कोई आश्चर्य नहीं कि पद्मश्री सिंधुताई सपकाल को महाराष्ट्र की “मदर टेरेसा” कहा जाता है। उनका जीवन अंतहीन बाधाओं से लड़ने में बीता। इसके बावजूद उन्होंने आजीवन लोगों का पेट भरा और अनाथों को अपना बनाया। उनका जीवन करुणा और मानव सेवा का जीता-जागता उदाहरण है। वे भीख मॉगकर भिखारियों और उनके बच्चों का पेट भरती थीं। स्वयं की संतान के होते हुए भी उन्होंने सैकड़ों अनाथ बच्चे-बच्चियों (1,400 से अधिक) को अपने गले लगया और ममत्व दिया। उनके परिवार में सैकडों (207) दामाद और हजारों नाती-पोते शामिल हैं। उनके सैकड़ों बच्चे बड़े ओहदों पर पहुँच चुके हैं। निश्चय ही ह वे करुणा की मूर्ति और ‘अनाथों की मॉ’ थीं। बीते 4 जनवरी, 2022 को ह्रदय गति रूक जाने से उनका निधन हो गया।
सिंधुताई का जन्म 14 नवंबर 1948 को महाराष्ट्र के वर्धा जिला के पिंपरी (मेघे) गांव में पिछड़ी जाति के एक निर्धन परिवार में हुआ था। पिता का नाम अभिमान साठे था, जो गाय-भैंस चराकर परिवार चलाते थे। सिंधुताई अपने माता-पिता की कई संतानों में एक थीं। परिवार में वे एक अवांछित सदस्य की तरह थीं, जिन्हें उनके पिता के अलावा कोई पसंद नहीं करता था। इसीलिए उन्हें चिंदी (फटा-पुराना कपड़ा) कहा जाता था। बहुत जल्द उन्हें चाहने वाले पिता भी दिवंगत हो गए। अब चिंदी अर्थात सिंधुताई को चाहने वाला परिवार में कोई नहीं रह गया। पढ़ाई में रुचि और होशियार होने के बाद भी गरीबी और मां के विरोध ने उन्हें पढ़ने नहीं दिया। ढिठाई और लड़ाई कर वे किसी तरह चौथी कक्षा तक पढ़ पाईं। मां का पूरा जोर रहता था कि चिंदी पढ़ाई–लिखाई छोड़कर गाय-गोरू चराए और घर का चूल्हा-चौका संभाले।
सिंधुताई का संघर्ष बचपन से ही शुरू हो गया था। महज नौ साल की उम्र में उन्हें तीस साल के श्रीहरि सपकाल के साथ ब्याह दिया गया। ससुराल में उन्हें अनगिनत यातनाओं का शिकार होना पड़ता था। पति उनके साथ हिंसक व्यवहार करता था। इसी माहौल में मात्र 18 साल की उम्र में वे दो बच्चों की मां बन गईं। सिंधुताई को पढ़ाई-लिखाई का चाव था। सौदा-सुलुफ़ में आए कागजों को पति की नज़र बचाकर पढ़ती थीं और जब कभी पति की नज़र पड़ने की भनक भी लगती तो पूरा का पूरा कागज खा जाया करती थीं। इसीलिए बाद में वे अक्सर कहा करती थीं – ‘शब्द अब मेरे पेट से बाहर निकल रहे हैं’।
दु:ख और यातनाओं के चंगुल में फंसीं सिंधुताई ने अपने हौसले को जिंदा रखा। टुकड़े- टुकड़े में पढ़े अक्षरों ने उन्हें लड़ने की ताकत दी। अन्याय के खिलाफ लड़ने में वे कभी पीछे नहीं रहीं। उनकी ससुराल एक जंगल के पास थी। वे वहां गाय-भैंसें चराने जाया करती थीं। जंगल के कर्मचारी गांव की औरतों से पशुओं का गोबर ट्रैक्टर में डलवा कर उसे दूसरी जगह बेच दिया करते थे। मेहनत करने वाली औरतों के हाथ कुछ भी नहीं आता था। सिंधुताई से यह अन्याय न देखा गया। उन्होंने औरतों को संगठित किया। औरतों के समूह ने गोबर उठाने से मना कर दिया। चुप रहनेवाली औरतों का यह विरोध जंगल के कर्मचारियों को नागवार लगा। अचानक से अतिरिक्त आमदनी का जरिया बंद हो जाने से उन्होंने जिलाधिकारी से शिकायत कर दी। सिंधुताई ने औरतों की ओर से सारी बात जिलाधिकारी को बताई। औरतों के शोषण के बारे में जानकर जिलाधिकारी ने औरतों के पक्ष में फैसला सुनाया।
