करता है, वही अवधूत है। 

यहां ब्रह्म स्त्री से दूर रहने की स्थिति को कहा गया है और उस स्थिति को बनाए रखने वाले को अवधूत कहा गया है। इस संबंध में स्वयं मछेंद्रनाथ का क्या कथन है, इसकी हमें कोई जानकारी नहीं मिलती। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपने ग्रन्थ ‘नाथ-सम्प्रदाय’ में मछेंद्रनाथ का सिर से पाँव तक ब्राह्मणीकरण कर दिया है। उन्होंने उन्हें मिथकों के आधार पर गढ़ने का काम किया है और आध्यात्मिक माया-जाल में उलझाकर उन्हें वेदान्ती अद्वैत का लग्गू-भग्गू बना दिया है। उन्होंने मछेंद्रनाथ के नाम से लिखित संस्कृत ग्रंथों के हवाले से उन्हें कौल-साधक सिद्ध किया है, जो बड़े ही सुनियोजित तरीके से ब्राह्मणी ब्रह्मजाल को मजबूत करने का उपक्रम है।

वास्तव में न तो सिद्धों ने और न ही नाथों ने संस्कृत में काव्य-रचना की है। सभी 84 सिद्ध प्राकृत (जनभाषा) भाषाओं के कवि थे और सभी वर्णव्यवस्था, वेद-शास्त्रों, ब्राह्मणवादी मायाजाल के आलोचक थे। इसलिए यह कहना कि मछेंद्रनाथ ने संस्कृत में कोई ग्रंथ लिखा था, ब्राह्मणी दुष्प्रचार के सिवा कुछ नहीं है।

नाथ पंथ में जालंधरपाद के शिष्य मछेन्द्रनाथ का महत्वपूर्ण स्थान है। पर, उनका व्यक्तित्व और कृतित्व दंतकथाओं और ब्राह्मणी गल्पों से दबा पड़ा है। इन कथाओं और गल्पों का वैज्ञानिक तथा ऐतिहासिक विश्लेषण करने का प्रयास नहीं हुआ। परिणामतः, मछेंद्रनाथ जैसे महासंत के बारे में बहुत ही कम सही जानकारी मिलती है।

नाथ पंथ और वैदिक साजिशें

वैदिक धारा के पंडितों ने अपने विरोधी संतों और सिद्धों का मूलोच्छेद करके उनका अस्तित्व मिटाने का प्रयास किया है। यदि ऐसा संभव न हुआ, तो उनकी खूब निन्दा करके जनता में उनको बदनाम करने का काम किया। इससे भी काम न बना, और जनता में उनके प्रति श्रद्धा बढ़ती ही गई, तो वे उनके शिष्य बनकर उनके पंथ में घुस गए और वहां रहकर उनके बारे में ऐसी-ऐसी बेसिर-पैर की मनगढ़न्त कहानियां गढ़कर प्रचारित कर दीं कि वे सहज संत न रह कर, चमत्कारी पुरुष बन गए। मछेन्द्रनाथ और गोरखनाथ दोनों महासंतों के साथ ब्राह्मणों ने यही किया। मछेन्द्रनाथ को मछली के पेट से और गोरखनाथ को गोबर से पैदा हुआ दिखाकर उनका भरपूर विकृतीकरण किया गया। इस विकृतीकरण से मछेन्द्रनाथ का उद्धार जरूरी है।

मछेन्द्रनाथ के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालने से पूर्व हमें यह देखना होगा कि उनके समय की राजनीतिक और परिस्थितियां क्या थीं?

