डॉ. भीमराव आंबेडकर (14 अप्रैल, 1891 – 6 दिसंबर, 1956) एक मूर्तिभंजक समाज सुधारक थे। अपने करियर के शुरूआती दौर में ही उन्हें यह अहसास हो गया था कि भारत में अछूत होने का क्या मतलब है और अछूत प्रथा के खिलाफ किस तरह का संघर्ष किया जाना चाहिए। वे सवर्ण हिंदुओं के समाज सुधार आन्दोलन का हिस्सा कभी नहीं बने क्योंकि उन्हें अछूत प्रथा के त्रास का व्यक्तिगत अनुभव था।
अन्य समाज सुधारकों के लिए अछूत प्रथा, कई समस्यायों में से केवल एक थी। उनके लिए यह एक बाह्य समस्या थी, क्योंकि उसका प्रभाव केवल अछूतों पर पड़ता था, उन पर नहीं। उन्हें अछूत प्रथा के दंश को कभी झेलना नहीं पड़ता था। यद्यपि उन्हें अछूतों से सहानुभूति थी, तथापि वे उसी तबके का हिस्सा थे, जो भेदभाव की इस अमानवीय प्रथा को समाज पर थोपने के लिए ज़िम्मेदार था।
अछूत प्रथा के उद्भव का आंबेडकर का विश्लेषण और उसके उन्मूलन की उनकी कार्ययोजना, सवर्ण हिंदू समाज सुधारकों के इस प्रथा के प्रति दृष्टिकोण और उसकी समाप्ति के लिए उनके प्रयासों से एकदम भिन्न थी। आंबेडकर और अन्य समाज सुधारकों के बीच मूल अंतर यह था कि आंबेडकर इस सामाजिक बुराई को नीचे से देखते थे – वहां से जहां सामाजिक बहिष्करण के शिकार दमित समुदायों को धकेल दिया गया था। उनके इस परिप्रेक्ष्य के चलते, उनके विचार की दिशा उनके समकालीन सामाजिक और राजनैतिक विचारों की मुख्यधारा से मेल नहीं खाती। उनकी रचनाओं जैसे ‘कास्ट्स इन इंडिया: देयर मैकेनिज्म, जेनेसिस एंड डेवलपमेंट’, ‘एनीहीलेशन ऑफ़ कास्ट’, ‘द अनटचेबिल्स: हू वर दे एंड व्हाई दे बीकेम अनटचेबिल्स?’, ‘हू वर द शूद्राज’ आदि से यह ज़ाहिर है कि उनका परिप्रेक्ष्य भिन्न था और उनकी सोच स्वतंत्र, मौलिक और तार्किक थी। उन्होंने अछूत प्रथा के पौराणिक आधार के परखच्चे उड़ा दिए और उसकी सामाजिक और आर्थिक जड़ों का खुलासा किया।
उन्होंने जन्म-आधारित अछूत प्रथा के खिलाफ जबरदस्त तर्क प्रस्तुत किये। इस प्रथा के चलते जाति व्यवस्था से बहिष्कृत लोगों को अछूत घोषित कर उनका जीवन नारकीय बना दिया गया था। उन्होंने इस प्रथा के पीड़ितों का आह्वान किया कि वे इसका पुरजोर विरोध करें। उन्होंने लिखा, “अपने आत्मसम्मान की कीमत पर जीना लज्जाजनक है। जीवन में आत्मसम्मान सबसे महत्वपूर्ण है। उसके बिना, जीवन शून्य है। अपने आत्मसम्मान को बनाये रखते हुए उचित ढंग से जीने के लिए व्यक्ति को समस्यायों से पार पाना होता है। कठिन और अनवरत संघर्ष ही व्यक्ति को शक्ति, आत्मविश्वास और स्वीकृति दिलवा सकता है।” उन्होंने मात्र जीने और उचित ढंग से जीने के बीच विभेद किया। आंबेडकर ने कहा कि सभी लोग उचित ढंग से अपना जीवन जी सकें इसके लिए यह आवश्यक है कि समाज स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर आधारित हो। आंबेडकर की दृष्टि में, सामाजिक निरंकुशता, राजनैतिक निरंकुशता से अधिक दमनकारी होती है और “समाज की अवज्ञा करने वाला सुधारक, उस राजनेता से अधिक साहसी होता है, जो सरकार की अवज्ञा करता है।”
