आदिवासी साहित्य को स्वीकारने में हिंदी साहित्यकारों को बहुत देर लगी। इसके मुख्य कारण आदिवासियों की प्रमुख नगरों से भौगोलिक दूरी, उनका तथाकथित पिछड़ापन, सांस्कृतिक वैशिष्ट्य, आदिमपन, संकोच आदि हैं। हमारे बारे में लोकुर समिति, 1965 द्वारा बतायी गयीं वे पांच विशिष्टताएं, जिनमें आदिम लक्षण, भौगोलिक अलगाव, विशिष्ट संस्कृति, बाहरी समुदाय के साथ संपर्क करने में संकोच व आर्थिक रूप से पिछड़ेपन शामिल हैं, को हमने सच मान लिया। फिर हुआ यह कि संवैधानिक स्तर पर जिस प्रकार सत्ता ने आदिवासियों को चिन्हित कर अनुसूचित किया, उसी प्रकार साहित्य में आदिवासी लेखन के अनुसूचीकरण की प्रक्रिया भी पूर्वाग्रहों से युक्त रही। नतीजतन अकादमिक जगत ने आदिवासियों को ‘आदिवासी’ कहने तक से गुरेज किया। तथाकथित मुख्यधारा ने आदिवासी समाज से फासला बनाए रखा। क्या गुलामी और क्या आज़ादी के बाद का दौर, दोनों दौर की मुख्यधारा ने आदिवासी समाज को कभी अपना नहीं समझा।
यहां तक कि मुख्यधारा के मानवशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों व अन्य विषयों के अध्येत्ताओं ने भी उन्हें ‘ग़ैर’ समझा। मुल्क के संविधान में भले ही ‘डाइवर्सिटी’ को जगह दे दी गई हो, मगर समाज तो अब भी एकरंगी ऐनक ही पहने हुए है। अगर आदिवासी का कहीं ज़िक्र भी होता है, तो उन्हें ऐसे पेश किया जाता है, मानो वे विकास के दौर में ‘पिछड़े’ हुए हैं। उनके चेहरे-मोहरे और रंग-रूप को म्यूजियम में नुमाइश की वस्तु समझी जाती है। उनके नाच-गान को ‘अखड़ा’, जो आदिवासियों के सांस्कृतिक स्थल होते हैं, से निकालकर महानगरों के स्टेजों पर प्रदर्शित किया जाता है। उनके पहनावे और उनके गहनों को ‘एग्ज़ाटिक’ चीज़ समझ कर अलमारियों की शोभा बढ़ाई जाती है। ‘ड्राइंग’ और ‘डाइनिंग’ रूम में उनके द्वारा बने हैंडलूम और कृतियाँ मुख्यधारा के लिए ‘लिबरल एस्थेटिक’ की वस्तु बन जाती हैं। बस उनकी अभिव्यक्तियों, उनके जज़्बात और उनकी मातृभाषाओं में कही गयी बातों को ग्रहण कर पाने की सक्षमता तथाकथित सभ्य समाज में नहीं है।
इतना ही नहीं, आदिवासियों को उनकी अपनी भाषा छोड़ कर तथाकथित मुख्यधारा की भाषाओं में लिखने के लिए मजबूर किया गया। उन्होंने हिंदी में लिखना भी शुरू किया, मगर हिंदी जगत के मठाधीशों ने उनके लेखन को “घटिया” कहकर लांछित किया। इन मठाधीशों द्वारा स्वीकृत लेखन के प्रतिमान अधिकतर आर्य/ब्राह्मण/सगुण/ संस्कृत परम्परा के रंग में रंगे प्रतीत होते हैं।
इस संदर्भ में आदिवासी महिला लेखनी का जगह बना पाना और भी मुश्किल भरा काम है। आदिवासी महिला लेखनी क्यों इतनी देर से दिखाई पड़ती है, इस सवाल को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है। लम्बे समय से शिक्षा जैसा अस्त्र इस देश की चंद जातियों और वर्गों के कब्जे में रही। बहुत बाद में वंचित तबके के लोगों को शिक्षा पाने का अवसर मिला है। उसमें भी महिला तक पहुंचने में और वक़्त लगा है।