पीछे कहा जा चुका है कि मछेन्द्रनाथ राजा देवपाल के समकालीन थे, जिनका समय 809 से 849 ई. है। यह वह समय था, जब अरब या इस्लामिक शक्तियों ने भारत की धरती पर पैर रखना शुरू कर दिया था। यद्यपि अभी मुस्लिम राज्य को कायम होने में देर थी, पर 711 ई. में मुहम्मद बिन कासिम ने सिन्ध पर विजय हासिल कर ली थी। दूसरी ओर, बुखारा में 709 ई. में ही इस्लाम बौद्धधर्म को नष्ट कर चुका था। भारत में पाल-वंश स्थापित हो चुका था। देवपाल उसी वंश के थे और उनके समय में इस्लाम दस्तक दे चुका था। तो भी, जैसाकि राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है, ‘मगध भूमि बौद्धधर्म का केन्द्र थी, जहां बड़े-बड़े बौद्ध विद्या केन्द्र थे।’ (दोहा-कोश, भूमिका, पृ. 3) इस्लामिक-कट्टरपंथियों के लिए जैसे ब्राह्मण-धर्म काफिरों का धर्म था, वैसे ही बौद्धधर्म था। इसलिए मंदिरों के साथ, बौद्ध विहार और मठ भी मुस्लिम हमलावरों के निशाने पर थे। यद्यपि गजनी के हमले अभी डेढ़ सौ साल बाद होने थे, पर देश की राजनीतिक परिस्थितियाँ बदलने लगीं थीं। हालाँकि, सामाजिक विकास अत्यन्त धीमा था, परन्तु ब्राह्मणवाद और वर्णव्यवस्था के खिलाफ जनता में विद्रोह बढ़ रहा था। इस्लाम इस विद्रोह को नई ताकत दे रहा था। बौद्धधर्म के महायान का विकास आठवीं शताब्दी में ही वज्रयान में हो चुका था, जिसके प्रथम प्रणेता और आचार्य सरहपाद थे, जिनका बाद में मोहभंग हो गया। आठवीं शताब्दी में ही शंकराचार्य का अद्वैतवाद और मायावाद भी स्थापित हो चुका था। अब उनमें कुछ और नए पंथों का विकास हो रहा था। सामन्तवादी शक्तियाँ जनता के विद्रोह को धर्म की अफीम से शांत करने का प्रयास कर रहीं थीं। ब्राह्मण-धर्म (वैष्णव-धर्म) का पतन पहले ही हो चुका था। अब उसे नए सिरे से खड़ा होने के लिए नए आधार की जरूरत थी। अतः सामन्ती शक्तियों और ब्राह्मणों के गठजोड़ से धार्मिक क्षेत्र में एक नया कट्टरवाद उभर रहा था। दूसरी ओर, इस्लाम से रक्षा के लिए सिद्धों ने भी अनीश्वरवाद से ईश्वरवाद का रास्ता अपना लिया था और बुद्ध-वचनों की अलौकिक व्याख्याएँ करनी शुरू कर दी थीं। यदि आठवीं शताब्दी की परिस्थितियों ने वज्रयान को जन्म दिया था, तो नौवीं शताब्दी की परिस्थितियों ने वज्रयान की धारा को नाथ पंथ में बदल दिया था। सिद्ध शून्यवादी और अनीश्वरवादी थे, जबकि नाथों ने शून्य को परमपद और अनीश्वरवाद को ईश्वरवाद का रूप दे दिया था। इस नए पंथ के प्रवर्तक जालन्धरपाद थे, जिन्हें आदि नाथ भी कहा जाता है।

जालन्धरपाद के शिष्य मछेन्द्रनाथ पंथ में बड़े पहुंचे हुए सिद्ध और संत थे। उनका व्यक्तित्व भव्य और आकर्षक था। जो भी उन्हें देखता, मंत्र-मुग्ध हो जाता था। उनके सिद्ध और चमत्कारी पुरुष होने की जनसाधरण में बहुत सी कहानियाँ प्रचलित हैं। ये कहानियाँ उनके व्यापक प्रभाव का प्रमाण हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि ये कहानियाँ बाद में बनीं, जब उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक हो गई थी और जनता उन्हें अपना मुक्तिदाता मानने लग गई थी। तब, कहानीकारों ने उनके वास्तविक स्वरूप पर पर्दा डालने के लिए मिथ्या कहानियाँ गढ़ीं, जो आगे चलकर उनके व्यक्तित्व का हिस्सा बन गईं। पर इससे उनका विद्रोही व्यक्तित्व दब गया। अतः उनके वास्तविक स्वरूप को सामने लाने के लिए एक-दो कहानियों का विश्लेषण करना जरूरी है।

ऐसी ही एक कहानी इस प्रकार है कि शिव ने ही अपना वेश ज्यों का त्यों मछेन्द्रनाथ को दे दिया था। दूसरी कहानी यह है कि शिव का वेश पाने के लिए मछेन्द्रनाथ ने कठोर तपस्या की थी, जिससे प्रसन्न होकर शिव ने उन्हें अपना वेश दे दिया था। इस कहानी का सिर्फ इतना ही अर्थ है कि मछेन्द्रनाथ का रूप शिव के रूप जैसा था। अर्थात, वह शिव जैसे दिखते थे, जैसे– शान्ति-स्वरूप, तुषार धवल शरीर, निर्वैर भाव, विशाल नेत्र, सिर पर जटा-जूट और कानों में बड़े-बड़े कुण्डल। उन्हें आता देखकर जनसाधरण को यही आभास होता था कि साक्षात शिव ही चले आ रहे हैं।