आंबेडकर उन लोगों में से थे, जिन्होंने खुलकर समाज की अवज्ञा की और उसे चुनौती दी। समाज सुधार के अपने अभियान की शुरूआत में उन्होंने हिंदू धर्म के सामाजिक ढ़ांचे में सुधार लाकर अछूतों को गरिमा और समानता दिलवाने का प्रयास किया। सन् 1935 तक वे हिंदू धर्म में आंतरिक परिवर्तन लाकर अछूतों का सशक्तिकरण करने का प्रयास करते रहे। जब उन्हें यह अहसास हो गया कि हिंदू धर्म के भीतर अछूतों की मुक्ति असंभव है, तब उन्होंने हिंदू धर्म की तीखी आलोचना करनी शुरू दी। अंततः वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अछूतों का सशक्तिकरण केवल हिंदू धर्म के बाहर ही हो सकता है और इसलिए उन्होंने बौद्ध धर्म का वरण किया। आंबेडकर के लिए अछूतों की मुक्ति सबसे बड़ा विषय था और वे लगातार जोर देकर यह कहते रहे कि अपनी मुक्ति के लिए अछूतों को स्वयं आगे आना होगा। इस तरह आंबेडकर ने भारत के जाति-आधारित सामाजिक ढ़ांचे, जो निरंतर अपना रंग बदलता रहता था, और तत्कालीन बहिष्कृत जातियों के हितों की रक्षा के उपायों को समझने के लिए एक सबाल्टर्न परिप्रेक्ष्य उपलब्ध कराया।
डॉ. आंबेडकर ने ऊंच-नीच पर आधारित भारत के सामाजिक ढ़ांचे को परिवर्तित करने और दमित वर्गों को समान अधिकार और न्याय दिलवाने के लिए कठिन संघर्ष किया। उन्होंने भारतीय समाज के ढ़ांचे के भीतर रहते हुए उसकी समालोचना की। उनके प्रयास केवल सैद्धांतिक नहीं थे। अछूत प्रथा की समस्याओं से निपटने के लिए उन्होंने व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया। भारतीय समाज की इस शाश्वत समस्या का हल ढूँढने के प्रयास में उन्होंने उन लोगों की अंतरात्मा को संबोधित नहीं किया, जो धार्मिक कारणों से अछूत प्रथा का आचरण करते थे और ना ही उन्होंने ऐसे लोगों से अपनी सोच को बदलने की प्रार्थना ही की। उन्होंने एक दूसरा रास्ता चुना। वे जीवन भर उस सामाजिक-धार्मिक और राजनैतिक-आर्थिक ढ़ांचे के खिलाफ संघर्षरत रहे जो उनके विचार से अछूत प्रथा की जड़ थे। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अछूत प्रथा का निवारण तब तक नहीं हो सकता जब तक उन धर्मशास्त्रों की सत्ता को चुनौती नहीं दी जाती, जो जाति पर आधारित भेदभाव का अनुमोदन करते हैं।
इस संदर्भ में भारतीय राष्ट्रवाद के संबंध में उनके विचारों पर विशेष ध्यान देना आवश्यक है। भारतीय राष्ट्रवाद को देखने-समझने का उनका नजरिया, राष्ट्रवाद के उस वर्चस्वशाली आख्यान का धुर विरोधी था, जिसका प्रतिनिधित्व गांधी और जवाहरलाल नेहरू करते थे। वे राजा राममोहन राय, बाल गंगाधर तिलक, एम. एस. गोलवलकर और श्यामाप्रसाद मुखर्जी के हिंदू राष्ट्रवाद और एम. एन. रॉय, ओ. पी. दत्त, टी. नागी रेड्डी और ई. एम. एस. नंबूदरीपाद के साम्यवादी-धर्मनिरपेक्ष-समाजवादी राष्ट्रवाद के भी विरोधी थे। भारतीय राष्ट्रवाद के संबंध में उनके विचार न केवल अन्य सभी से अलग थे, वरन् वे पूर्णतः मौलिक थे। हिंदू राष्ट्रवाद उत्तर-औपनिवेशिक भारत में ब्राह्मणवादी श्रेष्ठता का हिमायती था। साम्यवादी-धर्मनिरपेक्ष-समाजवादी राष्ट्रवाद वर्गीय विभेदों का उन्मूलन करना चाहता था, परंतु हिंदू राष्ट्रवादियों की तरह उसके सभी चिंतक ऊँची जातियों के थे और अछूतों की यंत्रणा का अंत करने पर उनका विशेष जोर नहीं था।
डॉ आंबेडकर का राष्ट्रवाद राष्ट्र के बोध और पददलितों की आकांक्षाओं का संश्लेषण था। उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद का एक हिंदू-विरोधी और ब्राह्मणवाद-विरोधी विमर्श प्रस्तुत किया। उनके राष्ट्रवाद का लक्ष्य जाति और वर्गविहीन समाज का निर्माण करना था, जिसमें किसी भी व्यक्ति के साथ उसके जन्म या काम-धंधे के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा। भारतीय राष्ट्रवाद के दलित-बहुजन ढ़ांचे के अंदर उन्होंने पूर्व-औपनिवेशिक ब्राह्मणवाद और विषमता पर आधारित सामाजिक ढ़ांचेा की जोरदार आलोचना की। इस व्यवस्था के केन्द्र में थी– श्रेणीबद्ध जाति व्यवस्था, जिसमें कोई व्यक्ति जितने उच्च स्तर पर होता था, वह उतना ही अधिक अनुत्पादक और शोषक हुआ करता था।
