उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में इलाहाबाद विश्वविद्यालय का एक घटक संस्थान गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान (जीबीपीएसएसआई) निदेशक बद्री नारायण तिवारी ओबीसी अभ्यर्थियों को एनएफएस बताए जाने के प्रकरण में बैकफुट पर चले गए हैं। हालांकि फारवर्ड प्रेस से बातचीत में उन्होंने इसे खुले तौर पर स्वीकार नहीं किया है, लेकिन चौतरफा हो रही आलोचानाओं के बीच संस्थान ने एससी, एसटी, ओबीसी और ईडब्ल्यूएस वर्ग के सहायक प्रोफेसरों की भर्ती के लिए नया विज्ञापन जारी कर दिया है।
इसके पहले संस्थान द्वारा जारी अंतिम सूची में ओबीसी के अभ्यर्थियों के मामले में “एनएफएस” यानी “कोई योग्य नहीं पाए गए” बता दिया गया था। इसे लेकर टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस (TISS), मुंबई के छात्र मयंक यादव और दिल्ली विश्वविद्यालय के क़ानून के छात्र विवेक राज ने सहायक प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर की नियुक्ति में कथित अनियमितताओं का आरोप लगाते हुए राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग से शिक़ायत की। अपनी शिकायत में मयंक यादव, और विवेक राज ने आरोप लगाया था कि चयन और नियुक्तियों की पूरी प्रक्रिया दुर्भावनापूर्ण, स्पष्ट रूप से अनियमित, ओबीसी के ख़िलाफ़ पूर्वाग्रह से भरी हुई है। यह केंद्रीय कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय (डीओपीटी) के नियम और आरक्षण के संवैधानिक प्रावधानों के ख़िलाफ़ है।
गौरतलब है कि जीबीपीएसएसआई ने बीते 3 दिसंबर को अपनी बैठक में चयन समिति की सिफारिशों को मंजूरी दी थी, जिसने सात नए संकाय सदस्यों को चुना था। इसके तहत सहायक प्रोफेसर पद के लिए, संस्थान ने पांच व्यक्तियों के चयन को मंजूरी दी, जिनमें दो उम्मीदवार अविरल पांडे और निहारिका तिवारी (अनारक्षित श्रेणी), माणिक कुमार (आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग), अंबुज शर्मा (विकलांग व्यक्ति) और कमी सैमसन (अनुसूचित जनजाति) के शामिल हैं। हालांकि, इसके साथ ही ओबीसी की श्रेणी को एनएफएस के तहत खाली छोड़ दिया गया। इसी तरह एसोसिएट प्रोफेसर पद के लिए संस्थान ने अनारक्षित श्रेणी के तहत अर्चना सिंह और अनुसूचित जाति वर्ग के तहत चंद्रैया गोपानी का चयन किया जबकि ओबीसी वर्ग को एनएफएस लिखकर खाली छोड़ दिया। यह सब तब हुआ जबकि ओबीसी अभ्यर्थियों के एपीआई (एकेडमिक परफार्मेंस इंडिकेटर) स्कोर अनारक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों के समान ही थे और ईडब्ल्यूएस अभ्यर्थियों से अधिक। ऐसे में यह सवाल उठा कि आखिर किस आधार पर ओबीसी अभ्यर्थियों के कॉलम में एनएफएस लिख दिया गया?
एक महत्वपूर्ण सवाल यह कि जीबीपीएसएसआई एक सामाजिक विज्ञान संस्थान है और भारतीय समाज में ओबीसी की हिस्सेदारी बहुसंख्यक के रूप में है। ऐसे में संस्थान में ओबीसी दृष्टिकोणों का कोई महत्व नहीं? और क्या संस्थानें यह मानती हैं कि बिना ओबीसी को समुचित प्रतिनिधित्व दिए, वे बहुसंख्यक वर्ग के विमर्शों को शामिल कर लेंगीं?
