सावित्रीबाई फुले (3 जनवरी, 1831 – 10 मार्च, 1897) पर विशेष
यह जानकर आश्चर्य होता है कि 18वीं शताब्दी में भारत की पहली शिक्षिका तथा सामाजिक क्रांति की अग्रदूत सावित्रीबाई फुले एक प्रखर, निर्भीक, चेतना सम्पन्न, तर्कशील, दार्शनिक, स्त्रीवादी ख्याति प्राप्त लोकप्रिय कवयित्री अपनी पूरी प्रतिभा और ताकत के साथ उपस्थित होती हैं और किसी की उन पर निगाह भी नहीं जाती या फिर दूसरे शब्दों में कहूं तो उनके योगदान पर मौन धारण कर लिया जाता है। सवाल है इस मौन धारण का, अवहेलना और उपेक्षा करने का क्या कारण है? क्या इसका एकमात्र कारण उनका शूद्र तबके में जन्म लेना और दूसरे स्त्री होना माना जाए? सावित्रीबाई फुले का पूरा जीवन समाज के वंचित तबकों खासकर स्त्री और दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष और सहयोग में बीता। जोतीराव संग सावित्रीबाई फुले ने जब क्रूर पितृसत्ता व ब्राह्मणवाद का विरोध करते हुए, लड़कियों के लिए स्कूल खोलने से लेकर तात्कालीन समाज में व्याप्त तमाम दलित-शूद्र-स्त्री विरोधी सामाजिक, नैतिक और धार्मिक रूढ़ियों-आडंबरों-अंधविश्वास के खिलाफ मजबूती से बढ-चढकर डंके की चोट पर जंग लडने की ठानी, तब इस जंग में दुश्मन के खिलाफ लडाई का एक मजबूत हथियार बना उनका स्वयं रचित साहित्य जिसका उन्होंने प्रतिक्रियावादी ताकतों को कड़ा जबाब देने के लिए बहुत खूबसूरती से इस्तेमाल किया। सावित्रीबाई फुले के साहित्य में उनकी कविताएं, पत्र, भाषण, लेख, पुस्तकें आदि शामिल है।
सावित्रीबाई फुले ने अपने जीवन काल में दो काव्य पुस्तकों की रचना की, जिनमें उनका पहला ‘काव्य-फुले’ 1854 में तब छपा जब वे मात्र तेईस वर्ष की ही थीं। दूसरा काव्य-संग्रह ‘बावनकशी सुबोधरत्नाकर’ 1891 में आया, जिसे सावित्रीबाई फुले ने अपने जीवनसाथी जोतीराव फुले की परिनिर्वाण प्राप्ति के बाद उनकी जीवनी रूप में लिखा था।
अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में ब्राह्मणवाद अपने कट्टरतम रूप में चरम पर था। उस समय सवर्ण हिन्दू समाज और उसके ठेकेदारों द्वारा शूद्र, दलितों और स्त्रियों पर किए जा रहे अत्याचार-उत्पीडन-शोषण की कोई सीमा नहीं थी। डॉ. आंबेडकर ने उस समय की हालत का वर्णन अपनी पुस्तक ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ में करते हुए कहा है– “पेशेवाओं के शासनकाल में, महाराष्ट्र में, इन अछूतों को उस सड़क पर चलने की आज्ञा नही थी जिस पर कोई सवर्ण हिन्दू चल रहा हो। इनके लिए आदेश था कि अपनी कलाई में या गले में काला धागा बांधे, ताकि हिन्दू इन्हें भूल से ना छू लें। पेशवाओं की राजधानी पूना में तो इन अछूतों के लिए यह आदेश था कि ये कमर में झाडू बाँधकर चलें, ताकि इनके पैरों के चिन्ह झाडू से मिट जाएं और कोई हिन्दू इनके पद चिन्हों पर पैर रखकर अपवित्र न हो जाएं, अछूत अपने गले में हांडी बाँधकर चले और जब थूकना हो तो उसी में थूकें, भूमि पर पड़ें हुए अछूत के थूक पर किसी हिन्दू का पैर पड़ जाने से वह अपवित्र हो जाएगा।”
