h n

आदिवासी और ईसाई नवजागरण (रांची डायरी : भाग – 5)

स्थानीय आदिवासियों ने बताया कि यह उन्हीं फादर लिवन के नवजागरण की देन है कि आज महुआडांड़ प्रखंड में अनेक आदिवासी डाक्टर, इंजीनियर, आईएएस, आईपीएस हो गए हैं। उन्होंने कहा कि इसमें ईसाई मिशनरी द्वारा रांची में स्थापित सेंट जेवियर कॉलेज की भी बहुत बड़ी भूमिका है। पढ़ें, कंवल भारती की रांची यात्रा संस्मरण की पांचवीं किश्त

[दलित साहित्यकार व समालोचक कंवल भारती ने वर्ष 2003 में झारखंड की राजधानी रांची की यात्रा की थी। उनके साथ दलित साहित्यकार मोहनदास नैमिशराय, श्योराज सिंह बेचैन और सुभाष गाताडे भी थे। अपनी पहली किश्त में उन्होंने झारखंड के दलित समुदायों के बारे में जानकारी थी। वहीं दूसरी किश्त में उन्होंने तब नवगठित झारखंड की आबोहवा का भगवाकरण करने के प्रयास के संबंध बताया। तीसरी किश्त में उन्होंने झारखंड को वनांचल बनाने की भाजपा की साजिश के बारे में जानकारी दी। चौथी किश्त के केंद्र में आजादी के बाद महुआडांड़ में मैनेजर उरांव का अहिंसक आंदोलन था जो भारतीय सैनिकों के कैंपों के विरोध में था। आज पढ़ें, उनके संस्मरण की पांचवीं किश्त]

15 नवम्बर 2003 (सायं 6 बजे)

बातचीत के दौरान आदिवासी बुद्धिजीवियों ने बताया कि शिक्षा के मामले में महुआडांड प्रखंड केरल के बराबर है। यहां जमींदारी-प्रथा ने लोगों को इतना कुचल दिया था कि खेती भी पहले जमींदार की होती थी। लेकिन खेती करते आदिवासी ही थे। तब 21 जून से बारिश शुरू होती थी। इसी महीने में खेती करनी थी, और 12 अगस्त तक खत्म करनी होती थी। अगर चूक गए, तो पूरे साल परेशानी उठानी पड़ती थी। उन्होंने बताया कि इस क्षेत्र में जमींदारी प्रथा के खिलाफ लोगों को जागरूक करने का काम ईसाई मिशनरियों ने किया।

उन्होंने बताया कि 1890 में बेल्जियम से फादर लिवन आए। उन्होंने आदिवासियों को जागरूक किया। उन्होंने कहा कि लोग फादर लिवन को पैदल अपने प्रखंड में लाए थे। उन्होंने उनसे प्रार्थना की कि हमें शिक्षा दें, ताकि हमारा भी कुछ उद्धार हो सके। उन्होंने बताया कि यह उन्हीं फादर लिवन के नवजागरण की देन है कि आज इस प्रखंड में अनेक आदिवासी डाक्टर, इंजीनियर, आईएएस, आईपीएस हो गए हैं। उन्होंने कहा कि इसमें ईसाई मिशनरी द्वारा रांची में स्थापित सेंट जेवियर कॉलेज की भी बहुत बड़ी भूमिका है। अगर यह कॉलेज यहां न बनाया गया होता, तो आदिवासी समुदायों के लड़के कभी भी उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाते। उन्होंने बताया कि ईसाई मिशनरी यहां उद्धारक के रूप में आए।

ईसाई मिशनरियों द्वारा महुआडांड़ (रांची) में स्थापित संत जेवियर कॉलेज की मौजूदा तस्वीर

प्रेस वार्ता

16 नवम्बर को रांची के होटल चिनाय में प्रेस वार्ता हुई, जिसमें मोहनदास नैमिशराय, श्यौराज सिंह बेचैन, सुभाष गाताड़े और मैंने दलित तथा आदिवासियों के संबंध में अपने विचार रखे। इन विचारों का विवरण डायरी में मौजूद नहीं है। शायद वह लिखने से रह गया। इस प्रेस वार्ता में दैनिक जागरण और प्रभात खबर के पत्रकारों ने कुछ सवाल पूछे थे, जिनका जवाब अधिकतर वासवी किड़ो और सुभाष गताड़े ने दिए थे। चूंकि आदिवासी साहित्य के बारे में मेरी जानकारी नगण्य थी, इसलिए मेरा फोकस दलित साहित्य पर ही ज्यादा रहा। हालांकि नैमिशराय और बेचैन जी ने कुछ जरूरी दखल दिया था।

