भीम आर्मी प्रमुख और आज़ाद समाज पार्टी के नेता चंद्रशेखर आज़ाद ने गोरखपुर शहर सीट से विधानसभा चुनाव लड़ने का फैसला किया है। इस सीट से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भाजपा के प्रत्याशी हैं। गोरखपुर से चंद्रशेखर की उम्मीदवारी का ऐलान होने के बाद इस सीट पर चुनाव का नतीजा भले जो भी हो, लेकिन मुक़ाबला तो दिलचस्प हो ही गया है।
गोरखपुर सदर सीट के लिए अभी कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, और बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवारों का ऐलान होना बाक़ी है। ज़ाहिर है, जबतक सभी पार्टियां अपने उम्मीदवार न उतार दें, तब तक समीकरणों पर बात करना जल्दबाज़ी ही कही जाएगी। लेकिन अभी तक इस सीट से जो दो चेहरे मैदान में आए हैं उनमें एक राज्य का मुख्यमंत्री है और दूसरा दलित राजनीति का एक उभरता हुआ चेहरा है। योगी आदित्यनाथ 2017 में मुख्यमंत्री बनने से पहले गोरखपुर से ही सांसद थे। यह विधानसभा क्षेत्र ऐतिहासिक तौर पर भाजपा का गढ़ माना जाता है। गोरखपुर सदर के मौजूदा विधायक राधा मोहन अग्रवाल और सांसद रविकिशन दोनों भाजपा से हैं। ऐसे में चंद्रशेखर की चुनौती कितनी मज़बूत होगी इसे लेकर क़यासबाज़ी होना लाज़िम है।
इतिहास की बात करें तो गोरखपुर सदर विधानसभा क्षेत्र से 1952 औऱ 1957 में कांग्रेस के इस्तफा हुसैन की जीत हुई। वर्ष 1962 में कांग्रेस पार्टी के नियामतुल्लाह अंसारी ने जीत हासिल की। वहीं वर्ष 1967 में भारतीय जनसंघ के उदय प्रताप विजयी हुए और इस तरह गोरखपुर में भगवा राजनीति का दरवाज़ा पहली बार खुला। जबकि 1969 में कांग्रेस के रामलाल भाई चुनाव जीते। फिर 1974 में अवधेश श्रीवास्तव जनसंघ के टिकट पर और फिर 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर चुनकर विधानसभा पहुंचे। 1980 और 1985 में लगातार दो बार इस सीट पर कांग्रेस के सुनील शास्त्री की भी जीत हुई।
इसके उपरांत 1989, 1991, 1993 और 1996 में लगातार चार बार, गोरखपुर सदर सीट से भाजपा के शिव प्रताप शुक्ला की जीत हुई। 2002 में योगी आदित्यनाथ द्वारा भाजपा से बग़ावत के चलते राधा मोहन दास अग्रवाल हिंदू महासभा के टिकट पर चुनाव जीते। योगी पार्टी मे वापस आए तो राधा मोहन 2007 में भाजपा के उम्मीदवार हुए। फिर 2007, 2012 और 2017 में इस सीट से राधा मोहन विजयी रहे हैं। कुल मिलाकर राम मंदिर आंदोलन की लहर पर सवार होने के बाद से गोरखपुर भगवा राजनीति का गढ़ बना हुआ है।
वहीं सामाजिक ताने-बाने की बात करें तो गोरखपुर शहर विधान सभा क्षेत्र में राजपूत, कायस्थ, ब्राह्मण, बनिया और मुसलमान वोटर ठीक-ठाक संख्या में हैं। हालांकि, सिर्फ पिछड़े या दलित वोटरों की गोलबंदी नतीजों को बदल नहीं सकती, लेकिन उनपर गहरा असर ज़रुर डाल सकती है। गोरखपुर शहरी विधानसभा क्षेत्र में क़रीब 4 लाख मतदाता हैं। जातीय लिहाज़ से शहरी सीट पर करीब 35 हज़ार ब्राह्मण, क़रीब 30 हज़ार दलित और 20-25 हज़ार वैश्य वोटर हैं। इसके अलावा क़रीब 40 हजार निषाद, केवट, मल्लाह वोटर हैं, जो पिछड़ों में एक बड़ा समूह है। हालांकि गोरखपुर शहर की कुल आबादी का क़रीब 21 फीसदी मुसलमान हैं, लेकिन शहरी विधानसभा सीट पर तमाम अल्पसंख्यक वोटर 30 हज़ार के आसपास ही हैं।
इन जातिगत ताने-बाने से इतर गोरखपुर शहरी सीट के नतीजों पर गोरखनाथ मठ का सबसे ज़्यादा असर माना जाता है। मठ के प्रभाव और सवर्ण वोटरों की बड़ी तादाद के चलते चंद्रशेखर के लिए चुनाव आसान नहीं है। अगर भाजपा का निषाद पार्टी से समझौता न हुआ होता, तमाम पिछड़े और दलित लामबंद हो जाते, और फिर मुसलमान भी समर्थन दे देते तो चुनाव वाक़ई मज़ेदार हो जाता।
बहरहाल, यह देखना होगा कि सपा, बसपा और कांग्रेस इस सीट पर किसे टिकट देते हैं। इसके पहले 2017 में कांग्रेस के राणा राघवेंद्र क़रीब 61 हज़ार वोट लेकर यहां दूसरे स्थान पर रहे थे। अगर विपक्षी पार्टियां जातीय समीकरणों के हिसाब से अपने उम्मीदवारों का ऐलान करती हैं तो योगी आदित्यनाथ को इस सीट पर घेरा जा सकता है। कुल मिलाकर गोरखपुर में चुनाव चेहरे पर होना है और फिलहाल यूपी की राजनीति के दो बड़े चेहरे यहां से मैदान में हैं।
(संपादन : नवल/अनिल)
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