सन् 1818 में पेशवाराज के खात्मे के करीब 13 साल बाद सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी, 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिला के एक छोटे से गांव नायगांव में हुआ। मात्र नौ साल की उम्र में ग्यारह साल के जोतीराव संग ब्याह दी गई। केवल सत्रह वर्ष की उम्र में ही सावित्रीबाई ने बच्चियों के एक स्कूल की अध्यापिका और प्रधानाचार्या दोनों की भूमिका को सवर्ण समाज के द्वारा उत्पन्न अड़चनों से लड़ते हुए बडी ही लगन, विश्वास और सहजता से निभाया। समता, बंधुता, मैत्री और न्याय पूर्ण समाज की ल़डाई के लिए, सामाजिक क्रांति को आगे बढाने के लिए सावित्राबाई फुले ने साहित्य की रचना की। आज भी यह बात बहुत कम लोग जानते है कि वे एक सजग, तर्कशील, भावप्राण, जुझारू क्रांतिकारी कवयित्री थीं। मात्र 23 साल की उम्र में उनका पहला काव्य संग्रह ‘काव्य फुले’ आ गया था, जिसमें उन्होंने धर्म, धर्मशास्त्र, धार्मिक पाखंड़ो और कुरीतियों के खिलाफ जमकर लिखा। औरतों की सामाजिक स्थिति पर कविताएं लिखीं और उनकी बुरी स्थिति के लिए जिम्मेदार ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता पर कड़ा पर प्रहार किया। सावित्रीबाई फुले अपनी एक कविता में दलितों औऱ बहुजनों को समाज में बैठी अज्ञानता को पहचान कर उसे पकड़कर कुचल-कुचल कर मारने के लिए कहती हैं, क्योंकि यह अज्ञानता यानी अशिक्षा ही दलित बहुजन और स्त्री समाज की दुश्मन है, जिसे जानबूझकर सोची-समझी साजिश के तहत वंचित समूह को ज्ञान से दूर रखा गया है।
हमारे जानी दुश्मन का नाम है अज्ञान
उसे धर दबोचो, मजबूत पकड़कर पीटो।
(सावित्रीबाई फुले की कविताएं, संपादक अनिता भारती, पृष्ठ संख्या 5)
इस अशिक्षा रूपी अज्ञानता के कारण ही पूरा बहुजन समाज सवर्ण हिन्दुओं का गुलाम बना है। इनके पाखंड और कूटनीति के हथियार ज्योतिष, पंचाग, हस्तरेखा आदि पर व्यंग्य करती हुई सावित्रीबाई फुले कहती हैं–
ज्योतिष पंचाग हस्तरेखा में पड़े मूर्खों
स्वर्ग नरक की कल्पना में रूचि
पशु जीवन में ऐसे भ्रम की जगह न कोई
मूर्ख मकड़जाल से निकले न ही
हाथ पर हाथ धरे-बैठे मूर्खों निठल्लो को
कैसे इन्सान कहे? (वही, पेज-2)
सावित्रीबाई फुले जानती हैं कि शूद्र और दलितों की गरीबी का कारण क्या है। उनके मुताबिक, ब्राह्मणवाद केवल मन की एक मानसिकता ही नही वरन् एक पूरी व्यवस्था है, जिससे धर्म और ब्राह्मणवाद के पोषक तत्व देवी-देवता, रीति-रिवाज, पूजा-अर्चना आदि गरीब दलित दमित जनता को अपने में नियंत्रण में रखकर उनकी उन्नति के सारे रास्ते बंद कर उन्हें गरीबी, तंगी, बदहाली भरे जीवन में धकेलते आए हैं।
शूद्र और अति शूद्र अज्ञान की वजह से पिछड़े देव धर्म,
रीति रिवाज़, अर्चना के कारण दरिद्रता अभाव में कंगाल हुआ (वही, पृष्ठ संख्या 6)