प्रेस वार्ता से निपटकर हमने अलग से प्रभात खबर और हिन्दुस्तान के संपादकों से मिलने की कोशिश की। किसी ने बताया कि हिन्दुस्तान में प्रमोद जोशी हैं, पर उनसे भेंट नहीं हो सकी। शायद वे उस दिन रांची में नहीं थे। प्रभात खबर के संपादक हरिवंश (वर्तमान में राज्यसभा के उपसभापति) से बातचीत हुई, जो काफी महत्वपूर्ण रही। डायरी में उनकी बातचीत सूत्र-रूप में दर्ज है, कदाचित उसे आगे विकसित करने के मकसद से मैंने ऐसा किया होगा। पर, आज 18 साल बाद वह पूरी बातचीत मुझे याद नहीं है। इसलिए उसे आगे विस्तृत करना मेरे लिए मुश्किल है। वे सूत्र इस प्रकार हैं–

  1. आदिवासियों का वर्तमान आंदोलन सत्ता में हिस्सा लेने के लिए है।
  2. दलित-आदिवासियों में कोई तालमेल नहीं है।
  3. दलितों की कोई पावरफुल आवाज नहीं है।
  4. आदिवासियों में जो हाशिए पर हैं, जैसे असुर, पहाड़िया आदि, उन पर बात कोई नहीं कर रहा है।
  5. यहां कुर्मी और आदिवासी के बीच मुख्य लड़ाई है।

भाजपा ने वनांचल शब्द स्वीकार किया था। पर उसे लगा कि वह स्वतंत्रतापूर्वक सत्ता में नहीं आ सकती, इसलिए उसने झारखंड को स्वीकार किया। फिर भी उसने अपने सामाजिक आधार वाले आदिवासियों की मदद से 11 सीटें [लोकसभा की] प्राप्त की हैं।

बिरसा मुंडा का उलगुलाल

इसके बाद हम खूंटी प्रखंड के ग्राम मुरहू गए, जहां हमने डोम्बारी बुरू की वह पहाड़ी देखी, जहां बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों से युद्ध किया था। यहां साढ़े पांच लाख रुपए की लागत से बिरसा मुंडा की प्रतिमा की सीढ़ियां, चबूतरा, स्टेज और हॉल बनाया गया है, जिसका उद्घाटन 9 जनवरी, 2002 को तत्कालीन कृषि और उद्योग मंत्री करिया मुंडा द्वारा किया गया था। 9 जनवरी का दिन ऐतिहासिक है, क्योंकि 9 जनवरी, 1900 को बिरसा मुंडा के नेतृत्व में लाखों आदिवासियों ने इसी पहाड़ी से, जो घना जंगल था, विद्रोह किया था, जिसमें 300 आदिवासी मारे गए थे। इस युद्ध में एक औरत भी मरी थी, जिसका बच्चा छाती से चिपटा हुआ दूध पी रहा था। एक अंग्रे कैप्टन की उस पर नजर पड़ी, तो उसने फायरिंग रोकी। कुमार सुरेश सिंह ने अपनी पुस्तक ‘बिरसा मुंडा और उनका आंदोलन’ में लिखा है कि विद्रोहियों के रहने के स्थान के पीछे के जंगल में तीन मृत औरतें और एक बहुत ज्यादा घायल बच्चा मिला था। कैप्टन रोसे का कहना था कि विद्रोहियों में औरतों के होने का उसे अहसास ही नहीं था। वासवी किड़ो ने बताया कि बिरसा मुंडा को यहां नहीं पकड़ा गया था। बिरसा मुंडा की गिरफ्तारी 3 फरवरी, 1900 को सेंतरा के जंगल से की गई थी, जिसमें मानमारू और जरीकेल गांवों के सात गद्दारों ने पुलिस की मदद की थी।