एक कहानी का उल्लेख हम पीछे कर चुके हैं कि कार्तिकेय ने ‘कुलागम शास्त्र’ चुराकर समुद्र में फेंक दिया था। तब उस शास्त्र का उद्धार करने के लिए भैरव अर्थात शिव ने मछेन्द्रनाथ का अवतार धारण कर, समुद्र में घुसकर उस शास्त्र का भक्षण करने वाले मत्स्य का उदर चीरकर शास्त्र का उद्धार किया था।

इस कथा के वास्तविक अर्थ को समझने के लिए हमें ‘कुलागम’ को समझना होगा। मछेन्द्रनाथ को कौलाचार का सिद्ध पुरुष माना जाता है और यह भी कि उनका संबंध योगिनी कौल-मार्ग से था। ‘कुल’ से ‘कौल’ शब्द बना है; अतः जो कुल-परंपरा में है, वही कौल है। ‘आगम’ का अर्थ है, अनादि परंपरा से आया हुआ ज्ञान। इसी आधर पर शैव-ग्रंथों को ‘आगम’ और वैदिक ग्रंथों को ‘निगम’ कहा जाता है। दूसरे शब्दों में परंपरा से प्राप्त ज्ञान ‘आगम’ और वेदों से प्राप्त ज्ञान ‘निगम’ माना जाता है। ‘कुलागम’ ग्रंथ की रचना मछेन्द्रनाथ ने की थी, जिसमें कौलाचार का विवेचन है। कौलाचार का अर्थ है, शैवधर्म पर विश्वास करते हुए अपने कुलों के अनुरूप आचरण। चूंकि शैवधर्म अथवा आगम-पंथ जाति-वर्ण-विहीन होने के कारण उसका द्वार सभी के लिए खुला था, इसलिए वह वैदिक अथवा ब्राह्मण-धर्म के लिए घातक था। यही कारण था कि कार्तिकेय ने ‘कुलागम’ ग्रंथ को नष्ट करने की कोशिश की थी, जिसे मछेन्द्रनाथ ने विफल कर दिया था। जब ग्रंथ नष्ट नहीं हो सका, और मछेन्द्रनाथ के आगे ब्राह्मणों का कोई बश नहीं चला, तो उन्होंने शिव द्वारा मछेन्द्रनाथ का अवतार लेकर समुद्र में घुसकर मछली के पेट से ‘कुलागम’ को बचाने की कहानी गढ़ी।

हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार, ‘काश्मीर के कौल मार्ग में मत्स्येन्द्रनाथ (मदेन्द्रनाथ) को बड़ी श्रद्धा से याद किया जाता है। (नाथ-संप्रदाय, पृ. 5) कहा जाता है कि नेपाल में मत्स्येन्द्री नामक जाति के लोग मछेन्द्रनाथ की पूजा करते थे। इस कारण वहां के तत्कालीन राजे और राजपुरुष उन पर अत्याचार करते थे। उनको अत्याचारों से मुक्त कराने के लिए वहां गुरु गोरखनाथ ने अपने शिष्य वसंत को मिट्टी के पुतले बनाने का आदेश दिया। गुरु की कृपा से वे पुतले सैनिक बन गए, जिन्होंने महीन्द्रदेव पर चढ़ाई की और इस प्रकार 420 संवत में वहां गोरखा राज्य स्थापित हुआ। (वही, पृ. 47)

इससे प्रतीत होता है कि मछेन्द्रनाथ का नेपाल में व्यापक प्रभाव था और गोरखनाथ ने उस प्रभाव को राजसत्ता के विरुद्ध मोड़ दिया था।