वह शूद्रों के दुख को, जाति के आधार पर प्रताड़ना के दुख को दो हजार साल से भी पुराना बताती हैं। इसके कारण के रूप में वह मानती हैं कि इस धरती पर ब्राह्मणों ने अपने आप को स्वयं घोषित देवता बना लिया है और उसके माध्यम से यह स्वयं घोषित ब्राह्मण देवता अपनी मक्कारी और झूठ फरेब का जाल बिछाकर, उन्हें डरा-धमका कर रात-दिन अपनी सेवा करवाते हैं।
दो हजार साल पुराना
शूद्रों से जुड़ा है एक दुख
ब्राह्मणों की सेवा की आज्ञा देकर
झूठे मक्कार स्वयं घोषित
भू देवताओं ने पछाड़ा है। (वही, पृष्ठ संख्या 14)
सावित्रीबाई फुले कहती हैं कि ब्राह्मणों के ग्रंथ मनुस्मृति को दलित, शूद्र और स्त्री की दुर्दशा की जिम्मेदार हैं, इसलिए वे मनुस्मृति के रचयिता मनु को इस बात के आड़े हाथ लेती हैं, जिसमें यह कहा गया है कि जो हल चलाता है, जो खेती करता है वह मूर्ख है। दरअसल सावित्रीबाई फुले इस बात में निहित षडयंत्र को जानती हैं। वह जानती हैं कि यदि शुद्र और दलित खेती करेंगे तो संपन्न होंगे। यदि वे संपन्न होंगे तो खुशहाली भरा जीवन व्यतीत करेंगे, जिससे वे ब्राह्मणों की धर्माज्ञा को मानना बंद कर देंगे। इसलिए मनुस्मृति रचयिता को खरी-खरी सुनाते हुए वह कहती हैं–
हल जो चलावे, खेती जी करे
वे मूर्ख होते है, कहे मनु
मत करो खेती कहे मनुस्मृति
धर्माज्ञा की करे घोषणा, ब्राह्मणों की (वही, पृष्ठ संख्या 16)
शूद्र और दलित यहां के मूलनिवासी हैं। आक्रांता आर्य बाहर से आए थे और उन्होने अपनी चलाकी और धूर्तता से, अन्य सत्ताधारी शासकों से मिलकर यहां के भोले-भाले मूलनिवासियों को पद-दलित कर दिया। लेकिन यहाँ के मूलनिवासी अपने शौर्य दयालुता और प्रेम आदि जीवन मूल्यों में विश्वास रखते आए है। इन शूरवीर जननायकों में छत्रपति शिवाजी, महारानी ताराबाई, अंबाबाई आदि जिन्होने समतामूलक समाज बनाने के लिए अन्याय और अत्याचार के खिलाफ लडाई लडी, सावित्रीबाई फुले इन शूरवीरों के समक्ष अपना सिर झुकाती हैं। महान शूरवीर यौद्धा बलिराजा के प्रति अपना सम्मान प्रकट करते हुए और अपने तथा अपने वंचित समाज को उनका वंशज मानती हैं और कहती हैं–
शूद्र शब्द का सही अर्थ है-नेटिव
आक्रांताओं ने शूद्र का ठप्पा लगाया
पराजित मूलनिवासी हुए गुलाम इराणी भरोडे
और भट ब्राह्मण अंग्रेजों के बने उम्र दूत/शूद्र
असल में मूल निवासी शूद्र स्वामी इंडिया के
नाम उनका था इंडियन
थे शूर यौद्धा गाजी हमारे पुरये
उन्ही प्रतापी यौद्धाओं के हम सब वंशज
बलिराज में जनता सुखी
उसकी कीर्ति त्रिभुवन उसकी गौरवगाथा गाते
मूल निवासीजन। (वही, पृष्ठ संख्या 54)
शूद्र राजा बलिराजा के राज में समृद्धि है, जनता के पास काम है। वह मेहनती है। खुश है। सुखी है और खुशहाल है। एक वंचित वर्ग के शासक बलिराजा को सिर पर ताज की उपाधि देते हुए सावित्रीबाई फुले कहती हैं–
बलिराज में मेहनती प्रजाजन,
दान में पाएं याचक स्वर्ण घन कंचन
