सोहराई संथाल आदिवासी समुदाय का कृषि पर्व है। इस पर्व में पूरा समुदाय खुशी मनाता है। पारंपरिक रूप से खेतों से धनकटनी के बाद, जब अनाज खलिहान में आ जाता है, तभी से पूरा संथाल परगना सोहराई के रंग में रंग जाता है। और फसल के घर में आने के बाद सोहराई मनाने की वास्तविक शुरूआत होती है। इस पर्व के दौरान औरतें घर-आंगन की साफ-सफाई करती हैं। घर के दीवारों को सजाती हैं। दीवारों तरह-तरह की छवियां उकेरती हैं, जिनके केंद्र में प्रकृति और मानवों के बीच का संबंध होता है। इसे सोहराई कला भी कहते हैं। इस भित्ति कला ने विश्व स्तर पर लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा है।
निश्चित तौर पर सोहराई पर्व आदिवासी समुदाय को समझने का बेहतरीन माध्यम है। इससे एक मानव समुदाय के रहन-सहन, के साथ-साथ उसकी आदतों और उसके परिवेश को समझने में भी मदद मिलती है।
मूल संस्कृतियों पर बाहरी संस्कृतियों का असर
एक कृषि पर्व होने के कारण सोहराई की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति कई कला विधाओं में हुआ है, जिसमें नृत्य से लेकर भित्तिकला तक शामिल हैं। खेती-किसानी के बाद मौज और उमंग के सर्वत्र व्याप्त हो जाता है। होली, लोहिड़ी और पोला इसी तरह के खेती-किसानी से जुड़े अन्य त्यौहार हैं। बाजार के प्रभाव से ये सांस्कृतिक पर्व अछूते नहीं हैं।
खासकर होली पर्व पर सबसे अधिक बुरा प्रभाव पड़ा है। होली के दौरान गाए जानेवाले द्विअर्थी लोकगीतों ने इसके मूल स्वरूप को और भी बिगाड़ दिया है। होली में होलिका दहन होता है, जिसके मूल में स्त्री विरोध है। और होलिका दहन के समय गाए जाने वाला जोगिरा और कबीरा संत परंपराविरोधी (जो परंपरा बुद्ध के बाद पूरे देश में विकसित हुई थी) है।
महत्वपूर्ण यह है कि इस तरह की प्रवृत्तियां बुद्ध द्वारा हुई क्रांति के बदले में हुई प्रतिक्रांतियों का परिणाम हैं। बुद्ध का आंदोलन थेरीगाथा में हर तबके की औरतों को शामल करके उन्हें आदर देने का आंदोलन है। संथाल हूल आंदोलन में सिदो, कान्हू, चांद और भैरो को फूलो और झानो जैसी वीर औरतों का साथ मिला।
सोहराई पर्व को उसका मौलिक स्वरूप उसे खास बनाता है। अतीत की बात करें तो इस पर्व के कारण हूल आंदोलन मजबूत हुआ था।
आज भी संथाल परगना के साथ-साथ पूरे झारखंड, उड़ीसा और बिहार के किसान अनाज को घर लाने के बाद एक दूसरे से कहने लगते हैं– “लागो हो सारहेन के, सोहराय चढ़ई गेलव रे।” अर्थात “साथी लगता है कि सोहराय आ गया है।” संथाल परगना में कुल छह जिले शामिल हैं–– गोड्डा, देवघर, दुमका, जामताड़ा, साहिबगंज और पाकुड़। इन जिलों में संथाल आदिवासियों की बहुलता है। अपनी निजता, स्वायत्तता और जल-जंगल-जमीन के साथ खेती लायक जमीन के निर्माण और संरक्षण में संथालों ने ब्रिटिश सरकार से लोहा लिया। सिदो-कान्हू मुर्मू इसी समुदाय के महानायक रहे।
आदिवासी संस्कृति में स्त्री-पुरुष का भेद नहीं, बैल भी माने जाते हैं नागरिक
सोहराई मनाते समय आदिवासी युवक-युवतियों के सोगोय (लड़के और लड़कियों की टोली) एक-दूसरे के आमने-सामने होकर नाचते हैं। नाच-गान का दौर देर रात तक चलता है, जिसमें युवक-युवतियां पूरी शालीनता से खेती-किसानी और समृद्धि के गीत गाते हुए नाचते हैं। सोगोय की दोनों टोलियों का बराबर महत्व होता है, जिसमें स्त्री-पुरुष का कोई भेद नहीं रहता। एक तरह से गोटुल व धूमकुड़िया की तरह यह पर्व भी स्त्री-पुरुष समानता का पाठ पढ़ाने वाले एक संस्थान की तरह है। संथाल आंदोलन में औरतों की भूमिका पुरुषों से कमतर न होने का एक कारण यह भी है कि खेती-किसानी से लेकर नाच और उमंग तक में औरतों की सहभागिता हमेशा पुरुषों के समान या अधिक रही है।