मछेन्द्रनाथ का ब्राह्मणीकरण करने का प्रयास

अधिकतर कहानियां मछेन्द्रनाथ का विकृतीकरण और वीभत्सीकरण करती हैं। उनमें से एक कहानी इस प्रकार है– ‘कवि नारायण मत्स्येन्द्रनाथ के रूप में एक भृगुवंशीय ब्राह्मण के घर अवतरित हुए थे। किन्तु गंडन्त योग में पैदा होने के कारण उस ब्राह्मण ने उन्हें समुद्र में फेंक दिया। एक मछली उन्हें बारह वर्ष तक निगले रही और वह उसके पेट में ही बढ़ते रहे। शिव द्वारा पार्वती को सुनाई जाने वाली अमर कथा को मछली के पेट से इस बालक ने सुना। वह बालक बाद में शिव द्वारा अनुगृहीत और उद्धत होकर महासिद्ध हुआ। इस बालक ने अपनी अपूर्व सिद्धि के बल से हनुमान, वीर वैताल, वीरभद्र, भद्रकाली और चामुण्डा देवी को पराजित किया। परन्तु दो बार वह गृहस्थी के चक्र में फॅंस गए। प्रथम बार तो प्रयागराज के राजा के मरने से शोकाकुल जनसमूह को देखकर गोरखनाथ ने ही उनसे राजा के मृत शरीर में प्रवेश करके लोगों को सुखी करने का अनुरोध किया और तब मत्स्येन्द्रनाथ ने अपने मृत शरीर की बारह वर्ष तक रक्षा करने की अवधि देकर राजा के शरीर में प्रवेश किया। बारह वर्ष तक वह सानन्द गृहस्थ-जीवन व्यतीत करते रहे। दूसरी बार त्रियादेश (सिंहल देश) की रानी ने अपने रुग्ण-क्षीण पति से असंतुष्ट होकर अन्य योग पुरुष की कामना करती हुए हनुमानजी की कृपा प्राप्त की। हनुमानजी ने स्वयं गृहस्थी के बन्धन में बॅंधना अस्वीकार किया, पर मत्स्येन्द्रनाथ को ले आ दिया। रानियों ने राज्य में योगियों का आना निषेध कर दिया था। किसी तरह गोरखनाथ ने बालक वेश बना राज्य में प्रवेश किया और अपने गुरु का उद्धार किया।’ (वही, पृ. 48)

इस कहानी में मछेन्द्रनाथ को योगी बनाने का प्रयास किया गया है। इसमें हनुमान को योगी ब्रह्मचारी दिखाया गया है, जबकि ऐतिहासिक रूप से हनुमान का कोई अस्तित्व ही नहीं है। मछेन्द्रनाथ को विलासी दिखाते हुए उनकी उत्पत्ति की कहानी उसी तरह गढ़ी गई है, जिस तरह कबीर और रैदास साहब को पूर्वजन्म का ब्राह्मण बताने वालीं कहानियाँ गढ़ी गई हैं। इस कहानी में ब्राह्मण पिता मत्स्येन्द्रनाथ (मछेन्द्रनाथ) को गंडन्त योग में पैदा होने के कारण समुद्र में फेंक देता है, जिस तरह ब्राह्मणी विधवा कबीर को जन्म देकर लोकलाज के भय से तालाब में फेंक देती है। क्या इस गल्प पर विश्वास किया जा सकता है कि कोई पिता अपने पुत्र को समुद्र में फेंक दे और वह मछली के पेट में पले? दरअसल, ब्राह्मणों के दिमाग में यह मिथ्या विश्वास घुसा हुआ है कि प्रतिभा सिर्फ ब्राह्मणों में ही हो सकती है। वे यह स्वीकार करना नहीं चाहते कि प्रतिभा का जाति से कुछ भी संबंध नहीं है। गैर-ब्राह्मणों और निम्नजातियों में जन्मे लोग भी विद्वान और सिद्ध हो सकते हैं। इसलिए ब्राह्मणों ने अपने मिथ्या अहं को संतुष्ट करने के लिए ही मछेन्द्रनाथ को ब्राह्मण बनाने की कहानी गढ़ी। रानियों के साथ विलास की कहानी भी मछेन्द्रनाथ का चरित्र-हनन करने का ही प्रयास है।

स्त्री देश में मछेन्द्रनाथ के जाने और स्त्रियों के साथ रमण करने का उल्लेख गोरखनाथ की वाणी में भी मिलता है। किन्तु यह पता लगाना मुश्किल है कि वह स्त्री-देश कौन सा था? ऐसे किसी भी देश की कल्पना नहीं की जा सकती, जिसमें सिर्फ स्त्रियाँ ही निवास करती हों, पुरुष नहीं। यदि स्त्री-देश से मतलब उस देश से लगाया जाए, जहां स्त्री-सत्ता थी, तो ऐसे बहुत से देश खोजे जा सकते हैं। उनमें से किस देश में मछेन्द्रनाथ गए थे, यह कैसे जाना जाए? स्पष्ट है कि यह मनगढ़न्त कथा है, जो मछेन्द्रनाथ का वीभत्सीकरण करने के उद्देश्य से बनाई गई है।

