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जाति सहित हर तरह की असमानता के खिलाफ संघर्ष ही दलित साहित्य है : अनिता भारती

आलोचना के क्षेत्र में दलित साहित्य की सबसे बुरी स्थिति है। सवर्ण साहित्यकार व समालोचक दलित साहित्य की चर्चा और उस पर लिखने के नाम पर चुप्पी साध जाते हैं। और यदि कोई सवर्ण समालोचक दलित साहित्य पर कुछ काम कर लेता है, तो अन्य उसे दलित साहित्य का ठेकेदार घोषित कर उसे अपने हर मंच पर और पत्रिका में जगह देते हैं। दलित लेखक संघ की अध्यक्ष अनिता भारती से डॉ. कार्तिक चौधरी की खास बातचीत

चर्चित कहानीकार आलोचक व कवयित्री अनिता भारती वर्तमान में दलित लेखक संघ की अध्यक्ष हैं। उन्होंने, दलित स्त्री के प्रश्नों पर निरंतर लेखन किया है। ‘इनके सृजन व उपलब्ध्यिों में शामिल हैं– ‘समकालीन नारीवाद और दलित स्त्री का प्रतिरोध’ (आलोचना पुस्तक), ‘एक थी कोटेवाली’ (कहानी-संग्रह), ‘एक कदम मेरा भी’ (कविता संग्रह), ‘रुखसाना का घर’ (कविता संग्रह), ‘यथास्थिति से टकराते हुए दलित स्त्री जीवन से जुड़ी कहानियां’ (संयुक्त संपादन), ‘यथास्थिति से टकराते हुए दलित स्त्री जीवन से जुड़ी कविताएं’ (संयुक्त संपादन), ‘दलित स्त्री के जीवन से जुडी आलोचना’ (संयुक्त संपादन), ‘स्त्रीकाल’ के दलित स्त्रीवाद विशेषांक की अतिथि संपादक ‘सावित्रीबाई फुले की कविताएं’(संपादन) और ‘छूटे पन्नों की उड़ान’ (आत्मकथा)। साथ ही, युद्धरत आम आदमी’ के विशेषांक ‘स्त्री नैतिकता का तालिबानीकरण’ की अतिथि संपादक रहीं अनिता भारती से फारवर्ड प्रेस के लिए डॉ. कार्तिक चौधरी ने खास बातचीत की है। प्रस्तुत है इस बातचीत का संपादित अंश

मौजूदा समय में आप दलित लेखक संघ की अध्यक्ष है। इस नाते वर्तमान समय में दलित साहित्य के समक्ष चुनौतियों को आप किस तरीके से देखती हैं?