सोहराई पर्व में पशुओं खासकर बैलों का विशेष आदर किया जाता है। खेती-किसानी में बैलों की भूमिका किसी भी तरह किसान से कम नहीं। पैदावार में उसका भी हिस्सा स्वीकार किया जाता है। इसीलिए इस पर्व में न केवल पशुओं के सींग को तेल लगाकर चमकाया जाता है, बल्कि कृषि के दूसरे उपकरणों, जैसे हल और जुआ की भी पूजा की जाती है। बैलों के सींगों में मांडर (धान की बालियों की माला) पहनाई जाती है। बैलों के नाद में अच्छा चारा डाला जाता है। भारत के कुछ दूसरे हिस्सों के किसान भी इसी तरह बैलों का सत्कार करते हैं। महाराष्ट्र का ‘बैल-पोला’ ऐसा ही पर्व है। इस प्रकार, सोहराई एक लोकतांत्रिक पर्व है, जिसमें स्त्री-पुरुष के साथ-साथ बैलों को बराबर का हिस्सेदार माना जाता है। वैसे भी आदिवासी लोकतंत्र की परिकल्पना में पशु भी नागरिक माने जाते हैं।
आज का समय और सोहराई
संथाल व अन्य आदिवासी समुदाय ऐसे स्वायत्त समाज हैं, जिन्हें औपनिवेेशिक काल से लेकर आज तक अपनी पहचान को बनाए रखने के लिए लड़ना पड़ा है। सोहराई, सरहुल और करम जैसे त्यौहार इनकी पहचान को मुकम्मल बनाते हैं। इन त्यौहारों से जुड़कर आदिवासी समाज युवक-युवती कला, संस्कृति और अपने नायकों से जुड़े रह पाते हैं। इसलिए बाजार और उपनिवेशवादी शक्तियां इन सांस्कृतिक पहचानों पर हमलावार रहती हैं। और जब से आदिवासियों में राजनीतिक चेतना आई है, तब से इस तरह के सांस्कृतिक आक्रमण तेज हो गए हैं।
हाल के दिनों की बात करें तो आदिवासी धर्म कोड की मांग ने तमाम आदिवासी समुदायों को एक छतरी के नीचे लाने का काम किया है। इसने अखिल भारतीय आदिवासी एकता की मांग और समझ को हकीकत में बदल दिया। इस तरह की मांग और समझ की आहट से आदिवासी शोषण पर आधारित संस्थाओं के कान खड़े हो गए और उनके आक्रमणकारी उपकरण पहले से ज्यादा पैने और घातक हो गए। यही कारण है कि हाल-फिलहाल में सांस्कृतिक हमलों की घटनाओं में इजाफा हुआ है। इस हमले की एक विशेषता यह भी है कि इसने आदिवासी समुदाय के अंदर से विरोधी स्वरों को धो-पोंछकर पेश किया गया है। कुछेक चिंतनीय स्वर सोहराई के संदर्भ में भी उठाए गए हैं, जिन्हें नजरअंदाज बेशक नहीं किया जाना चाहिए। मसलन, हाल ही में प्रो. रजनी मुर्मू द्वारा लगाए गए आरोप कि सोहराई के दौरान आदिवासी औरतें पुरुषों के जुल्म का शिकार होती हैं। आवश्यकता इस बात की है कि ऐसे स्वरों को सुना जाना चाहिए और आई पेचीदगियों का हल निकालना चाहिए।
कहना अतिश्योक्ति नहीं कि आदिवासी समुदाय का कुछ हिस्सा बाजार का अभ्यस्त हो चुका है। बाजार उनकी आदतों में शामिल हो रहा है। आज की पीढ़ी ज्यादा सजग और सचेत है। मगर बाहरी संस्कृतियों के हमले को नकारा नहीं जा सकता है और ना ही हमलों की पहचान किए बगैर किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जाना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो सांस्कृतिक आक्रमणकारियों का मकसद पूरा हो सकता है।
(संपादन : नवल/अनिल)