गोरखनाथ की वाणी और उपर्युक्त कथा से भी यह स्पष्ट होता है कि मछेन्द्रनाथ ने गृहस्थ जीवन स्वीकार कर लिया था। गोरखनाथ ने अपने गुरु के गृहस्थ-जीवन की निन्दा करते हुए स्त्री-संसर्ग को योग-साधना में बाधक माना। उन्होंने उन्हें स्त्रियों से दूर रहने का उपदेश दिया। उन्होंने कहा कि स्त्रियों के साथ रमण करने से योग नष्ट और शरीर क्षीण हो जाता है।

मछेन्द्रनाथ और गोरखनाथ के बीच मतभिन्नता का निहितार्थ

ऐसा प्रतीत होता है कि योग-साधना को लेकर मछेन्द्रनाथ और गोरखनाथ की मान्यताएँ समान नहीं थीं। जहां गोरखनाथ स्त्री-संसर्ग को पाप कहते थे, वहां मछेन्द्रनाथ के विचारों में परिवर्तन आया था और वह इस मत के हो गए थे कि गृहस्थ-जीवन में भी योग-साधना भली-भांति की जा सकती है। उनकी दृष्टि में योग का अर्थ गृहस्थ-जीवन का त्याग करना नहीं था, बल्कि काम-वासनाओं, लोभ, मोह और विकारों पर नियन्त्रण करना था। उनकी स्त्री-संसर्ग कहानियों से यह नहीं समझना चाहिए कि वे भोगी थे और स्त्रियाँ उनकी कमजोरी थी, बल्कि इससे हमें यही निष्कर्ष निकालना चाहिए कि मछेन्द्रनाथ बाद में गृहस्थ हो गए थे, जैसे सरहपाद हो गए थे। इससे उनका महत्व कम नहीं हो जाता, पर यह हो सकता है कि उनके गृहस्थ होने से कौलाचारियों की योग-साधना में स्त्री-मैथुन की धारा चल निकली हो और उसके कारण गोरखनाथ को स्त्री-विरोधी दृष्टिकोण अपनाना पड़ा हो।

मछेन्द्रनाथ के विचार क्या थे? इसका पता हमें ‘गोरख-बानी’ में संग्रहीत ‘मछीन्द्र-गोरष बोध’ से चलता है। इसमें गोरखनाथ के प्रश्न और मछेन्द्रनाथ के उत्तर हैं। इसलिए यह बहुत ही महत्वपूर्ण संवाद है। गोरखनाथ पूछते हैं : ‘आरम्भ में चेला कैसे रहे?’ मछेन्द्रनाथ उत्तर देते हैं : ‘अवधू (अवधूत) रहे, काम, क्रोध, तृष्णा और संसार की माया त्याग दे।’ (आरम्भी चेला यहि बिंधि रहै, गोरष सुणौ मछींद्र कहै) (गोरख-बानी, पृ. 186)

अवधू का अर्थ है, बोधपूर्ण व्यक्ति, सिद्ध। नाथ पंथ के सिद्ध योगी अवधू कहे जाते हैं। इसका एक अर्थ यह भी है कि वह बॅंधा नहीं है। गोरख पूछते हैं : ‘स्वांमी कौन देषिबा कौन विचारिबा, कौन ले धिरबा सारं।’ (किसे देखें, किसे विचारें औा किसे धारण करें?) मछेन्द्रनाथ बताते हैं : ‘अवधू आपा देषिबा, अनन्त विचारिबा, तत ले धिरवा सारं।’ (अवधू अपने आपको देखे, अनन्त विचारे और सार-तत्व को ग्रहण करे।) (वही)

गोरख पूछते हैं : ‘स्वांमी मन का कौन रूप, पवन का कौन आकार?’ मछेन्द्रनाथ बताते हैं : ‘अवधू मन का सुंनि रूप, पवन का निरालम्भ आकार।’ (अवधू मन का रूप शून्य और पवन का आकार निरालम्भ है, यानी, कोई आलम्भ नहीं।) (वही, पृ. 187)