जब जब यह सब हो रहा था, तब सिंधुताई के ससुराल का एक दबंग, जिसने उनकी जमीन पर कब्जा किया हुआ था, भी वहां था। उसे अहसास हो गया कि अगर सिंधुताई ताई को दबाया न गया तो वे किसी न किसी दिन अपनी जमीन पर भी दावा ठोंक देगी। इसलिए उसने सिंधुताई के पति से कह दिया कि ‘तुम्हारी पत्नी के गर्भ में मेरा बच्चा पल रहा है।’ सिंधुताई का पति आगबबूला हो गया और तत्काल घर आकर सिंधुताई की कोख पर लात-घूंसों से प्रहार करने लगा ताकि गर्भपात हो जाए। उसने सिंधुताई को गौशाला में डाल दिया. उसे लगा कि गाय-भैंसों के पैरों के नीचे आकर वह मर जाएगी। मगर ऐसा नहीं हुआ। गौशाला में ही उन्होंने बेटी को जन्म दिया और एक छोटे पत्थर से नाल काटी और अपनी बेटी को सीने से लगाकर ससुराल को हमेशा के लिए छोड़ दिया।
सिंधुताई की खासियत यह थी कि वे न केवल अनाथ बच्चों को अपनाती थीं, बल्कि उनके लालन-पालन में कोई कमी न रह जाय, इसका पूरा प्रयास करती थीं। साथ ही, उनकी शिक्षा को लेकर वह हमेशा सजग रहतीं। उनकी ममता के आंचल में पले उनके अनेक बच्चे आज सफल उद्यमी और सरकारी विभागों में नौकरी में हैं।
हर औरत के दो ठौर माने जाते हैं – नैहर यानी मायका और ससुराल। ससुराल में उत्पीड़ित या वहां से निकाली गई औरत नैहर में पनाह की उम्मीद से जाती है। सिंधुताई भी नवजात बच्ची को लेकर नैहर के लिए निकल गईं। मगर उनके मायके पहुंचने से पहले ही उनकी चरित्रहीनता की अफवाह उनकी मां तक पहुंच चुकी थी। मॉ ने सिंधुताई को दुत्कार कर भगा दिया। नैहर और ससुराल, दोनों से निकाल दी गई सिंधुताई के सामने दो रास्ते थे। पहला – आत्महत्या और दूसरा दुनिया को गले लगाने का।
आत्महत्या के मुकाम पर खड़ी सिंधुताई को सुरेश भट्ट की पंक्तियों से बहुत बल मिला। इन पंक्तियों को वह कई बार सुन चुकी थीं। पंक्तियों ने उन्हें जीने का हौसला और दुनिया से जुड़ने का जज़्बा दिया। सुरेश भट्ट की पंक्तियां इस प्रकार हैं–
जब मैंने सॉस लिया
तब मेरा कंठ कंपित हुआ
यातनाओं से जूझता प्राण मेरा
बोलने से पहले ही मैं जुदा हो गया
जिंदगी थम गई और मैं श्मशान में डाल दिया गया
अपनों के कंधे से उतार दिया गया….
सुरेश भट्ट की ये पंक्तियां मनो सिंधुताई के लिए हीं थीं। जब सभी अपनों ने साथ छोड़ दिया तो सिंधुताई ने खुद को मजबूत किया और दुनिया को गले लगाया। मगर यह सब इतना आसान नहीं था।
सिंधुताई ने आत्महत्या का विचार त्याग दिया। अब उनके सामने सवाल जीने का था। वे जीने के लिए ताकत बटोरने लगीं। बीस साल की औरत ने नवजात बच्ची को लेकर रेलवे स्टेशनों पर भीख मांगना शुरू कर दिया। दिन भर स्टेशन और रेलगाड़ियों में भीख मांगने से जो मिलता उसे रात में पकाकर खुद खातीं और अन्य भिखारी साथियों को खिलातीं। मगर बीस साल की युवती को समाज बीस साल के आदमी की तरह नहीं देखता, चाहे वह भिखारी ही क्यों न हो। सिंधुताई का शरीर आड़े आ रहा था। पेट भरने के बाद दूसरी बड़ी समस्या अस्मत को महफूज रखने की थी। जरूरत थी एक सुरक्षित जगह की, जिसकी तलाश श्मशान भूमि में जाकर समाप्त हुई। श्मशान भूमि में भूतों का भय अवश्य था, मगर किसी आदमी की वासना नहीं थी। अब सिंधुताई दिनभर भीख मांगती और देर रात श्मशान भूमि पहुंच जातीं। और वहां की बची-खुची लकड़ियों को जलाकार खाना बनातीं, खातीं और निश्चिंत होकर सो जातीं। आसपास के गांवों में अफवाह उड़ने लगी– ‘श्मशान भूमित भूत रहातात। यानी श्मशान भूमि में भूत रहता है’
