[बिहार के चर्चित कथाकार रामधारी सिंह दिवाकर से युवा समालोचक अरुण नारायण की विस्तृत बातचीत की यह तीसरी कड़ी है। इस कड़ी में इसबार दिवाकर जी ने रेणु, नागार्जुन, मधुर गंगाधर, मधुकर सिंह और चंद्रकिशोर जायसवाल के बारे में अपना अनुभव साझा किया है। अगली समापन किश्त में हम उनकी रचना प्रक्रिया और पाठकीय अनुभव संसार के बारे में उनके विचार जानेंगे।]
फणीश्वरनाथ रेणु को लेकर आपकी कौन-सी स्मृतियां हैं?
तब मैं मैट्रिक में पढ़ता था। उन्हीं दिनों [1954-55 में] रेणु जी का ‘मैला आंचल’ चर्चा में आ गया था। मेरे स्कूल के एक शिक्षक वासुदेव मंडल, जो कि हिंदी के एक अच्छे अध्येता थे, उन्होंने मुझे यह किताब पढ़ने को दिया। समता प्रकाशन, से यह उपन्यास प्रकाशित हुआ था। हरे रंग का उसका आवरण था और बाइंडिंग बहुत ढिली-ढाली थी। कवर के दूसरे पृष्ठ पर सुमित्रानंदन पंत की कविता ‘भारत माता ग्रामवासिनी’ छपी हुई थी। मैं नवें वर्ग का विद्यार्थी भला क्या पढ़ता इतने मोटे उपन्यास को। सिर्फ उलट-पुलट कर देख गया। बाद में जब काॅलेज पहुंचा, तो रेणु जी को पहली बार फारबिसगंज में देखा। तब उनके बाल छोटे थे। बड़े बाल पंत जी से मिलने के बाद उन्होंने रखना शुरू किया। रेणु जी को लेकर बहुत लंबी स्मृतियां हैं मेरी। उनके संग साथ भी रहा। इस बारे में कई बार अनेक पत्रिकाओं में लिखा है। ‘बनास जन’ में तो मेरा लंबा संस्मरण है ही। इसे दुहराना जरूरी नहीं। इतना अवश्य कहूंगा कि रेणु न होते तो मैं कथा क्षेत्र में न आता।
रेणु जी ने मुझे खुद बताया कि ‘तुलादंड’ के साथ मेरा नाम उन्होंने रामधारी सिंह दिनकर पढ़ लिया। वे चकराये कि रामधारी सिंह दिनकर कहानियां कब से लिखने लगे। उन्होंने तो कोई कहानी नहीं लिखी अबतक?
शुरू में तो मैं उनसे अभिभूत रहा। बाद में मैंने अपनी राह चुनी। मुझे लगा कि रेणु ने अपने समय को लिखा और मुझे अपने समय को लिखना है। मेरे समय के लिए रेणु प्रासंगिक नहीं थे, इसलिए मैंने अलग राह चुनी, जो उनसे अलग थी। मैं बार-बार कहूंगा कि मैं रेणु की तरह आंचलिक कथाकार नहीं हूं। मेरे कथा साहित्य में अंचल तो वही है, जो रेणु का है, लेकिन मेरी कहानियां या मेरे उपन्यास आंचलिक नहीं हैं। भारत बदल रहा है, गांव बदल रहे हैं। रेणु का गांव अब नहीं है, इसलिए रेणु की भरपूर प्रशंसा करते हुए भी मैं उस पंथ का लेखक नहीं हूं।
रेणु जी को लेकर कोई और स्मृतियां जो आप साझा करना चाहें?
