[दलित साहित्यकार व समालोचक कंवल भारती ने वर्ष 2003 में झारखंड की राजधानी रांची की यात्रा की थी। उनके साथ दलित साहित्यकार मोहनदास नैमिशराय, श्योराज सिंह बेचैन और सुभाष गाताडे भी थे। अपनी पहली किश्त में उन्होंने झारखंड के दलित समुदायों के बारे में जानकारी थी। आज पढ़ें, उनके संस्मरण की दूसरी किश्त]
15 नवम्बर 2003, विधायक निवास, कमरा नंबर 226 : आदिवासी लड़ रहे हैं हिंदू नहीं कहे जाने की लड़ाई
सुबह 9 बजे कमरे में आदिवासी समुदाय के कुछ प्रबुद्ध लोग, जिनमें देवकुमार धान और उनकी महासमिति के सदस्य थे, हमसे मिलने आए। उन्होंने हमें एक पर्चा दिया, जिसके साथ 15 पृष्ठों का राज्यपाल के नाम एक ज्ञापन संलग्न भी था। पर्चे पर लिखा था : ‘अपील– आदिवासी अस्तित्व बचाओ आंदोलन’ उसमें कहा गया था : ‘हम आदिवासी समुदाय के पूर्वजों ने जमीन, जंगल और जल पर पारंपरिक मालिकाना हक के लिए संघर्ष करते हुए अपने प्राणों की आहूति दी। आदिवासी अस्तित्व पहचान और अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष करते हुए ही अलग राज्य का सपना भी देखा था। 74 वर्षों तक संघर्ष और कुर्बानियों के बाद, आजादी के 53 वर्षों के पश्चात 2000 ई. में हमारे पूर्वजों का अलग राज्य का स्वप्न साकार हुआ।’ यह अपील झारखंड प्रदेश पड़हा-राजा, मॉंझी-परगनैत, मानकी-मुंडा, डोकलो-सोहोर महासमिति की केंद्रीय कार्यकारिणी समिति की ओर से की गई थी। इसी महासमिति की ओर से ज्ञापन तैयार किया गया था, जिस पर देवकुमार धान के हस्ताक्षर थे। देवकुमार धान शुरू से कांग्रेसी रहे थे और उस समय भी वह कांग्रेस से विधायक थे।
इसमें संदेह नहीं कि अलग झारखंड राज्य की मांग और लड़ाई काफी पुरानी थी। 1945 में जयपाल सिंह मुंडा ने झारखंड पार्टी की स्थापना पृथक झारखंड राज्य की लड़ाई लड़ने के लिए ही की थी। उन्होंने 16 जिलों के झारखंड [वृहद] राज्य का नक्शा भी तैयार कर लिया था। उसके कई क्षेत्रों को बाद में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में शामिल कर लिया। बाद में 1950 में जयपाल सिंह ने भी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के आश्वासन पर अपनी पार्टी का ही कांग्रेस में विलय कर लिया। लेकिन झारखंड की लड़ाई खत्म नहीं हुई। इसके बाद वह और भी कई मोरचों से लड़ी जाने लगी। विनोद बिहारी महतो और शिबू सोरेन के नेतृत्व में ‘झारखंड मुक्ति मोर्चा’ बना। उसके बाद तो यह आंदोलन किसी एक जाति का न रहकर झारखंड की सम्पूर्ण जनता का आंदोलन बन गया। वर्ष 1978 में ही झारखंड आंदोलन का मुख-पत्र ‘झारखंड-वार्ता’ निकला, जिसका पहला अंक 5 फरवरी, 1978 को ‘झारखंड : क्या, क्यों और कैसे’ विषय पर वीर भारत तलवार के संपादन में प्रकाशित हुआ था। यह अंक हमें वासवी किड़ो ने उपलब्ध कराया था। इस अंक से झारखंड आंदोलन को ठीक से समझने में मुझे बहुत सहायता मिली।
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वर्ष 2000 में झारखंड बना और बिल्ली के भाग्य से छींका भगवा ब्रिगेड भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के हाथ लगा। भाजपा के बारे में तो पता ही है कि उसकी नीतियां हिंदूवादी हैं और आरएसएस के मुख्यालय नागपुर से तय होती हैं, सो भाजपा ने सत्ता में आते ही झारखंड का भगवाकरण करना शुरू कर दिया – आदिवासी संस्कृति, संस्थाओं और धर्म सबका रंग भगवाकरण कर दिया तथा इसी के साथ उसकी आड़ में आदिवासियों से जल, जमीन, जंगल छीनकर पूंजीपतियों को सौंपने का भाजपा का क्रूर खेल शुरू हो गया। भाजपा सरकार ने झारखंड का राजकीय फूल ‘पलाश’ घोषित कर दिया, जबकि आदिवासी ‘सरई’ के फूल को राजकीय फूल मानते हैं। पलाश का फूल लाल और पीला दोनों रंग का होता है। यह भाजपा के हिंदुत्व के भगवा रंग से मेल खाता है। आदिवासी समाज में सरई के फूल का सांस्कृतिक महत्व है। इस फूल के बिना कोई मांगलिक कार्य नहीं होता। सरई का फूल सफेद रंग का होता है, जो अहिंसा और शांति का भी प्रतीक है। सरई का फूल गुच्छों में खिलता है, आदिवासियों की तरह। वे भी समूह में नाचते-गाते हैं। आदिवासियों की मांग है कि सरकार पलाश की जगह सरई के फूल को राष्ट्रीय फूल घोषित करे।