सिर पर ताज रत्नों का बलिराज
और जनता के विशाल मन
छत्रपति शिवाजी बडे शूरवीर योद्धा और जननायक हैं। वंचित तबके की शूद्र-अतिशूद्र जनता उन्हें अपना हमदर्द मानकर सुबह सवेरे रोज याद करती है और उनके शौर्य गान गाती है–
छत्र पति शिवाजी को
सुबह सवेरे याद करते चाहिए
शूद्र अतिशुद्र का हमदर्द
आगे वे इसी कविता में कहती है कि राजा नल, द्रौपदी, युधिष्ठिर आदि का गान तो केवल शास्त्र पुराणों तक ही सीमित है, जबकि शिवाजी की शौर्य गाथाएं इतिहास में दर्ज हो गई हैं और हमेशा रहेंगीं।
नल राजा, युधिष्ठिर, द्रोपदी आदि
नामी गिरामी शास्त्र-पुराणों के पन्नों तक सीमित
किन्तु छत्रपति शिवाजी की शौर्य गाथा
है इतिहास में दर्ज। (वही, पृष्ठ 26)
शूद्र-अतिशूद्र और आदिवासी समाज में स्त्रियां बहुत बहादुर और जुझारू होती हैं। वह किसी भी कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी हार नही मानती हैं। मुसीबत आने पर भी किसी भी मोर्चे अपने समाज के साथ खडी होकर अपने बच्चों को साथ ले, बराबरी से डटकर मुकाबला करती हैं। महारानी ताराबाई ऐसी ही एक बहादुरी योद्धा थीं। उन्हेें लडाकू वीरांगना की पदवी देते हुए सावित्रीबाई फुले उन्हें शत्रु मर्दिनी, शेर की तरह दड़ाडने वाली, बिजली से भी अधिक फुर्तीली बताती हैं और अपना प्रेरणास्राेत मानती हैं।
महारानी ताराबाई लड़ाकू वीरागंना
रणभूमि में रण चंडिका तूफानी
युद्ध भूमि में युद्ध की प्रेरणास्त्रोत
आदर से सिर झुक जाता
उसे प्रणाम करना मुझे सुहाता। (वही, पृष्ठ संख्या 10)
सावित्रीबाई फुले अपनी तमाम उम्र दलित वंचित शूद्र व स्त्री तबके के लिए जिस अधिकार के लिए लडती रहीं, वह अधिकार था शिक्षा का। इस पूरे वर्ग को जानबूझकर शिक्षा रहित करके उसी ताकत योग्यता और उसके श्रम का शोषण किया गया। उसके वो तमाम रास्ते जो उसे आगे ले जा सकते थे, जो उसे अन्याय के खिलाफ प्रतिकार करने की ताकत देते थे, जो उसे शोषण और अत्याचार से लडना सिखाते थे, सब के सब शिक्षा के अधिकार के बिना अधूरे रह गए। सावित्रीबाई फुले ने सवर्णों के इस कुचाल को समझा कि यह सवर्ण समाज कभी दलितों वंचितों और शूद्रों को पढने लिखने नही देगा। इसलिए सावित्रीबाई ने सबसे ज्यादा अपनी कविताओं के माध्यम से शिक्षा प्राप्त करने की अलख जगाई। उन्हें अपने सामाजिक कार्यों द्वारा अनुभव हो चुका था कि शिक्षा के बिना, खासकर अंग्रेजी शिक्षा के बिना शूद्र अतिशूद्र तथाकथित मुख्यधारा के विकास में शामिल नहीं हो सकते। अत: वह शूद्र-अतिशूद्रों को अंग्रेजी पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करती है और अपनी कविता ‘अंग्रेजी मैय्या’ मे कहती हैं–
अंग्रेजी मैय्या। अंग्रेजी मैय्या।
शूद्रों को मुक्ति दिलावे दिलो जान से
अंग्रेजी मैया। अब नहीं है मुगलाई
नहीं बचा अब। पेशवाई, मूर्खशाही।
अंग्रेजी मैया। तूने तोड़ डाली जंजीर पशुता
की इंसानियत की बौछार
सारे शूद्र जनों पर