दलित लेखन और दलित साहित्य हमेशा उपेक्षा का शिकार रहा है। दलित लेखक संघ को बने पच्चीस साल हो गए, परंतु दलित लेखकों को जो सम्मान और जो जगह मिलनी चाहिए थी, वह नहीं मिली। तथाकथित मुख्यधारा का साहित्य दलित साहित्य के प्रति हमेशा से पूर्वाग्रह से ग्रसित रहा है। मुख्यधारा की पत्र-पत्रिकाओं में दलितों व दलित साहित्य के लिए कोई स्थान नहीं है। सिर्फ दलित विशेषांक के नाम पर ही दलित साहित्य को थोड़ी बहुत जगह दी जाती है। तमास तरह की पत्र-पत्रिकाओं में और साहित्य विशेषांकों में दलित साहित्य को टोकन के रूप में भी जगह नहीं मिलती। चर्चित से चर्चित दलित साहित्यकारों का भी वह आदर-सम्मान प्राप्त नही है, जो सवर्ण साहित्यकारों का थोडा बहुत लिखकर ही मिल जाता है। गैर दलित साहित्यकारों की दलित साहित्य के प्रति अभी तक नकार, अवमानना और घृणा की भावना खत्म नहीं हुई है। आलोचना के क्षेत्र में तो दलित साहित्य की सबसे बुरी स्थिति है। सवर्ण साहित्यकार व समालोचक दलित साहित्य की चर्चा और उस पर लिखने के नाम पर चुप्पी साध जाते हैं। और यदि कोई सवर्ण समालोचक दलित साहित्य पर कुछ काम कर लेता है, तो अन्य उसे दलित साहित्य का ठेकेदार घोषित कर उसे अपने हर मंच पर और पत्रिका में जगह देते हैं। दलित साहित्य की विरासत को संभालने की प्रतिबद्धता कहीं नहीं दिखाई देती है। सरकारों द्वारा संपोषित अकादमियों, विभागों में दलित साहित्यकार न तो सदस्य है और ना ही उनके साहित्य को वहां कोई स्थान दिया जाता है। जाति देखकर पुरस्कार देने की परंपरा में दलित साहित्यकारों की पूरी तरह अनदेखी की जाती है। पिछले एक साल से दलित लेखक संघ लगातार दलित साहित्यकारों के साहित्य पर चर्चा करवा रहा है। ऐसे में कुछ तथाकथित प्रगतिशील लोग दलित साहित्यकारों में फूट डालने की कोशिश कर रहे है। आंबेडकरवाद की विचारधारा से शून्य लोग इन लोगों के हाथ की कठपुतली बनकर आंबेडकरवादी विचारघारा के खिलाफ काम कर रहे हैं। वैसे कहने को यह छद्म प्रगतिशील बहुत स्त्री हितैषी कहलाएं जाते हैं, परंतु इन छद्म प्रगतिशील लोगों को दलित लेखक संघ में सभी पदों के लिए चुनकर आयीं दलित साहित्यकार स्त्रियां कोई मायने नहीं रखतीं। यह किसी लेखक संघ के इतिहास में पहली बार हुआ कि जिसमें पूरी की पूरी महिला टीम सभी महत्वपूर्ण पदों पर चुनकर आई। ऐसा तो अनेक वर्षों से साहित्य के क्षेत्र में लगातार काम कर रहे जनवादी लेखक संघ (जलेस), प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस), जन-संस्कृति मंच (जसम) और अन्य लेखक संघों में भी कभी संभव नही हुआ। वहां स्त्री साहित्यकारों को नाममात्र या महज औपचारिकतावश जोड़ा गया। जबकि दलित लेखक संघ (दलेस) में अध्यक्ष के रूप में मैं अनिता भारती, उपाध्यक्ष गीता सहारे, सुमित्रा महरोल, महासचिव अंतिमा मोहन, सचिव प्रियंका सोनकर और कोषाध्यक्ष अंजलि रंगा चुनकर आई। यह सैद्धांतिक जीत दलेस को बाबा साहेब के स्त्री समानता के सिद्धांत को अमली जामा पहनाने के कारण मिली है।

दलित साहित्य में दलित स्त्री साहित्यकारों की क्या भूमिका है?

दलित साहित्य में दलित महिला साहित्यकारों का अहम योगदान रहा है । यदि मैं हिंदी दलित साहित्य की बात करूं तो अब हमारे पास दलित महिला साहित्यकारों की कोई कमी नहीं है। हमारे पास एक लंबी सूची है, जिसमें सुशीला टांकभौरे, रजनी तिलक, कावेरी, कुसुम मेघवाल, रजत रानी मीनू, रजनी दिसोदिया,रजनी अनुरागी, पूनम तुषामड़, कौशल पंवार, हेमलता महिश्वर, सुमित्रा महरोल, डॉ. नीलम, रानी कुमारी, प्रियंका सोनकर, ज्योत्सना सिद्धार्थ, अंजलि रंगा, मुन्नी भारती आदि वरिष्ठ और युवा लेखिकाएं शामिल हैं। दलित स्त्री साहित्यकार कहानी, कविता, आत्मकथा, आलोचना आदि सभी विधाओं में बहुत शिद्दत से लिख रही है। सिर्फ हिंदी में ही नहीं, बल्कि अन्य भारतीय भाषाऔं के दलित साहित्य में कल्याणी ठाकुर, उर्मिला पवार, प्रज्ञा पवार, बामा, बेबीताई काम्बले, पी. शिवकामी आदि महत्वपूर्ण व प्रसिद्ध लेखिकाएं हैं। हमारी इन दलित लेखिकाओं ने अपने साहित्य में सामाजिक हिंसा के साथ-साथ घरेलू हिंसा का चित्रण किया है। जातीयता की क्रूरता से उपजे सवालों के साथ पितृसत्ता के क्रूर उत्पीड़क रूप को अपने साहित्य का विषय बनाया है। ब्राह्मणवाद के चेहरे की पहचान कर उसके खिलाफ अपना साहित्य रचा है। दलित स्त्री साहित्यकारों में अपने दलित स्त्री होने की पीड़ा के साथ अपने व अपने समाज के मुद्दों और सवालों के बीच अपनी अस्मिता की पड़ताल की है। दलित स्त्री लेखन जातीय व लिंगीय उत्पीड़न के खिलाफ विद्रोह है, इसलिए दलित स्त्री साहित्यकार की भूमिका किसी भी सामान्य साहित्यकार से बहुत ही महत्वपूर्ण है।

दलित स्त्रीवाद क्या है?