रेणु जी को लेकर दो संस्मरण मैं सुना रहा हूं। रेणु जी भी मेरा संस्मरण दूसरों को सुनाया करते थे, यह बात स्वयं उन्होंने मुझे कही। मेरी एक कहानी – ‘तुलादंड’ – 1973 में ‘धर्मयुग’ में छपी थी। मेरी कहानी छपने के ठीक पहले रेणु की कहानी शायद ‘अगिनखोर’ ‘धर्मयुग’ में छपी थी। उस समय धर्मयुग में छपना बड़ी बात मानी जाती थी। रेणु जी ने मुझे खुद बताया कि ‘तुलादंड’ के साथ मेरा नाम उन्होंने रामधारी सिंह दिनकर पढ़ लिया। वे चकराये कि रामधारी सिंह दिनकर कहानियां कब से लिखने लगे। उन्होंने तो कोई कहानी नहीं लिखी अबतक? उनका आवास राजेंद्र नगर में ही दिनकर जी के उदयाचल के बगल में ही था। वे ‘धर्मयुग’ की प्रति लेकर दिनकर जी के यहां रवाना हुए। रिक्शे पर बैठे-बैठे उस कहानी के पन्ने पलटने लगे। मेरी कहानी के दूसरे पेज पर मेरा नाम, फोटो और परिचय था। रेणु जी ने देखा कि यह तो रामधारी सिंह दिनकर नहीं, रामधारी सिंह दिवाकर है। वही रामधारी सिंह दिवाकर, जो फारबिसंगज और औराही हिंगना में मुझसे मिलता रहता है। वे दिनकर जी के घर गए और उनसे ‘तुलादंड’ कहानी के लेखक के बारे में बताया। रेणु जी बोले कि दिनकर जी मैं तो चकित था कि आपने यह कहानी लिखी और यही सब सोचकर आपसे मिलने आया हूं। यह घटना रेणु जी ने मुझे सुनाई थी कि मैं दिनकर और दिवाकर के चक्कर में पड़ गया था। वे हंसने लगे, मेरी पीठ थपथपाई। दिनकर जी बोले, अरे हां फारबिसगंज में हिंदी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन हुआ था, मेरे ही नाम का यह लड़का कविता पढ़ने के लिए मंच पर आया था। लेकिन वह तो कविता लिखता था। रेणु जी ने कहा, नहीं वह मेरे इलाके का है, मेरा परिचित है, अब वह कहानियां लिखता है।
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रेणु जी से जुड़े कुछ और अनुभव जो आपने पहले कभी साझा न किया हो?
रेणु जी के मैं कुछ करीब रहा। मैं ‘कुछ’ ही कहूंगा। ‘ज्यादा’ कहने वाले अनेक कवि लेखक हैं। 1974 के आंदोलन में रेणु जी जेपी के आह्वान पर सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन में बहुत सक्रिय हो गए थे। इसी सिलसिले में वे मेरे गांव नरपतगंज आये। मैं उनसे मिला। वे मेरे घर भी आये। चाय-पानी के समय और भी कई लोग थे। मेरा भाई रामकृपाल साहित्य से लगाव रखता था। उसने रेणु जी से पूछा– आप गुलशन नंदा को लेखक मानते हैं?
रेणु जी का जवाब था– ‘हां, मानता हूं।’
‘क्यों मानते हैं?’
‘मैं नहीं मानूंगा तो वह भी मुझे नहीं मानेगा।’ फिर उसका तो बड़ा नाम है। उसके उपन्यास लाखों में छपते हैं। उनके उपन्यासों पर फिल्में बनी हैं। अगर मैं उसे लेखक नहीं मानूंगा तो वह भी मुझे लेखक नहीं मानेगा। रेणु जी ने हाल ही एक घटना का जिक्र किया कि दिल्ली में कोई राष्ट्रीय स्तर का साहित्यिक समारोह हो रहा था। उसमें गुलशन नंदा भी बुलाये गए थे। गुलशन नंदा को अगली कतार में बिठाया गया था। दूसरी कतार में थे रेणु, जैेनेंद्र कुमार वगैरह। फिल्म वाले गुलशन नंदा को जानते थे, रेणु को नहीं। ‘धर्मयुग’ के संपादक धर्मवीर भारती के बारे में तो एक बड़े फिल्म निर्देशक ने यह पूछा कि अरे ‘धर्मयुग’ का एडिटर धर्मवीर भारती लेखक भी हैं। तो ये सारी बातें रेणु जी ने बताईं और भी ढेर सारे प्रसंग हैं। कितना कहूं।
नागार्जुन के संबंध में आपके विचार क्या हैं?