विडंबना देखिये कि 19वीं शताब्दी में वंचित तबके की स्त्रियों के लिए स्कूल खुलने लगे। पुणे में भी इसी वक़्त जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले ने वंचित तबके की लड़कियों व स्त्रियों के लिए स्कूल खोला। मगर ब्राह्मणवादी पितृसत्ता समाज को महिलाओं, खासकर दलित, आदिवासी और पिछड़ी जाति से संबंध रखने वाली, का ज्ञान अर्जन करना कैसे स्वीकार हो सकता था? वेद और धार्मिक ग्रन्थ को पढ़ने और टीका-टिप्पणी करने का अधिकार शूद्रों और महिलाओं के लिए बंद था।
मगर पितृसत्तात्मक ढांचे से बाहर निकलने के लिए महिलाओं ने संघर्ष करना शुरू कर दिया। शुरूआती दौर में उन्हें प्रतिष्ठित पटल पर जगह नहीं दी गयी। उनकी लेखनी को तथाकथित पारंपरिक कसौटियों पर खरा नहीं पाया गया। मगर संघर्षशील महिलाओं ने मर्दों की बौद्धिक सत्ता को वैकल्पिक प्लेटफार्म से चुनौती दी। महिलाओं ने अलग-अलग दौर में विभिन्न नामों से अपनी बात कही।
मिसाल के तौर पर, ‘एक अज्ञात हिन्दू औरत’ तो कभी ‘बंग महिला’ के नाम से इन स्त्री लेखकों की रचना प्रकाशित होती रही। तभी तो भारत की महिलाओं के लेखन का इतिहास जानने के लिए हमें वैकल्पिक मार्ग तलाशने पड़े। इसे ‘सबाल्टर्न अध्ययन’ के रूप में देखा जा सकता है। महिलाओं के आरंभिक लेखन को मानक प्रकाशक से छपी पुस्तक से ज्यादा छोटे अखबारों और पत्रिकाओं में तलाशने की ज़रुरत है।
इतिहास के पन्नों को पढ़ने से हमें मालूम होता है कि आदिवासी समाज और उनकी महिलाओं तक शिक्षा का प्रसार ब्रिटिश राज में शुरू हुआ। खासकर ईसाई मिशनरियों ने इसमें अग्रणी रोल अदा किया। शिक्षा को आदिवासियों के बीच में पहुँचाने के क्रम में, 1 दिसंबर, 1852 को ईसाई मिशनरी ने छोटानागपुर पठार के रांची में ‘बेथेसदा बालिका विद्यालय’ खोला। मगर आदिवासी महिलाओं को अपनी लेखनी को हिंदी साहित्य में जगह बनाने में लंबे समय तक और इंतज़ार करना पड़ा।
जहां तक आरम्भिक आदिवासी हिंदी महिला लेखन की बात है, तो उसमें पहला नाम सुशीला समद का आता है। उनका जन्म 7 जून, 1906 को चाईबासा में हुआ। एक बड़ी लेखक के अलावा, वह सामाजिक और सांस्कृतिक नेत्री थीं। वे बिहार विधानसभा में विधान पार्षद भी रहीं। उनकी मृत्यु 10 दिसंबर, 1960 को हुई।
सुशीला समद की आरंभिक रचना पर उस ज़माने की अदबी धारा का असर देखा गया है। समद ने भी प्रकृति और स्त्री मनोभावों की अभिव्यक्ति बड़ी ही मुखरता के साथ अपनी आरंभिक रचनाओं में की है। उन्होंने सन् 1935 में ‘प्रलाप’ नामक काव्य संग्रह प्रकाशित किया, जिसमें कुल 43 कविताएं संगृहीत हैं। ‘प्रलाप’ में छपी एक कविता में समद ने स्त्री की पीड़ा को व्यक्त किया है। मगर उनकी लेखनी में मुक्ति का स्वर भी प्रबल है। इन पंक्तियों को देखिए–