देवकुमार धान और उनके साथियों ने बताया कि आदिवासियों की मांग है कि जनगणना में उन्हें हिंदू न लिखा जाए, वरन ‘सरना’ लिखा जाए। उन्होंने बताया कि आदिवासी लोग हिंदू नहीं हैं। उनका धर्म सरना है। सरना का अर्थ है प्रकृति-पूजा। इसके अनुसार सरना-धर्म के तीन देवता है : (1) इकिर बोंगा– जल देवता, (2) बुरू बोंगा– पहाड़ देवता और (3) सिंग बोंगा– सूर्य देवता। इस प्रकार, आदिवासी लोग पहाड़, नदी और सूर्य की पूजा करते हैं। लेकिन भाजपा और आरएसएस के लोग आदिवासियों को हिंदू बनाने पर तुले हुए हैं। उनसे बातचीत करने से पता चला कि वे झारखंड में अपनी ‘स्वशासन’ व्यवस्था लागू करना चाहते थे। वे सरकारी पंचायत-व्यवस्था का विरोध कर रहे हैं, जो भाजपा सरकार द्वारा स्थापित की गई है। स्वशासन के बारे में उन्होंने बताया कि यह व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सामूहिक व्यवस्था है। ‘इससे हम गांव में बेहतर तरीके से समस्याएं हल करते हैं। यह हमारी अपनी शासन-व्यवस्था है, जिससे हमारे रीति-रिवाज, हमारी संस्कृति और भाषा जुड़ी हुई है। हमारे यहां पूजा का विधान भी सामूहिक है। उसमें व्यक्ति-पूजा नहीं है, कोई पुरोहित नहीं है। विवाह की रस्म में आदिवासी लोग लड़की खरीदते हैं, जबकि हिंदू लोग लड़का खरीदते हैं।’ उनके यहां पुजारी बनने की भी एक रस्म है। वे बताते हैं, ‘मुर्गी की पूजा करके छोड़ देते हैं। शाम को वह जिसके घर में घुस जायगी। वह तीन साल के लिए पुजारी हो जाएगा।’ बलि के संबंध में वे बताते हैं कि बलि-प्रथा बाद में आई। ‘यह आदिवासी प्रथा नहीं है।’
यह पूछने पर कि आदिवासी समाज में कितने समुदाय हैं, उन्होंने बताया कि आदिवासी समाज में पांच बड़े समुदाय है– (1) संताल या संथाल, (2) उरांव, (3) मुंडा, (4 ) हो और (5) खड़िया। इन पांचों समुदायों की भाषाएं भी अलग-अलग हैं। उरांव कुड़ख, संताल संताली, हो समुदाय के लो हो और खड़िया समुदाय के लोग खड़िया भाषा बोलते हैं। ‘आदिवासी अस्तित्व बचाओ महासभा’ के संरक्षक देवकुमार धान ने बताया कि हमारी भाषाओं को दो-तीन करोड़ लोग बोलते हैं। उनकी मांग थी कि इन भाषाओं को संविधान की आठवीं सूची में रखा जाए और स्नातकोत्तर स्तर तक पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए। उनसे जब यह पूछा गया कि रांची में फिर कौन सी भाषाएं पढ़ाई जाती हैं, तो उनका कहना था, ‘रांची में जो भाषाएं पढ़ाई जाती हैं, वे खोरठ, पंच परगनिया, नागपुरी, कुरमाती भाषाएं हैं।’ उन्होंने बताया कि ये आदिवासी भाषाएं नहीं हैं, बल्कि ‘क्षेत्रीय भाषाएं हैं, और ये इसलिए पढ़ाई जाती हैं, क्योंकि ये आर्य-भाषा-परिवार की हैं।’
आदिवासियों का हिंदूकरण किए जाने के बारे में उन्होंने बताया कि जनगणना में आदिवासियों के लिए 1960 तक धर्म-कोड का कॉलम था। उसके बाद यह कालम गायब हो गया, और अब जनगणना में आदिवासियों को हिंदू शामिल कर लिया गया। उन्होंने बताया कि धर्म का कॉलम हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई के लिए है, पर आदिवासियों के लिए नहीं है। मैंने कहा कि इसका मतलब यह है कि आदिवासियों के हिंदूकरण की शुरूआत कॉंग्रेस सरकारों ने ही की। उन्होंने स्वीकार किया कि हॉं। पर, उन्होंने बताया कि आदिवासियों का विरोध भी तभी से जारी है।
(क्रमश: जारी…)
(संपादन : नवल)
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