नागार्जुन को वामपंथियों ने इतना महान बना दिया है कि उनके खिलाफ कुछ भी बोलना आपदा से खाली नहीं है। नागार्जुन जी कब बौद्ध हो गए और कब विशुद्ध ब्राहण, इसे लोग जानते हैं। नागार्जुन देशभर में घुमते रहे। नये लेखकों के यहां वे हप्तों, महीनों ठहरते थे। आतिथेय लेखक अपने को गौरवान्वित महसूस करता था कि बाबा उनके मेहमान हैं, लेकिन इसी मेहमानबाजी में एक घटना कुछ ही साल पहले विवादों के स्वर में चर्चा में आई जब एक युवती ने बाबा पर गंभीर आरोप लगाये।
एक गोष्ठी में मैंने नागार्जुन से रेणु की आंचलिकता के विषय में पूछा तो नागार्जुन का मैथिली में जवाब था, ‘अरहर की दाल में हींग की छौंक डाल देने से वह दाल को स्वादिष्ट बना देती है, लेकिन उसी हींग का अगर शरबत बना दिया जाए तो कैसा लगेगा? रेणु सियाह कैलक (रेणु ने वही किया)।’
बाबा हिंदी में नाम से नागार्जुन थे। मैथिली में वैद्यनाथ मिश्र यात्री थे। मेरा उनसे अच्छा परिचय था। जब दरभंगा में थे जीवन के अंतिम पड़ाव पर तो मेरे निवास पर दो बार आये थे। बड़ा स्नेह रखते थे। उनके जैसा सहज, सरल कवि मैंने नहीं देखा। वे सचमुच में कवि थे। लेकिन मुझे लगता है कि वे केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर और मुक्तिबोध से बड़े नहीं हैं। उनमें इंटेग्रिटी की कमी थी। वे कब पटरी बदल लेंगे, यह सोच पाना मुश्किल था। अपनी मातृभाषा मैथिली में वे कुछ और थे, हिंदी में कुछ और व्यक्तिगत जिन्दगी में कुछ और। अपने अंतिम काल में लगभग आठ-दस साल वे दरभंगा में रहे। इस दौरान मैंने उन्हें जाना-समझा। रेणु और नागार्जुन दोनों में मित्रता जैसी थी। वैसे बाबा उम्र में रेणु जी से बड़े थे। रेणु उनको बड़ा भाई मानते थे, मगर रेणु को लेकर मुझे लगता है उनमें एक विचित्र किस्म की कुंठा थी। ‘मैला आंचल’ के कारण रेणु की कीर्ति भारतीय भाषाओं में ही नहीं, विश्व साहित्य में भी इस तरह फैल गई थी, जहां नागार्जुन की पहुंच असंभव थी। रेणु की इस अपार लोकप्रियता से मुझे ऐसा लगा नागार्जुन कुठित हैं। मैंने अपने एक संस्मरण में इसकी चर्चा भी की हैै। उसको फिर दुहरा रहा हूं। फारबिसगंज की एक गोष्ठी में मैंने नागार्जुन से रेणु की आंचलिकता के विषय में पूछा तो नागार्जुन का मैथिली में जवाब था, ‘अरहर की दाल में हींग की छौंक डाल देने से वह दाल को स्वादिष्ट बना देती है, लेकिन उसी हींग का अगर शरबत बना दिया जाए तो कैसा लगेगा? रेणु सियाह कैलक (रेणु ने वही किया)।’ मुझे दुख हुआ नागार्जुन के इस जवाब से। नागार्जुन के अंतस में छिपी कुंठा उजागर हो गई। और भी कई बातें हैं फिलहाल अभी इतना ही।
राजकमल चौधरी को लेकर आपकी क्या धारणा है?
राजकमल चौधरी कलकता में वर्षों रहकर पटना आये थे। पटना में नरेंद्र घायल नाम के एक लेखक थे, वे ‘पतझड़’ नाम की पत्रिका निकालते थे। यह 1969-70 की बात है। ‘पतझड़’ में रेणु का संस्मरण छपता था। मुझे याद है कि रेणु ने लिखा था कि जब 1953-54 में ‘मैला आंचल’ समता प्रेस, पटना से छप रहा था, तब राजकमल चौधरी रोज शाम में प्रेस में जाता और ‘मैला आंचल’ के कुछ अंश पढ़ लेता। तब राजकमल चर्चाओं में नहीं आये थे।
‘मैला आंचल’ को लेकर कई आलोचकों ने मेरी फजीहत की है, इसलिए दिवाकर जी अपना काम करते रहिए। विरोध में बोलनेवालों का जवाब मत दिया कीजिए।
राजकमल की जब मृत्यु हुई मैंने पहली कविता ‘आर्यावर्त में’ ‘राजकमल चौधरी के प्रति’ नाम से लिखी। तब तक मैंने उनका उपन्यास ‘मछली मरी हुई’ और कविताएं भी पढ़ चुका था। राजकमल नैतिक मूल्यों के विध्वंसक कवि-कथाकार थे। नये मानस के कवियों, लेखकों ने तो राजकमल चौधरी को बहुत उंचा स्थान दिया, लेकिन भारतीय मूल्यों में वे फिट नहीं बैठे। मैंने उनकी मैथिली कहानियां भी पढी हैं। मुझे लगता है मैथिली में वे जितने सहज और विराट बोध के लेखक हैं, उतने हिंदी में नहीं। वे दिखाना चाहते थे कि देखिये, मैं कितना आधुनिक हूं। मैथिलीवाली सहजता उन्होंने हिंदी में दिखाई होती तो वे और भी बड़े लेखक होते।
मधुकर गंगाधर को लेकर आपके क्या ख्याल हैं?