खा आघात और प्रतिघात
आज खुले हैं बन्द कपाट।
टटोलो मत इनको बंदी हाथ,
लगी है अब भी सांकल साथ।
इन पंक्तियों में रचनाकार कह रही हैं कि जीवन बिल्कुल वैसा ही है, जैसा किसी दरवाजे को खुलने और बंद करने के क्रम में दरवाजे को लगातार चोट लगती है। उसी प्रकार लंबे वक़्त से क़ैद में पड़ी ज़िन्दगी भी चोटें खा रही है। मगर मुश्किल भरे दौर से मुक्ति पाने के लिए, लेखिका उम्मीद की मशाल जलाते हुए कहती हैं कि उस सामर्थ्य को समेटकर मुक्ति पाने की ओर अग्रसर होने की आवश्यकता है, जो उनके स्वयं के अन्दर है। एक दशक बाद सुशीला समद ने सन 1948 में ‘सपने का संसार’ नामक काव्य संग्रह भी लिखा, जिसकी प्रति अभी तक हासिल नहीं हुई है। कविता के अलावा, समद ने 1930 के दशक में ‘चांदनी’ नामक पत्रिका का भी संपादन किया।
गद्य लेखन में ऐलिस एक्का की कहानियां दिखाई पड़ती हैं, जहां वह आदिवासी सवालों पर अपनी बात प्रखरता के साथ रखती हैं। एक्का का जन्म 8 सितंबर, 1917 को हुआ और इनकी मृत्यु वर्ष 5 जुलाई, 1978 को हुई। इनकी प्रारंभिक रचनाओं के बारे में अभी भी शोध जारी है। वर्ष 2015 में वंदना टेटे के संपादन में उनकी रचनाओं का संग्रह प्रकाशित हुआ और इस तरह ऐलिस एक्का की लेखनी को बड़े स्तर पर हिंदी साहित्य जान सका। ‘ऐलिस एक्का की कहानियां’ नामक संग्रह में जो कहानियां प्रकाशित हैं, उनके नाम हैं– ‘दुर्गी के बच्चे और एल्मा की कल्पनाएं’, ‘सलगी’, ‘धरती लहलहाएगी झालो नाचेगी गाएगी’, ‘जुगनी और अंबा गाछ’, ‘कोयल की लाड़ली सुमरी’, ‘पंद्रह अगस्त’, ‘वनकन्या’, और ‘बिलचो और रामू’। इनमें आदिवासी स्त्री और प्रकृति का सहसंबंध चिन्हित किया जा सकता है। इसके साथ ही इसमें खलील जिब्रान की पांच अनूदित कहानियां भी शामिल हैं। यह सभी रचनाएं मूल रूप से झारखंड की राजधानी रांची से प्रकाशित होनेवाली आदिवासी पत्रिकाओं के अंक से संगृहीत हैं, जो 1947 से प्रकाशित हो रही थीं। ज्ञात रहे कि टेटे ने जिन कहानियों को दुबारा प्रकाशित किया है उनको ऐलिस एक्का ने 1961 में ‘आदिवासी’ पत्रिका में प्रकाशित किया था।
आदिवासी महिला लेखक की अग्रिम पंक्ति में रोज केरकेट्टा भी रही हैं। उनका जन्म 5 दिसंबर, 1940 को सिमडेगा, झारखंड, में हुआ। उन्होंने लिखना तब शुरू किया, जब पृथक झारखंड राज्य के लिए आदिवासी आन्दोलन तेज़ हो रहा था। रोज केरकेट्टा ने आदिवासी महिलाओं के सवालों को उठाने के दौरान कई बार आदिवासी समाज की संस्थाओं से भी लड़ीं। उनकी रचनाओं में दो हिंदी कहानी संग्रह – ‘पगहा जोरी जोरी रे घाटो’ और ‘बिरुवार गमछा और अन्य कहानियां’ – शामिल हैं। उनके निबंध संग्रह का नाम ‘स्त्री महागाथा की महज एक पंक्ति’ है। हिंदी के अलावा उन्होंने खड़िया भाषा में भी खूब लेखन किया है। ‘सिंकोय सुलोओ’ (कहानी), ‘अबसिब मुरडअ’ (कविता) और ‘सेंभो रो डकई’ (लोकगीत) उनकी खड़िया की रचनायें हैं। उनका एक शोध प्रबंध ‘खड़िया लोककथाओं का साहित्यिक सांस्कृतिक अध्ययन’ के नाम से भी प्रकाशित हैं। उनकी कहानियों में सामाजिक प्रश्नों को उठाया गया है। मिसाल के तौर पर एक कहानी में विधवा आदिवासी स्त्री के ऊपर हो रहे अत्याचार का बड़ा दर्दनाक ज़िक्र है।