इसी तरह अपनी दूसरी कविता ‘अंग्रेजी पढ़िए’ में शूद्रों-अतिशूद्रों को अपनी जीवन शिक्षा से सुधारने के लिए कहती हैं–
विधा के अभाव में,
बेकार बदत्तर जीवन
पशुतुल्य हाथ पर हाथ धरे-निठल्ले न बैठे,
करो विद्याग्रहण अंग्रेजी पढ़कर।
जातिभेद की दीवारें तोड़ दीजिए।
फेंक दीजिए भट-ब्राह्मणों के,
षड्यंत्रों से लैस शास्त्रों पंचांगों को।
धार्मिक रूढियों, अंधविश्वास और आडंबर की पोल खोलकर उनका मजाक बनाते हुए, उसपर व्यंग्य करती हुई सावित्रीबाई अपनी ‘मन्नत’ कविता में कहती हैं–
पत्थर को सिंदूर लगाकर
और तेल में डुबोकर
जिसे समझा जाता है देवता
वह असल में होता है पत्थर।
आगे वह इसी कविता में पत्थर से मन्नत मांगकर पुत्र प्राप्त करने की अवैज्ञानिकता का मखौल उड़ाते हुए कहती हैं–
यदि पत्थर पूजने से होते पत्थर
तो फिर फिजूल शादी क्यू रचाए नर नारी (वही, पृष्ठ संख्या 22)
जिस समय सावित्रीबाई का प्रथम कविता संग्रह ‘काव्य फुले’ आया उस समय वह शूद्र-अतिशूद्र लड़कियों को पढा रही थीं। जोतीराव फुले व सावित्रीबाई फुले ने 13 मई, 1848 में पहला स्कूल खोला था और ‘काव्य फुले’ 1852 में आया। जब वे पहले पहल स्कूल में पढ़ाने के लिए निकलीं तो वह खुद उस समय बच्ची ही थी। उनके कंधे पर ज्यादा से ज्यादा बच्चों को स्कूल तक लाना तथा उन्हें स्कूल में बनाए रखने की भी बात होगी। सावित्रीबाई फुले ने बहुत ही सुंदर बालगीत भी लिखे हैं, जिनमें उन्होने खेल-खेल में गाते-गाते बच्चों को साफ सुथरा रहना, विद्यालय आकर पढाई करने के लिए प्रेरित करना व पढाई का महत्व बताना आदि है। बच्चों के विद्यालय आने पर वे जिस तरह स्वागत करती हैं, वह उनकी शिक्षा देने की लगन को दर्शाता है–
सुनहरे दिन का उदय हुआ
आओ प्यारे बच्चों आज
हर्ष उल्लास से तुम्हारा स्वागत करती हूँ आज (वही, पृष्ठ 27)
वह विद्या को श्रेष्ठ धन बताते हुए कहती हैं–
विद्या ही सव्रश्रेष्ठ धन है
सभी धन-दौलत से
जिसके पास है ज्ञान का भंडार
है वो ज्ञानी जनता की नज़रो में।
अपने एक अन्य बालगीत में बच्चों को समय का सदुपयोग करने की प्रेरणा देते हुए कहती हैं–
काम जो आज करना है, उसे करें तत्काल
दोपहर में जो कार्य करना है, उसे अभी कर लो
पलभर के बाद का सारा कार्य इसी पल कर लो।
काम पूरा हुआ या नही
न पूछे मौत आने से पूर्व कभी।
सावित्रीबाई फुले की एक बालगीत ‘समूह’ एक लघुनाटिका के समान लगती है। इस कविता में वे समझदार पाठशाला जाकर पढने वाली पांच शिक्षित बच्चियों से पाठशाला न जाने वाली अशिक्षित बच्चियों की आपस में बातचीत व तर्क द्वारा उन्हें पाठशाला आकर पढ़ने के लिए कहती हैं तो निरक्षर बच्चियां जवाब देती हैं–
क्या धरा है पाठशाला में
क्या हमारा सिर फिरा है
फालतू कार्य में वक्त गंवाना बुरा है
चलो खेलें हमारा इसी में भला है
उन्ही में से कुछ बच्चियां कहती हैं–
रूको जरा माँ से जाकर पूछेगें चलो सारे
खेल खूद, घर का कार्य या पाठशाला?