मधुकर गंगाधर रेणु के समकालीन ही नहीं, बल्कि उनके आत्मीय जैसे थे। दोनों पूर्णिया के रहे और आकाशवाणी पटना में साथ-साथ नौकरी की। लेकिन मधुकर गंगाधर में विचित्र तरह का अहंकार था। रेणु जी को वे भैया कहते थे और गांव की बोली में ही उनसे बात करते थे। लेकिन उनकी कीर्ति और ‘मैला आंचल’ को लेकर बेहद कुंठित थे। उनमें बहुत अच्छी प्रतिभा थी। उनकी कई कहानियां और उपन्यास मैंने पढ़े। मेरी उनसे निकटता भी थी। मेरे लिए उन्होंने पटना आकाशवाणी में नौकरी की गुंजाइश भी खोज ली, मेरे पास खबर भेजी, लेकिन तब तक मैं लेक्चरर हो गया था। मधुकर गंगाधर को उनका अहंकार ले डूबा। अपनी सारी रचनात्मक उर्जा उन्होंने रेणु की आलोचना में खर्च कर दी। ‘मैला आंचल’ को ‘ढोढाया चरित मानस’ की कार्बन काॅपी कहा। सत्तू बांधकर रेणु के पीछे पड़ गए। मैंने एक बार यही चर्चा रेणु जी से की। मैंने कहा गंगाधर आपके पीछे पड़े हैं, आप जवाब क्यों नहीं देते हैं? इसपर रेणु जी ने जो कुछ कहा वह मेरे लिए बहुत बड़ा पाठ है। उन्होंने कहा कि दिवाकर जी, मैं अपनी आलोचना का जवाब देने लगूं तो मेरी रचनात्मक उर्जा इसी में खत्म हो जाएगी। ‘मैला आंचल’ को लेकर कई आलोचकों ने मेरी फजीहत की है, इसलिए दिवाकर जी अपना काम करते रहिए। विरोध में बोलनेवालों का जवाब मत दिया कीजिए। उनकी इस सीख का किंचित पालन करता आया हूं।
मधुकर गंगाधर की दो शादियां थीं। पहली पत्नी गांव में रहती थीं। दूसरी पत्नी बंगालन थीं, जो पटना में उनके साथ रहती थीं। पहली पत्नी जो गांव में थीं, उनकी संतानें भी थीं, जिनको वे बिलकुल छोड़ चुके थे। मैंने अपना ‘पंचमी तत्पपुरुष’ उपन्यास उन्हीं की परित्यकता पत्नी को ध्यान में रखकर लिखा था। उपन्यास का पहला ही वाक्य है, “अहिल्या ने कोर्ट में बयान दिया– ‘हां, यह मेरी ही बेटी है, मेरी ही गर्भ से जन्मीं।’” इस तरह गंगाधर जी का जीवन बड़ा उलझा हुआ था। वे बड़े परिवार के थे। लक्ष्मी नारायण सुधांशु उनके रिश्ते में थे। धमदाहा सामंतों का गढ़ था और उसी की उपज थे मधुकर गंगाधर।
मधुकर सिंह के बारे में आप क्या सोचते हैं और कुल मिलाकर उनका लेखन आपको कैसा लगा?