रोज केरकेट्टा ने प्रेमचंद की कहानियों का अनुवाद भी खड़िया भाषा में किया है। इस तरह प्रेमचंद को आदिवासी समाज के बीच ले जाने में उनकी बड़ी भूमिका रही है। ज़रुरत इस बात की है कि आदिवासी साहित्य और हिंदी साहित्य के बीच में एक बहनापे का रिश्ता कायम हो। जहां आदिवासी लेखक को प्रेमचंद और उन जैसे प्रगतिशील लेखकों से बहुत कुछ सीखने की ज़रुरत है, उसी प्रकार हिंदी भाषा में लेखन कर रहे लोगों को आदिवासी रचनाकारों से परिचय प्राप्त करने की ज़रुरत है।
आदिवासी लेखिका की पहली पीढ़ी में ग्रेस कुजूर (जन्म 3 अप्रैल, 1949) का नाम आता है। उनकी कविता ‘कलम को तीर होने दो’ बहुत अहम् हैं। उन्होंने कलम को तीर बनाने की बात की। उनका मतलब यह है कि लेखनी के क्षेत्र में वंचित समाज के लिए बराबरी और इंसाफ की लड़ाई लड़ी जाए। उनकी कविता को जिन अन्य संग्रहों में जगह दी गयी हैं, उनके नाम कुछ यूं हैं– ‘कलम उगलती आग’, ‘लोकप्रिय आदिवासी कविताएं’ और ‘कलम को तीर होने दो’। आख़री संग्रह का नाम भी उन्हीं की कविताओं पर आधारित है। हाल के दिनों में उनका पहला काव्य संग्रह साल 2020 में ‘जनी शिकार’ के नाम से प्रकाशित हुआ है। यह संग्रह आदिवासियों के सांस्कृतिक आयोजन के नाम पर रखा गया है।
ध्यातव्य है कि ‘जनी शिकार’ नामक आयोजन में उरांव आदिवासी महिलायें अपने ऐतिहासिक जीत का उत्सव मनाती हैं। इसके पीछे की गाथा यह है कि एक बार रोहतासगढ़ में बिना पुरुषों की मदद के महिलाएं तीन दफे आक्रमणकारियों से लड़कर अपने राज्य की रक्षा करती हैं। यह हर 12 वर्ष के अंतराल पर मनाया जाने वाला सांस्कृतिक आयोजन है।
वैसे ही डायन प्रथा के खिलाफ़ ग्रेस कुजूर का रेडियो नाटक ‘महुआ गिरे आधी रात’ को जनता ने बहुत पसंद किया। अपने लंबे लेखन काल के दौरान उन्होंने अनेक मशहूर पत्र, पत्रिकाओं और समाचार पत्रों में अपनी बातों को रखा। ‘हिन्दुस्तान’, ‘आज’, ‘युद्धरत आम आदमी’, ‘आर्यावर्त्त’, ‘झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा’ आदि में ग्रेस कुजूर निरंतरता के साथ लिखती रही हैं।
इस बात पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि सुशीला समद, ऐलिस एक्का, रोज केरकेट्टा और ग्रेस कुजूर ने आदवासी स्त्री लेखन की अगुवाई की। उनके बाद की पीढ़ी में शांति खलखो (जन्म 11 जनवरी 1963) का नाम भी उल्लेखनीय है। उन्होंने चार किताबें कलमबंद की है, जिनमें तीन कुडुख भाषा में हैं। ये हैं– ‘पुना डहरे’, ‘कुडुख सिखरना डंडी’, ‘कुडुख तोड़न अखहा’। इनके अलावा ‘उरांव संस्कृति परिवर्तन एवं दिशाएं’ हिंदी में लिखी गई है। शांति खलखो की लेखनी की धार भी कविताओं और कहानियों के माध्यम से हिंदी व कुडुख भाषा में प्रमुखता से छपती रही है। साल 2019 में साहित्य अकादमी द्वारा छापी गई ‘आदिवासी कहानी संचयन’ में उनकी आत्मकथात्मक कहानी ‘मेरे बाप की शादी’ को शामिल किया गया।