दलित स्त्रीवाद दलित स्त्रियों के साथ किसी भी तरह का भेदभाव मसलन जातिवाद, ब्राह्मणवाद, लैंगिक विभेद, पितृसत्ता और शोषण के सभी रुपों का चाहे वह आर्थिक हो, सामाजिक हो, राजनैतिक हो या फिर सांस्कृतिक, इन सभी के खिलाफ मजबूती से स्त्रियों की स्वतंत्रता, समानता, अस्मिता, अधिकार, सामाजिक न्याय, के समर्थन में आंबेडकरवादी सिद्धांतो के साथ व्यवहार रुप में मजबूती से खड़े होने का नाम है। दलित स्त्रीवाद के उदय के कुछ कारण थे, जिनमें एक सबसे बड़ा कारण भारत में चल रहे तमाम तरह के स्त्री व प्रगतिशील आंदोलनों और विचारधाराओं में समाज की सबसे निचली सीढी पर खडी दलित स्त्री के मुद्दों, समस्याओं और उनके सवालों को दरकिनार करना तथा उनके जाति उत्पीड़न पर गहरी चुप्पी साध लेना रहा। दलित महिलाओं पर लगातार हो रही सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक हिंसा को स्त्री व अन्य आंदोलनों में शामिल न करना। सवर्ण महिलाओं का आंदोलन तो दलित महिलाओं के प्रति इस कदर असंवेदनशील रहा कि उसने न केवल दलित महिलाओं को अपने लक्ष्य और उद्देश्य के लिए भीड़ की तरह इस्तेमाल किया, बल्कि उसे तमाम तरह के प्रतिनिधित्व और पदों से भी दूर रखा। इन सवर्ण नारीवादियों ने दलित महिला आंदोलन को जातिवादी आंदोलन कहा और दलित महिला आंदोलन को महिलाओं की एकता को तोड़ने वाला कहकर उसे अलग से दलित स्त्री मुददों पर लड़ने और अलग से आंदोलन चलाने के लिए मजबूर किया। दलित स्त्रीवाद एक मनुष्य को उसके इंसानी हक, उसकी गरिमा और उसके संवैधानिक और प्रकृति प्रदत्त अधिकारों के पक्ष में, किसी भी तरह के भेदभाव का विरोध करता है। दलित स्त्रीवाद का मुख्य दुश्मन जातिवाद और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता है, जो किसी को छोटा किसी को बड़ा समझती है। दलित स्त्रीवाद लोकतांत्रिक समाज और परिवार में विश्वास रखता है। दलित स्त्रीवाद दलित स्त्री की अस्मिता की पहचान के साथ सभी मनुष्यों की गरिमामयी अस्मिता की पहचान के साथ खड़ा है। दलित स्त्रीवाद किसी भी तरह के असमान पहलू जो इंसान से इंसान में भेद और रंजिश पैदा करते हों, जैसे सांप्रदायिकता, सामंतवाद, पूंजीवाद या शोषण पर आधारित कोई व्यवस्था हो,उनके खिलाफ एक ऐसे सुंदर समाज की रचना के लिए प्रयासरत है, जिसमें सभी मनुष्य एक समान अधिकार और साधन प्राप्त होंगे, स्वतंत्र और शोषण मुक्त होंगे।

अनिता भारती, अध्यक्ष, दलित लेखक संघ

दलित स्त्रीवाद और गैर-दलित स्त्रीवाद में मुख्य अंतर क्या है?

दलित और गैर-दलित स्त्रीवाद में बहुत फर्क है। दलित स्त्रीवाद बुद्ध, जोतीराव फुले, सावित्रीबाई फुले और डॉ. आंबेडकर तथा अन्य समाज सुधारकों, जिन्होंने जातिगत असमानता तथा अन्य किसी भी तरह की असमानता और शोषण, अन्याय के खिलाफ समानता, समता और सामाजिक न्याय के लड़ाई लड़ी, उनको अपना आदर्श मानता है। दलित स्त्रीवाद ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के खिलाफ है, जबकि गैर-दलित स्त्रीवाद पितृसत्ता के खिलाफ है। दलित स्त्रीवाद की अगुआ स्वयं दलित स्त्रियां, दलित सामाजिक कार्यकर्ता व लेखिकाएं हैं।