मधुकर सिंह लाजवाब आदमी थे। पटना आने के बाद उनसे मेरा परिचय प्रगाढ़ हुआ। मैंने उनसे एक दिन पूछा कि आप अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में बताइए। बोले कि दिवाकर जी, मैं मजदूर का बेटा हूं। मजदूर शब्द पर उन्होंने ज्यादा जोर दिया। वे बहुत सहज, सरल आदमी थे। उनका लेखन कलावादी बिलकुल नहीं है। उन्होंने जो जिया, वो लिखा। वे बनावटी नहीं थे। उनकी कहानियों और उपन्यासों में कला चाहे कम हो, लेकिन जीवन की सच्चाई और दुनिया को बदलने की लालसा प्रबल है। अगर एक शब्द में कहा जाए तो वे हिंदी कथाकारों में अग्नि के देवता हैं।
मधुकर सिंह जमीन से जमीनी संघर्ष से जुड़े हुए लेखक थे। उनके मन में दुनिया को बदलने की कामना थी। वे वामपंथी ही नहीं, चरम वामपंथी थे। लोकमानस में उनकी गहरी पैठ थी। वे गांव में रहते थे और गांव की कहानियां लिखते थे। रेणु भी गांव के ही थे, लेकिन दोनों में बड़ा अंतर था। रेणु में सबकुछ के बावजूद आभिजात्यपन था। मानसिकता से वे कुलीन वर्ग के दिखाई पड़़ते थे। जबकि मधुकर सिंह सहज, सजल गांव के लेखक थे। यही फर्क है माटी के रत्न लेखकों में।
मेरे सबसे प्रिय लेखकों में चंद्रकिशोर जायसवाल हैं। इनकी कहानी ‘नकबेसर कागा ले भागा’ जब ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित हुई थी तो मैं उनकी प्रतिभा पर चकित रह गया था कि यह लेखक पूर्णिया का है। वे रेणु के बाद हिंदी लेखकों में अग्रगण्य हैं।
मधुकर सिंह की कोई भी कहानी या उपन्यास ‘शांत रस’ की रचना नहीं है, बल्कि ‘अशांति की आंधी’ है। वे बहुत प्रतिष्ठित नहीं हुए, जिसकी दो वजहें मुझे दिखाई पड़ती हैं। एक– उनका पिछड़े वर्ग का होना जिसपर काशीनाथ के उनके संस्मरण भी जुड़े हैं। दूसरा– उनका वामपंथी होना। ये दोनों ही चीजें हिंदी में बड़े लेखक होने की दो बड़ी बाधाएं हैं। इन्हीं बाधाओं के शिकार हुए मधुकर सिंह, जिनके शिकार फणीश्वरनाथ रेणु नहीं हुए। मधुकर सिंह लोकगाथाओं और लोकगीतों के बहुत अच्छे जानकार थे, लेकिन उनकी दिशा क्रांतिकारी थी, रेणु की तरह लोकरंजक नहीं। एक लोकगाथा वे मुझे गाकर सुनाया करते थे। उस लोकगाथा में राम का खंजरी बजाने का प्रसंग है। हिरना-हिरनी की कथा थी वह। यह कथा प्रतीक में है। मूल बात यह है कि कैसे राम राजा की हदयहीनता, नृशंसता और क्रूरता जनमानस के लिए हिंसक बन जाती है। भोजपुरी में इस गीत को गाते हुए मधुकर सिंह भावविह्वल हो जाते थे। वे सचमुच सहदय और सहज, सरल व्यक्ति थे। मुझे उनकी बहुत याद आती है।
समकालीन लेखकों में आपकी पसंद के सबसे महत्वपूर्ण लेखक कौन हैं और क्यों हैं?
मेरे सबसे प्रिय लेखकों में चंद्रकिशोर जायसवाल हैं। इनकी कहानी ‘नकबेसर कागा ले भागा’ जब ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित हुई थी तो मैं उनकी प्रतिभा पर चकित रह गया था कि यह लेखक पूर्णिया का है। वे रेणु के बाद हिंदी लेखकों में अग्रगण्य हैं। देखने में अति साधारण। ग्रामीण वेश-भूषा वाले जायसवाल में अपनी जमीन और लोकजीवन को पकड़ने और उसे अभिव्यक्त करने की अद्भुत क्षमता है। उनमें आत्मप्रचार या आत्मविज्ञापन बिलकुल नहीं है। वह बहुत कम बोलते हैं। इतना कम शायद जैनेंद्र कुमार ही बोलते थे। मुखर बिलकुल नहीं हैं, जो उनकी सबसे बड़ी कमजोरी है। जायसवाल जी बहुत अच्छे इंसान हैं। वे मेरे मित्र हैं और मित्रता निबाहना वे जानते हैं। उन्होंने बहुत लिखा है, लेकिन दुख की बात है कि उनके लिखे हुए को अभी तक जो महत्व मिलना चाहिए था, वह नहीं मिला। समकालीन कथा परिदृश्य से लगभग ओझल किये जाने के बावजूद चुपचाप वे वृहतकाय उपन्यास और देशज भावों की उत्कृष्ट कहानियां लिख रहे हैं। वे कम बोलते हैं, लेकिन उनकी रचनाएं ज्यादा बोलती हैं। मैं उन्हें हिंदी का बड़ा लेखक मानता हूं।
(क्रमश: जारी)
(संपादन : नवल/अनिल)
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