यहां मछेन्द्रनाथ ने बुद्ध-कुल (परंपरा) को सुरक्षित रखा है। यहां यह उल्लेखनीय है कि सभी सिद्धों ने बुद्ध को सिद्ध किया, इसीलिए वे ‘सिद्ध’ कहलाए। यही कुलागम और कौलाचार है। बौद्ध-दर्शन में शून्यवाद नागार्जुन की देन है। शून्यवाद को सिद्धों और नाथों ने ही नहीं, बल्कि आगे चलकर कबीर और रैदास आदि निर्गुणवादी संतों ने भी अपनाया। एक प्रकार से निर्गुण शून्य का एक दार्शनिक रूप है। कबीर ने ‘आतम राम’ को ही परमपद कहा है, यही शून्य और यही निर्वाण है। अपने आपको देखने की बात कहकर मछेन्द्रनाथ ने भी बुद्ध के निर्वाण को स्वीकार किया।

 इस संवाद में आगे और भी स्पष्ट रूप से मछेन्द्रनाथ ने शून्यवाद को पुष्ट किया है। यथा, गोरखनाथ प्रश्न करते हैं–

स्वांमी कौन सुंनि उतपनां आई। कौण सुंनि सतगुरु बुझाइ।
कौन सुंनि मैं रह्या समाइ। ए तत्वा गुरू कहौ समुझाइ।

 मछेन्द्रनाथ उत्तर देते हैं–

अवधू सहज सुंनि उतपनां। समि सुंनि सतगुरु बुझाइ।
अतीत सुंनि मैं रह्या समाइ। परमतत्व मैं कहूँ समुझाइ।

(वही, पृ. 193)

अर्थात, सहज रहने में शून्य उत्पन्न होता है। सहज का अर्थ है, निर्दोष-भाव, निर्विकार-भाव, निरहंकार-भाव, निर्वैर-भाव और सम (शांत शून्य)। सदगुरु बताते हैं कि कौन शून्य में रहता है? अतीत शून्य में रहता है, जैसे सितार से संगीत फूटता है। जब सितार नहीं था, तो संगीत कहां था? वह कहीं नहीं गया था, अतीत में था। यही परमतत्व है।

गोरखनाथ के एक प्रश्न के उत्तर में मछेन्द्रनाथ कहते हैं कि मन को स्थिर करना ही योग है। वही योगी है, जो उनमन (रूप-अरूप) रहता है। यथा : ‘अवधू मन जोगी जै उनमनि रहै, उपजै महारस सब सुष लहै।’ (वही, पृ. 201) इस विचार में बुद्ध का दर्शन ही मौजूद है।

वैचारिक स्तर पर सिद्धों और नाथों में काफी समानताएँ हैं। दोनों ने लोक भाषा में काव्य-रचना की है। दोनों का जोर सहज अथवा नैसर्गिक जीवन पर था। दोनों ने ब्राह्मणवाद और वर्णव्यवस्था का खंडन किया है। दोनों ने मन की शुद्धि और स्थिरता की बात कही है। योग, ध्यान और समाधि दोनों के साधन हैं। दोनों ही बौद्ध-परंपरा में हैं। किन्तु दोनों के बीच फिर भी एक बड़ा अन्तर है। वह अन्तर है धर्म को लेकर। नाथों ने बुद्ध के स्थान पर शिव को अपना देव माना, जिससे वे ईश्वरवादी हो गए। यह परिवर्तन जालंधरपाद के समय से शुरू हुआ। इसके लिए उनके समय की राजनैतिक परिस्थितियाँ जिम्मेदार थीं। मुसलमानों के हमलों से स्वयं की रक्षा का उनके पास ईश्वरवादी होना ही एकमात्र उपाय था, क्योंकि नास्तिक बौद्ध होकर वे मुस्लिम कट्टरवादियों कोप से अपनी रक्षा नहीं कर सकते थे। शायद इसीलिए उन्होंने अपना वेश भी शिव जैसा ही बनाया, और शिव की उपासना की शिक्षा देने लगे। लेकिन उल्लेखनीय है कि गोरखनाथ ने जिस अर्थ में शिव के स्वरूप की व्याख्या की, वह निर्गुण शिव ही हैं और उसी ने भक्तिकाल में निर्गुण-दर्शन की आधारशिला रखी।

(संपादन : नवल)

(आलेख परिवर्द्धित : 10 अक्टूबर, 2021 02:01 PM)


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कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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