अस्मिता और राष्ट्र से संबंधित मसलों की आंबेडकर की समझ, जाति पर आधारित समाज पर हावी ब्राह्मणवाद के दमनकारी चरित्र के उनके गहन विश्लेषण पर आधारित थी। चूंकि भारतीय राष्ट्रवाद पर हावी हिंदू विमर्श, जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति बेरूखी का भाव रखता था और चूंकि साम्यवादी-धर्मनिरपेक्ष-समाजवादी तबके के आर्थिक विश्लेषण और सामाजिक वर्गों की उसकी यांत्रिक व्याख्या के कारण जाति का मुद्दा उसके लिए महत्वपूर्ण नहीं था, इसलिए आंबेडकर, जो स्वयं अछूत और अछूत प्रथा के शिकार थे, ने जाति और अछूत व्यवस्था को अछूतों के परिप्रेक्ष्य से समझने के लिए एक नया ढ़ांचा विकसित किया। आंबेडकर द्वारा विकसित यही ढ़ांचा दलित-बहुजन राष्ट्रवाद की नींव बना। इसका उद्धेश्य भारतीय समाज को जाति और वर्गविहीन बनाना था। वह भारत को एक समतावादी संघ के रूप में देखना चाहता था और जाति का उन्मूलन उसकी केन्द्रीय विषयवस्तु थी। आंबेडकर की दृष्टि में जाति ब्राह्मणवाद का मूर्त स्वरूप थी। उन्होंने लिखा, “ब्राह्मणवाद वह जहर है, जिसने हिंदू धर्म का सत्यानाश कर दिया है।” आंबेडकर को यह अहसास था कि राष्ट्रवाद का ऐसा कोई भी स्वरूप, जिसकी जड़ें हिंदू धर्म में हैं, कभी बहिष्कृत जातियों को राहत प्रदान नहीं कर सकता। राष्ट्रवाद पर ऐसा कोई भी विमर्श, जिसमें जाति का उन्मूलन शामिल न हो, उन्हें मंजूर न था। जाति के उन्मूलन का एजेंडा उनके लिए इतना महत्वपूर्ण था कि वह औपनिवेशिक शासकों के खिलाफ उनके संघर्ष की धुरी बन गया। प्रथम गोलमेज सम्मेलन में बोलते हुए उन्होंने अछूत प्रथा को समाप्त करने में विफलता के लिए ब्रिटिश सरकार को कटघरे में खड़ा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
आंबेडकर के लिए जाति के अंत के बिना स्वराज अर्थहीन था। लाहौर के जात-पात तोड़क मंडल के समक्ष अपने भाषण, जिसे उन्हें देने नहीं दिया गया, में उन्होंने कहा था, “आप जब स्वराज के लिए लड़ते हैं तो पूरा राष्ट्र आपके साथ होता है। परंतु इसके लिए आपको पूरे राष्ट्र के खिलाफ लड़ना पड़ता है और वह भी आपके अपने राष्ट्र के। परंतु यह स्वराज से अधिक महत्वपूर्ण है। अगर आप स्वराज की रक्षा न कर सकें, तो स्वराज का कोई अर्थ नहीं है। स्वराज की रक्षा करने से अधिक महत्वपूर्ण है स्वराज में हिंदुओं की रक्षा करना। मेरी राय में हिंदू समाज अपनी रक्षा करने के लिए जरूरी शक्ति तभी हासिल कर सकेगा जब वह जाति-विहीन बन जाएगा। इस आंतरिक ताकत के बिना हिंदुओं के लिए स्वराज केवल गुलामी की दिशा में एक कदम होगा।” इस तरह, डॉ. आंबेडकर का सबाल्टर्न परिप्रेक्ष्य स्वराज की उनकी अवधारणा को राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के विभिन्न विचारधाराओं की अवधारणा से अलग करता है। ‘बहिष्कृत भारत’ के 29 जुलाई 1927 के अंक के संपादकीय में आंबेडकर ने लिखा, “अगर तिलक अछूत पैदा हुए होते वे ‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का नारा नहीं देते। उनका नारा होता ‘अछूत प्रथा का उन्मूलन मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।’”
(अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल)
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