इनके अलावा फ्रांसिस्का कुजूर ने भी आदिवासी महिला लेखन को काफी आगे बढाया है। उनकी अबतक दस पुस्तकें प्रकशित हो चुकी हैं। उन्होंने भी अपनी लेखनी को कुडुख और हिंदी भाषा के माध्यम से व्यक्त किया है। उनकी कहानी ‘मूसल’ ने काफी लोकप्रियता हासिल की है, जिसमें संयुक्त परिवार के टूटने की प्रक्रिया का चित्रण किया गया है। विनोबा भावे विश्वविद्यालय, हजारीबाग में इतिहास की प्रोफेसर फ्रांसिस्का कुजूर की किताबों के नाम हैं– ‘कुडुख की अनुगूंज’, ‘झारखंड ओंद नजाइर’, ‘बरचा ओंटा रुम्फ़’, ‘उदियारा पिंजड़ा का मयना’, ‘मूसल’ (कहानी संग्रह), ‘उरांवों की विरासत रोहतासगढ़’, ‘20वीं शताब्दी में अंडमान निकोबार’, ‘पवित्र भूमि, येरुसलेम की यात्रा’, ‘पोरहाट राजा अर्जुन सिंह – स्वतंत्रता सेनानी’, ‘प्रभु ने मुझे गौरवान्वित किया’।
झारखंड की ‘आयरन लेडी’ के नाम से मशहूर दयामनी बारला भी दूसरी पीढ़ी की लेखिका हैं। उनकी लेखनी के ऊपर उनकी राजनैतिक, सामाजिक विचारधारा का बड़ा गहरा छाप मिलता है। उनकी लेखनी में जमीन पर चल रहे आन्दोलन की गूंज सुनाई देती है। इसी कड़ी में दमयंती सिंकू का भी नाम आता है। उन्होंने हिंदी और ‘हो’ भाषा में लेखन किया है। उनका काम भाषा विज्ञान में भी बहुत अहम् रहा है। उनकी प्रमुख रचनाएं हैं– ‘सिंहभूम के शहीद लड़ाका हो’, ‘हो दुरंग हिसिर’, ‘हो भाषा के साहित्यकार’, ‘हो हिंदी शब्दकोश’, ‘हो व्याकरण’, ‘हो जनजाति में बा-गीत’, ‘हो सीखें’, ‘पुति रेया सेतेड़ डबुरा को’ आदि। उन्होंने ‘मरंग गोमके जयपाल सिंह मुंडा’ नाटक का अनुवाद ‘हो’ भाषा में किया है। इस पीढ़ी के अन्य प्रमुख आदिवासी लेखिका वासवी कीड़ो हैं, जिनकी रचनाओं में विविधता पाई जाती है। उनकी रचनाओं में ‘उलगुलान की औरतें’, ‘भारत में विस्थापन की अवधारणा और विकास’, ‘महुआ की महिमा’, ‘झारखंड की बेटी और रूप की मंडी’, ‘होड़ोपैथी’ आदि शामिल हैं। इसी प्रकार चौठी उरांव भी इस दौर की अहम् आदिवासी लेखिका हैं। उनकी पुस्तक ‘कुडुख कथाएं और कथतुर’ कई पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं। कुर्दुला कुजूर द्वारा ‘कुडुख लोकगीत’ भाग-1 और भाग-2 नामक ग्रन्थ में संगृहीत हैं। अन्य आदिवासी लेखिका में ज्योति लकड़ा का भी नाम है। उनकी कहानियां और कविताएं ‘जनी मन कवि मन’, ‘कलम को तीर होने दो’, ‘प्रतिरोध का पक्ष’, ‘लोकप्रिय आदिवासी कहानियां’, ‘मांदर के थाप पर’ आदि संग्रहों में संगृहीत हैं। इसके अलावा ज्योति लकड़ा देश की प्रमुख पत्र और पत्रिकाओं में निरंतर लिखती रही हैं। ‘नया पथ’, ‘युद्धरत आम आदमी’, ‘परिकथा’, ‘कथाक्रम’, ‘प्रभात खबर’, ‘अखड़ा’, ‘निरंग पझरा’ आदि में उनकी रचनाएं प्रकाशित हैं।