भूत की अफवाह ने सिंधुताई को बहुत बल दिया। अब वह भीख मांगकर आराम से बना-खाकर और सो सकती थीं।
कुछ दिन तो श्मशान भूमि में ठीक से बीते। मगर श्मशान स्थाई समाधान नहीं हो सकता था। तलाश थी एक सुरक्षित जगह की, जो मिलता नहीं दिख रही थी। जैसे-जैसे दिन बीत रहे थे, वैस-वैसे वे निराशा की ओर बढ़ रही थीं। एक दिन उन्होंने फिर खुदकुशी का इरादा किया। वे खाली पेट नहीं मरना चाह रही थीं। इसलिए उस रात उन्होंने श्मशान भूमि में भाखरी (रोटी) बनाईं और भरपेट खाकर, बची भाखरी को साथ लेकर प्रसन्न मन से ट्रेन की पटरियों की ओर मरने के लिए चल दीं। पटरी पर बैठकर रेलगाड़ी का इंतजार करने लगीं। थोड़ी देर में वहां एक बूढ़ा आया। उसे भी मरना था। मरने की इच्छा रखनेवाले दो लोगों में बातचीत होने लगी। सिंधुताई को पता चला कि उस वृद्ध को खाना-पीना नहीं मिलता। वह भूख और बीमारी से तंग आकर मरना चाहता है। उन्होंने वृद्ध को कहा– ‘मरना है तो मर लो, मगर खा-पीकर खुशी-खुशी मरो।’
वृद्ध को सिंधुताई की बात अच्छी लगी। उसने भाखरी खायी और भरपेट पानी पीया। वृद्ध का अघाया चेहरा सिंघुताई को अच्छा लगा। उन्हें लगने लगा कि जिंदा रहकर वे तमाम लोगों का सहारा बन सकती हैं। उन्होंने मरने का फैसला हमेशा के लिए त्याग दिया।
सिंधुताई ने जीने की स्थितियों को प्राप्त करने के लिए आदिवासी इलाकों की ओर जाने का फैसला किया। वे नागपुर के निकट एक पहाड़ी इलाका चिकलदरा पहुंचीं, जहां एक बाघ संरक्षण परियोजना आकार ले रही थी। इस परियोजना के लिए चौबीस आदिवासी गांवों को खाली कराया गया था। सिंधुताई ने आदिवासी लोगों की सहायता करने का फैसला किया और सभी आदिवासियों को संगठित करके वन मंत्री पर दबाव डालना शुरू किया। आदिवासी संगठन की ताकत और सिंधुताई के प्रयासों से बीच का रास्ता निकाला गया। सभी विस्थापित गांवों का पुनर्वास किया गया।
गाली, गरीबी और विस्थापन से जूझती सिंधुताई अनाथ बच्चों और असहाय महिलाओं के लिए कुछ करना चाहती थीं। अपने अथक प्रयासों और आदिवासियों के सहयोग से चिकालदरा में उन्होंने बच्चों और औरतों के लिए पहला घर बनाया, जिसे आजकल ‘माई का आश्रम’ कहा जाता है। ‘गाना से खाना’ और ‘भाषण से राशन’ जुटाने वाली सिंधुताई ने महाराष्ट्र के अलग-अलग हिस्सों में अनाथों और महिलाओं के लिए 6 आश्रयस्थलों का निर्माण किया।
सिंधुताई की खासियत यह थी कि वे न केवल अनाथ बच्चों को अपनाती थीं, बल्कि उनके लालन-पालन में कोई कमी न रह जाय, इसका पूरा प्रयास करती थीं। साथ ही, उनकी शिक्षा को लेकर वह हमेशा सजग रहतीं। उनकी ममता के आंचल में पले उनके अनेक बच्चे आज सफल उद्यमी और सरकारी विभागों में नौकरी में हैं।
बहरहाल, आज जब उनका शरीर इस दुनिया में नहीं है, वे अपनी करूणा और ममता के कारण जिंदा हैं। मानव सेवा के मामले में सिंधुताई सचमुच मिसाल ही हैं। यही वजह रही कि जब 4 जनवरी, 2022 को उनका निधन हुआ तो देश भर के लोगों ने उन्हें श्रद्धांजलि दी।
(संपादन : नवल/अमरीश)
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