दलित स्त्रीवाद का वैचारिक स्तंभ आंबेडकरवाद है तथा इसका उद्देश्य अपने ही विचारधारात्मक साथियों के साथ मिलकर जातिविहीन समानता आधारित समाज की रचना करना है। दलित स्त्रीवाद स्त्रियों के साथ होने वाले घरेलू हिंसा के साथ-साथ सामाजिक हिंसा के खिलाफ़ मुखर रूप से आवाज उठाता है, जबकि सवर्ण स्त्रीवाद का स्वर घरेलू हिंसा पर अधिक मुखर है। दलित स्त्रीवाद भारतीय संविधान,उसकी लोकतांत्रिक अवधारणा, लोकतांत्रिक समाज, लोकतांत्रिक परिवार को महत्व देता है। दलित स्त्रीवाद परिवार में भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास करता है, जिसमें बच्चों व घरेलू काम व अन्य उत्तरदायित्व के साथ स्त्री-पुरुष दोनों का सम्पत्ति पर समान अधिकार व कर्तव्य निश्चित हो। दलित स्त्रीवाद धर्म, वर्ग व जाति रहित समाज की रचना के साथ दलित स्त्री की मुक्ति को अकेले की मुक्ति न मानकर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व सांस्कृतिक रुप से सामूहिक मुक्ति के रूप में देखता है।

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भारत की जाति व्यवस्था में दलित पुरुष और दलित स्त्री दोनों प्रताड़ित हैं। ऐसे में दलित स्त्री के पक्ष को आप कैसे देखती हैं?

यह सही है कि भारत में जाति व्यवस्था के शिकार दलित स्त्री व पुरुष दोनों ही हैं,परंतु मेरा मानना है कि भारतीय समाज में दलित स्त्री दलित पुरुष से कही अधिक जाति व्यवस्था की शिकार है। दलित अत्याचार के आंकडे उठाकर देखें तो पाएंगे कि दलित स्त्री के साथ शारीरिक और मानसिक अत्याचार, उत्पीड़न तथा शोषण सबसे ज्यादा होता है। बलात्कार व अन्य आपराधिक वारदातों में सबसे सबसे अधिक शिकार दलित स्त्रियां होती हैं। धार्मिक कर्मकांड और पाखंड के नाम पर, अंधविश्वास के नाम पर, कुप्रथाओं के नाम पर, देवदासी और बाँछड़ा जैसी देह शोषण प्रथा के नाम पर दलित स्त्री को जबदस्ती देह व्यापार में धकेला जाता है। दलित स्त्रियों में शिक्षा का दर सबसे कम है। घर के दलित पुरुष का व्यवहार भी उसके साथ अनेक बार सवर्ण पुरुष जैसा दमनकारी व शोषणकारी होता है। दलित स्त्रियां इस जातिवादी ब्राह्मणवादी समाज में सबसे आसान शिकार हैं। गांवों में, फैक्ट्रियों में,खेत-खलिहानों में दलित महिलाओं काशारीरिक व आर्थिक शोषण दलित पुरुषों के अपेक्षा ज्यादा है। सवर्ण स्त्रियों और सवर्ण पुरुषों दोनों से ही उसको जातीय अपमान और प्रताड़ना सहनी पड़ती है। खेतिहर मजदूर के रुप में दिन-रात काम करने पर दलित स्त्री को उसकी पूरी मजदूरी नहीं मिलती। गरीबी का कहर भी सबसे अधिक दलित स्त्रियों को ही झेलना पड़ता है।

दलित स्त्रियों के आर्थिक पक्ष को आप कैसे देखती है?