लेकिन सभी अशिक्षित बच्चियां जब अपनी-अपनी माँ के पास पहुंचीं और उन्हें पढाई के लिए हुए सारे वाद-विवाद के बारे में बताया, तब उन अशिक्षित बच्चियों की मांएं भी इन बच्चियों को शिक्षा का महत्व समझाते हुए कहती हैं–
कदम बढाओ पाठशाला जाओ
इन्सानों का सच्चा शिक्षा है
इसे न गवाओं, इसे न ठोकर लगाओ।
सावित्रीबाई फुले जिन स्वतंत्र विचारों की थी, उसकी झलक उनकी कविताओं में स्पष्ट रूप से मिलती है। वह लड़कियों के घर में काम करने, चौका-बर्तन करने की अपेक्षा उनकी पढाई-लिखाई को बेहद जरूरी मानती थीं। कविताओं की इन पंक्तियों से पता चल जाता है कि सावित्रीबाई फुले स्त्री अधिकार चेतना सम्पन्न स्त्रीवादी कवयित्री थी।
चौका बर्तन है बहुत जरूरी है पढ़ाई
क्या तुन्हें मेरी बात समझ में आई?
इस लघु नाटिका जैसे गीत के अंत में पांचों बच्चियों को शिक्षा का महत्व समझ में आ जाता है और वे पढने के लिए उत्सुक होते हुए कहती हैं–
चलो चले पाठशाला हमें है पढ़ना
नही अब वक्त गंवाना है
ज्ञान विद्या प्राप्त करें, चलो अब संकल्प करें
मूढ अज्ञानता, गरीबी गुलामी की जंजीरों को
चलो खत्म करें।
सावित्रीबाई फुले बेहद प्रकृति प्रेमी थी। ‘काव्य फुले’ में उनकी कई सारी कविताएं प्रकृति, प्रकृति के उपहार पुष्प और प्रकृति का मनुष्य को दान आदि विषयों पर लिखी गई है। तरह-तरह के फूल, तितलियाँ, भँवरे, आदि का जिक्र वे जीवन दर्शन के साथ जोड़कर करती हैं। प्रकृति के अनोखे उपहार हमारे चारों ओर खिल रहे तरह-तरह के पुष्प जिनका कवयित्री सावित्रीबाई फुले अपनी कल्पना के सहारे उनकी सुंदरता, मादकता और मोहकता का वर्णन करती हैं, वह सच में बहुत प्रभावित करने वाला है। पीली चम्पा (चाफा) पुष्प के बारे में लिखते हुए वह कहती हैं–
हल्दी रंग की
पीली चम्पा
बाग में खिली, ह्रदय के भीतर तक बस गई
पता न चला मन में कब घर कर गई
ऐसे ही एक अन्य कविता है ‘गुलाब का फूल’। इस कविता में सावित्रीबाई फुले गुलाब और करेन के फूल की तुलना आम आदमी और राजकुमार से करके अपनी कल्पना के जरिए सबको विस्मित कर देती हैं–
गुलाब का फूल और फूल करेन का
रंग रूप दोनो का एक सा
एक आम आदमी, दूसरा राजकुमार
गुलाब की रौनक, देसी फूलो से उसकी उपमा कैसी?
तितली और फूलों की कलियाँ कविता में सावित्रीबाई फुले की दार्शनिक दृष्टि को विस्तार दिखता है। जिस तरह से समाज के सारे रिश्ते नाते स्वार्थ की दहलीज पर खडे होकर अपना स्वार्थ साधते हैं, इस भाव को अभी तक अन्य कवियों ने अपनी कविताओं में फूल और भंवरे के माध्यम से बताया है। पर सावित्रीबाई फुले ने इस स्वार्थपरता की भावना को तितली के जरिए स्पष्ट किया है–
तितली आकाश में उड़ रही है अपने सुन्दर पंख लिए–
तितलियां रंग-बिरंगी मन भावन
उनकी आंखे दिलकश सतरंगी, हँसमुख
पंख मुडे किन्तु भरे उड़ान आकाश में
उनका रंग रूप मनभावन
तितली की मनभावन अदा को देख
एक कली अपने पास बुलाने की भूल कर बैठी
उड़कर पहुंची तितलियां फूलों के पास
इकट्ठा कर शहद पी डाला
मूर्झा गयी कलियाँ
इसी कविता में आगे लिखा है–
फूलों कलियों का रस चखकर
ढूंढा कहीं ओर ठिकाना
रीत है यही दुनिया की
जरूरत और पलभर के है रिश्ते-नाते
देख दुनिया की रीत हो जाती चकित।
प्रकृति का सार्वभौमिक सत्य है जीओ और जीने दो। ‘इंसान और प्रकृति कविता’ में वह इसी तथ्य को प्रतिपादित करते हुए कहती हैं–
मानव जीवन को करे समृद्ध
भय चिंता सभी को छोड़ आईए
खुद जिए और प्रकृति
दोनो है एक ही सिक्के के पहलू।
सावित्रीबाई फुले अपने दाम्पत्य जीवन में, अपनी आजादी में, अपने आनंद में और अपने सामाजिक काम में जोतीराव फुले के प्यार, स्नेह और सहयोग को हमेशा दिल में जगाएं रखती थी। पचास साल के अपने दाम्पत्य जीवन में वे ज्योतिबा के साथ हर पल, हर समय उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चलती रहीं तथा जोतीराव को अपने मन के भीतर संजोकर रखा। जोतीराव और सावित्रीबाई फुले जैसा प्यार, आपसी समझदारी सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणा और समाज के लिए मिसाल है। सामाजिक काम की प्रेरणा के साथ वे अपने काव्य सृजन की प्रेरणा भी जोतीराव फुले को ही मानती। वह लिखती हैं–
ऐसा बोध प्राप्त होता है
ज्योतिबा के सम्पर्क में
मन के भीतर सहेजकर रखती हूं
मैं सावित्री ज्योतिबा की।
संसार का रास्ता कविता में संसार के रास्ते से अलग चलते हुए वह कहती हैं–
मेरे जीवन में ज्योतिबा स्वांनद समग्र आंनद
जिस तरह होता है शहद
फूलों कलियों में।
ज्योतिबा को सलाम
ह्रदय से करते
ज्ञान का अमृत हमें वे देते,
हम पुनर्जीवित जैसे होते है महान ज्योतिबा,
दीन दलित, शूद्र अति शुद्र तुम्हें पुकारते है
‘जोतीराव- सावित्री संवाद’ कविता में सावित्रीबाई फुले ने अपने और जोतीराव फुले के बीच के प्रात:कालीन भ्रमण के समय सुबह की प्राकृतिक सुषमा का वर्णन किया है। सावित्रीबाई फुले इस कविता में सुबह की प्राकृतिक सुषमा के मनोहारी दृश्य के वर्णन के बीच सामाजिक मुददों पर बहस छिड जाती है। इसे बेहद खूबसूरती से चित्रमय संवाद के रूप में दिखाया है। जोतीराव सावित्रीबाई से सुबह होने पर रात के दुखी होने की बात करते हैं। इस बात का सावित्रीबाई फुले जवाब देते हुए कहती हैं कि क्या रात यदि यह इच्छा करती है कि प्रकृति सूर्य बिन रहे तो उसकी इच्छा उल्लू के सामान है, जो सूरज को गाली-गलौज और श्राप देने की कामना करती है।
बातें ज्योतिबा की सुन कहे सावित्री
करे इच्छा रात-रजनी
रहे प्रकृति सूरज बिन
रहें अंधियारे में हमेशा-हमेशा
उल्लुओं की इच्छा होती है ऐसी
करे सूरज को, गाली ग्लौज और दे श्राप
सावित्री का तर्क सम्मत जवाब सुन जोतीराव कहते हैं कि तुम ठीक कहती हो सावित्री शिक्षा के कारण अंधकार छंट गया है और शूद्र-महार जाग गये हैं। उल्लूओं की हमेशा इच्छा होती है कि शूद्र और महार दीन दलित अज्ञानियों की तरह जीवन जिए। मुर्गा को टोकरी से ढकने पर भी वह बांग देना नही छोडता। अत कोई कितना कोशिश करे एक दिन शूद्र-महार जनता अपना शिक्षा का अधिकार पाकर ही रहेगी–
सच कही हो तुम, छटा अंधकार
शूद्रादि महार जाग गये
दीन दलित अज्ञानी रहकर दुख सहे
पशु भांति जिए यह उल्लुओं की है इच्छा
मुर्गा टोकरी से ढका रखने पर भी
देता है बांग
और जनता को बताने, सुबह होने की बात
कविता के अन्त में सावित्री घोषणा करती है–
शूद्र जनता के क्षितिज, ज्योतिबा सूरज
तेज से युक्त, अपूर्व, उदय हुआ।
(संपादन : नवल/अनिल)