खैर, इस मामले में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने मामले में संज्ञान लिया है तथा संस्थान को नोटिस जारी कर दो दिन में जवाब देने को कहा।
तिवारी ने दी सफाई
फारवर्ड प्रेस से दूरभाष पर बातचीत में संस्थान के निदेशक बद्री नारायण तिवारी कहा कि “एनएफएस का मतलब यह नहीं है कि ये पद खाली ही रहेंगे। हम दो तीन दिन के भीतर ही हम स्पेशल ड्राइव मोड ऑफ बैकलॉग के तहत वैकेंसी निकालेंगे। और अच्छेे व उपयुुक्त अभ्यर्थियों से भरेंगे। हम योग्य कैंडीडेट की तलाश में लगातार वैंकेसी निकालते रहते हैं जब तक कि उक्त पद के लिये कोई मिल नहीं जाता।”
तिवारी आगे कहते हैं कि लोगो के यह समझना होगा कि “हमारा संस्थान एक शोध संस्थान हैं। इसलिए हमारी आवश्यकता पूरी तरह से अलग है। हमें संस्थान की ज़रूरतों के मुताबिक चाहिए। अगर हम विश्वविद्यालय या कॉलेज होते तो हमारी चयन समिति किसी को भी ले लेती। तब उनका काम सिर्फ़ पढ़ाना होता। लेकिन शोध संस्थानों में नियुक्ति के समय प्रोजेक्ट बनाना, प्रस्ताव बनाना, प्रोजेक्ट से फंडिंग लाना, अच्छे जर्नल में पब्लिकेशन आदि सब भी देखा जाता है। चयन समिति यह सब देखती और इस आधार पर जो अच्छा मिलता है, संस्थान में उसे ही नियुक्त किया जाता है। हमने इन बातों की जानकारी विज्ञापन में भी सार्वजनिक की थी।”
वहीं एपीआई के सवाल पर तिवारी कहते हैं कि यह न्यूनतम योग्यता है, इसके आधार पर इंटरव्यू के लिये बुलाया जाता है। यह चयन का पूरा आधार नहीं है। इंटरव्यू के लिये बुलाये जाने के बाद एपीआई का कोई मतलब नहीं रह जाता। उसके बाद चयन समिति मूल्यांकन करती है। बद्री नारायण तिवारी ज़ोर देकर कहते हैं कि कभी-कभी संस्थान के लिए अपनी शोध आवश्यकता के अनुकूल उम्मीदवारों को तुरंत ढूंढना मुश्किल होता है, भले ही उनके पास न्यूनतम योग्यता और आवश्यक एपीआई स्कोर हो।
बद्री नारायण तिवारी आगे बताते हैं कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय के गाइडलाइंस के मुताबिक प्रत्येक पोस्ट पर इंटरव्यू के लिये 8 लोगों को बुलाया गया था। हालांकि एसोसिएट के पद पर पर्याप्त आवेदन नहीं आये थे। ऐसे में उस पर जितने लोगों ने आवेदन किया, न्यूनतम अहर्ता के आधार पर हमने सबको इंटरव्यू के लिये बुला लिया था, फिर चाहे वे ओबीसी हों, दलित हों या, सवर्ण हों या विकलांग हों।
फर्जी बात कह रहे हैं बद्री नारायण तिवारी : लक्ष्मण यादव
डीयू के प्रोफेसर लक्ष्मण यादव के मुताबिक “संस्थान के निदेशक बद्री नारायण तिवारी का तिवारीपन अब खुलकर सामने आ गया है। उन्होंने कहा कि यदि एपीआई स्कोर केवल न्यून्तम योग्यता है और बाद में इसका कोई महत्व नहीं है तो संस्थान को बताना चाहिए कि इसे योग्यता के रूप में रखा ही क्यों गया है। इसके अलावा संस्थान ने जिन गैर ओबीसी अभ्यर्थियों का चयन किया है, अनेक ओबीसी अभ्यर्थियों का एपीआई स्कोर उनसे अधिक है। ऐसे में जिस तरह के शोध संबंधी योग्यता की बात तिवारी कह रहे हैं, उन्हें यह बताना चाहिए कि कम एपीआई स्कोर वाले अभ्यर्थियों में उन्हें शोध संबंधी योग्यता की जानकारी कैसे मिली? क्या वे मानते हैं कि ये योग्यताएं केवल सवर्णों के पास है?” लक्ष्मण यादव ने कहा कि इंटरव्यू बोर्ड में जाति के आधार पर फैसले लिये जाते हैं, यह जीबीपीएसएसआई प्रकरण में जगजाहिर हो चुका है।
सवाल और भी हैं
बहरहाल, बद्री नारायण तिवारी अपनी सफाई में चाहे जितनी सफाई दें, लेकिन उन्हें इस बात जवाब तो देना ही चाहिए कि सवर्ण वर्ग के जिन अभ्यर्थियों को योग्य पाया गया, उसका आधार क्या था? फिर क्या यह सही नहीं है कि चयनित अभ्यर्थियों को संस्थान शोध कार्यों के लिए प्रशिक्षण देती है? और यह भी कि देश के किस विश्वविद्यालय में प्रोजेक्ट लाने व फंडिंग के बारे में प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है? एक सवाल यह भी कि इंटरव्यू बोर्ड द्वारा जो सवाल पूछे जाते हैं या फिर जिस तरह के शोध संबंधी योग्यता की बात तिवारी कह रहे हैं, उससे संबंधित कोई मेरिट लिस्ट भी बनाई जाती है? यदि हां तो इसे भी सार्वजनिक किया जाना चाहए।
(संपादन : नवल/अनिल)
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