वासवी किड़ो, सामाजिक कार्यकर्ता व पत्रकार, झारखंड

वासवी ने बताया कि बिरसा मुंडा का जन्मस्थान उलीहातु है। उनकी जन्मतिथि पर पिछले वर्ष ही अर्थात् 15 नवंबर, 2003 को बिरसा के जन्मस्थल का सौंदर्यीकरण किया गया था। वहां के विधायक रमेश सिंह मुंडा की विधायक निधि से पक्का मकान खपरैलनुमा बना दिया गया है। उन्होंने बिरसा मुंडा की वंशावली के बारे में बताया कि उलीहातु के लखारी (लकड़ी) मुंडा के तीन पुत्र हुए– कानु मुंडा, सुगना मुंडा और पसना मुंडा। बिरसा मुंडा के पिता सुगना मुंडा थे। जन्मस्थली पर, गांव वालों ने बताया कि यहां बिजली-पानी नहीं है, रोजगार नहीं है। केवल खेती है, वह भी वर्षा पर निर्भर करती है। “यहां तीन करोड़ की लागत से स्कूल भवन, प्रशासनिक भवन और छात्रावास बन रहा है।” हर 15 नवंबर को यहां नेता आते हैं, फिर पूरे साल कोई नहीं आता। उन्होंने कहा, “अब हम सरकारी अफसरों को घुसने नहीं देंगे, ऐसा तय कर लिया है।”

वहां उपस्थित सनातन कंडीर ने बताया कि यहां रमेश सिंह मुंडा आए थे उद्घाटन करने, पर उनका बहिष्कार किया गया। उन्होंने कहा कि हमारी मांग है कि–

  1. छात्रावास में यहां के 80 प्रतिशत लड़कों का नामांकन हो।
  2. नौकरियों में चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों की भर्ती इस गांव के लोगों से होनी चाहिए।
  3. जो निगरानी कमेटी बनेगी, उसमें स्थायी रूप से यहां के लोगों को रखा जाए।
  4. चयन समिति में भी हमारे आदमी रखे जाएं।
  5. उद्घाटन के बाद तुरन्त पढ़ाई चालू की जाए।

उन्होंने बताया कि 15 नवंबर को उद्घाटन हो गया। एक साल हो गया। पर अभी तक पढ़ाई शुरू नहीं हुई है। यहां खम्भा खड़ा है, पर न तार है और न बिजली।

इस वक्त शाम के 5 बजकर 45 मिनट हुए थे। हमने देखा, यहां के लड़के-लड़कियां, औरतें, बूढ़े सब नशे में चूर थे, हंडिया पिए हुए थे। इस गांव में सरना और ईसाई हैं और वे सभी आपस में मिल-जुलकर रहते हैं।

इसके बाद हम सभी ने एक दलित गायक से मिलने के लिए ‘उपर चुटिया नामक बस्ती’ के लिए प्रस्थान किया।

(क्रमश: जारी …)

(संपादन : नवल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें 

 

मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

संबंधित आलेख

साहित्य का आकलन लिखे के आधार पर हो, इसमें गतिरोध कहां है : कर्मेंदु शिशिर
‘लेखक के लिखे से आप उसकी जाति, धर्म या रंग-रूप तक जरूर जा सकते हैं। अगर धूर्ततापूर्ण लेखन होगा तो पकड़ में आ जायेगा।...
नागरिकता मांगतीं पूर्वोत्तर के एक श्रमिक चंद्रमोहन की कविताएं
गांव से पलायन करनेवालों में ऊंची जातियों के लोग भी होते हैं, जो पढ़ने-लिखने और बेहतर आय अर्जन करने लिए पलायन करते हैं। गांवों...
नदलेस की परिचर्चा में आंबेडकरवादी गजलों की पहचान
आंबेडकरवादी गजलों की पहचान व उनके मानक तय करने के लिए एक साल तक चलनेवाले नदलेस के इस विशेष आयोजन का आगाज तेजपाल सिंह...
ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताओं में मानवीय चेतना के स्वर
ओमप्रकाश वाल्मीकि हिंदू संस्कृति के मुखौटों में छिपे हिंसक, अनैतिक और भेदभाव आधारित क्रूर जाति-व्यवस्था को बेनकाब करते हैं। वे उत्पीड़न और वेदना से...
दलित आलोचना की कसौटी पर प्रेमचंद का साहित्य (संदर्भ : डॉ. धर्मवीर, अंतिम भाग)
प्रेमचंद ने जहां एक ओर ‘कफ़न’ कहानी में चमार जाति के घीसू और माधव को कफनखोर के तौर पर पेश किया, वहीं दूसरी ओर...