देखिए, स्त्री मुक्ति खासकर दलित स्त्री मुक्ति का प्रश्न आर्थिक मुक्ति से पूरी तरह जुड़ा हुआ है। दलित स्त्री सामाजिक रूप से जातीय उत्पीड़न की शिकार है, गरीबी की शिकार है, इसलिए वह किसी भी रूप में बाहर जाकर छोटे मोटे जातिगत व अन्य अगरिमापूर्ण काम करने के लिए विवश है। जातीय पेशे, जिसमें मैला ढोना, देवदासी, बाँछड़ा प्रथा, खेत-खलिहानों में बेगारी, फैक्ट्रियों में असंगठित मजदूर के रुप में, घरों में झाड़ू-पोंछा आदि ऐसे काम हैं, जिसमें कम मजदूरी के साथ वह शारीरिक व मानसिक शोषण तथा अत्याचार की शिकार भी होती है। इसलिए मुझे लगता है जैसे-जैसे शिक्षा हमारे समाज में आएगी, वैसे-वैसे दलित स्त्री अपने जातिगत पेशे को छोडकर अन्य गरिमापूर्ण कार्य जैसे शिक्षक, इंजीनियर, डाक्टर, वकील, पायलट, उद्यमी आदि के रूप में आएगी तो दलित महिलाओं की आर्थिक व सामाजिक स्थिति बेहतर होगी। आज क्या है कि बहुत कम संख्या में दलित महिलाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर है। आत्मनिर्भर वही हैं जो गरिमापूर्ण नौकरी में हैं। उनकी स्थिति थोड़ी बेहतर है। यह जरूर है कि जातीयता की शिकार आत्मनिर्भर पढ़ी-लिखी दलित महिला भी हो रही है। परंतु वह लड़ रही है और अपनी आर्थिक मजबूती होने से अपने ऊपर होने वाले अन्याय के खिलाफ कानूनी रूप से लड़ भी सकती है। इसलिए दलित स्त्रियों का आत्मनिर्भर होना बहुत जरूरी है। हम सब पढे-लिखे नौकरी में आए, दलित समाज का कर्तव्य बनता है कि वह अपनी सोसायटी को किसी भी तरह से ‘पे बैक’ करे।

मौजूदा समय के युवा दलित साहित्यकारों को आप क्या संदेश देना चाहेंगी?

युवा दलित साहित्यकारों के लिए पहली पीढी के दलित साहित्यकारों ने साहित्य की जमीन तैयार कर दी है। इन दलित साहित्यकारों ने दलितों की जिंदगी के दुख, दर्द, पीड़ा, शोषण, उत्पीड़न, हिंसा और अन्याय के खिलाफ सशक्त रुप से अपनी लेखनी चलाई। वरिष्ठ दलित साहित्यकार वे पहली पीढ़ी थे, जिन्होंने बड़ी जद्दोजहद से, संघर्ष से तथा कथित मुख्यधारा के साहित्य को जबर्दस्ती धकियाते हुए, अपनी जगह बनाते हुए उसके समक्ष चुनौती खड़ी की। उसकी सवर्णवादी कलावादी विषयक ब्राह्मणीय अवधारणाओं पर करारी चोट की। अपने साहित्य की जमीन तैयार करते समय तथाकथित सवर्ण साहित्यकारों से तमाम तरह के आक्षेप, ताने, अपमान, घृणा और अवहेलना झेलते हुए अपनी साहित्य सृजन यात्रा जारी रखी और अपना एक मुकाम हासिल किया। मेरा युवा साहित्यकारों को यही संदेश है कि वह इस जमीन को कभी न छोड़े। अपने नए-नए कड़वे, मीठे, खट्टे अनुभवों से दलित साहित्य में कथा, कहानी, उपन्यास, आलोचना, कविता, आत्मकथा और अन्य विधाओं पर खुलकर काम करें। दलित साहित्य की विरासत को सम्भालें और उसको आगे बढ़ाएं। अन्याय उत्पीड़न शोषण और भेदभाव के खिलाफ अपनी कलम के साथ बहादुरी से तब तक खड़े रहें जब तक कि इस अन्यायकारी भेदभाव रूपी जातिव्यवस्था का नाश न हो जाय। अपने वैचारिक दोस्तों के साथ मिलकर जातिव्यवस्था को ध्वस्त करने का हरसंभव प्रयास करें। वह चाहे दलित स्त्रियों का लेखन हो या दलित पुरुषों का लेखन, आंबेडकरवाद में कोई छोटा या बडा, महत्वपूर्ण या अमहत्वपूर्ण नही है। जाति और किसी भी तरह की असमानता के खिलाफ स्त्री-पुरुष दोनों की साझी लड़ाई है। इस बात को हमारे युवा हमेशा याद रखें।

(संपादन : नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

कार्तिक चौधरी

लेखक डॉ. कार्तिक चौधरी, महाराजा श्रीशचंद्र कॉलेज (कलकत्ता विश्वविद्यालय) के हिंदी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। इनकी प्रकाशित पुस्तकों में “दलित चेतना के संदर्भ में ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियां” (समालोचना), “दलित साहित्य की दशा-दिशा समकालीन परिप्रेक्ष्य में” (संपादन), “अस्मितामूलक विमर्श, दलित और आदिवासी साहित्य के संदर्भ में” (समालोचना), “बंगाल में दलित और आदिवासी कविताएं” (संपादित काव्य संग्रह) शामिल हैं। इन्हें डॉ. आंबेडकर सृजन सम्मान (2021) से सम्मानित किया गया है

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