झारखंड से दूर अन्य प्रान्तों की धरती पर भी बहुत सारे आदिवासी महिला लेखक पैदा हुए हैं। मिसाल के तौर पर, महाराष्ट्र के कचाड़गढ़ की उषा किरण आत्राम गोंडी, हिंदी, मराठी में लिखने वाली, आन्दोलनधर्मी नेत्री व लेखिका हैं। ‘गोंडवाना की वीरांगनाएं’, ‘मोरकी’, ‘कथा संग्रह’ आदि में उनकी दमदार लेखनी का आस्वादन किया जा सकता है। ओड़िशा की आदिवासी लेखिका पद्मश्री दमयंती बेसरा हैं, जो संथाली भाषा में अपनी लेखनी करती रही है। ‘जिवि झरना’, ‘साय साहेंद’ इनकी रचनाएं हैं। सुशीला समद, ऐलिस एक्का, रोज केरकेट्टा और ग्रेस कुजूर के बाद आने वाली इन तमाम लेखिकाओं के हम दूसरी पीढ़ी हिस्सा कह सकते हैं।
तीसरी पीढ़ी की आदिवासी लेखिका और उनकी रचना कुछ-कुछ यूं हैं– जसिंता केरकेट्टा (‘अंगोर’, ‘जड़ों की जमीन’, ‘ईश्वर और बाज़ार’), निर्मला पुतुल (‘अपने घर की तलाश में’, ‘बेघर सपने’), वंदना टेटे (‘आदिवासी साहित्य परंपरा और प्रयोजन’, ‘झारखंड एक अंतहीन समरगाथा’, ‘कोनजोगा’, ‘आदिवासी दर्शन कथाएं’), स्नेह नेगी (‘विमुक्त जनजातीय जीवन संघर्ष और अस्मिता के प्रश्न’), उज्ज्वला ज्योति तिग्गा। विश्वासी एक्का छत्तीसगढ़ की आदिवासी लेखिका हैं। उन्होंने अब तक ‘कजरी’, ‘लछमनिया का चूल्हा’, ‘मौसम तो बदलना ही था’ आदि रचनाएं रची हैं। ओड़िशा राज्य के सुंदरगढ़ से अल्मा ग्रेस बारला अंग्रेजी व हिंदी में लेखन करती आ रही हैं। आदिवासी वीरांगनाएं उनकी प्रसिद्ध पुस्तक है।
आदिवासी लेखिकाएं आदिवासी भाषा और हिंदी के अलावा अंग्रेजी में भी लेखन कर रहे हैं। अंग्रेजी में लिखने वाली आदिवासी लेखिका में रूबी हेम्ब्रोम्ब प्रमुख हैं। उनकी तीन किताबें हैं, जो 1855 के संथाल हूल विद्रोह पर आधारित हैं। रूबी हेम्ब्रम ने ‘आदिवाणी’ नामक प्रकाशन की शुरुआत की। यह प्रकाशन आदिवासी आवाजों को अंग्रेजी पाठक तक ले जाता है।
पूर्वोत्तर भारत के विभिन्न राज्यों में आदिवासी लेखन का स्वर अंग्रेजी है। हालाँकि वे हिंदी और अपनी आदिवासी भाषाओं में भी लिखते रहे हैं। पूर्वोत्तर भारत के प्रमुख लेखिका और उनकी रचना कुछ यूं हैं। अरुणाचल प्रदेश की पदमश्री ममंग दई की रचनाएं हैं– ‘द ब्लैक हिल’, ‘द स्काई क्वीन’, ‘रिवर पोएम्स’, ‘स्टूपिड क्यूपिड’, ‘माउंटेन हार्वेस्ट’। बिजोया साववियन मेघालय के खासी आदिवासी समुदाय से हैं। उनकी पुस्तकें हैं– ‘शैडो मैन’, ‘अ फॅमिली सीक्रेट एंड अदर स्टोरीज’ आदि। अरुणाचल के राजीव गांधी यूनिवर्सिटी में हिंदी के प्रोफेसर जोराम नाबाम यालम की रचना के नाम ‘साक्षी है पीपल’, ‘जंगली फूल’, ‘गाय-गेका की औरतें’ हैं। अरुणाचल से संबंध रखने वाली एक अन्य आदिवासी लेखिका जमुना बिनी तादर हैं, जिनकी रचनाएं ