जाति प्रथा और उससे जनित भेदभाव के सवाल हमेशा से संघ परिवार और उसकी राजनैतिक शाखा भाजपा के लिए चुनौती रहे हैं। सन् 1980 में भाजपा के गठन के समय से ही पार्टी में उच्च जातियों का बोलबाला रहा है और यही जातियां उसकी प्रमुख समर्थक रही हैं। बल्कि यह बात पार्टी के पूर्व अवतार जनसंघ के बारे में भी सही थी। जनसंघ और भाजपा दोनों ने ही जाति के मुद्दे से दूरी बनाये रखी, क्योंकि उन्हें लगता था कि यह मुद्दा हिन्दुओं को राजनैतिक दृष्टि से एक करने के उनके प्रयासों में बाधक होगा। परन्तु सन् 1990 में राष्ट्रीय मोर्चा की विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार द्वारा मंडल आयोग की सिफारिशें लागू किये जाने के बाद भाजपा के लिए इस मुद्दे को नज़रअंदाज़ करना असंभव हो गया, विशेषकर इसलिए क्योंकि ओबीसी की ओर से उन्हें राजनैतिक प्रतिनिधित्व दिए जाने की मांग जोर पकड़ने लगी। उस समय ओबीसी जातियां उत्तर भारत की राजनीति में हाशिये पर थीं। यह इस तथ्य के बावजूद कि वे आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा थीं।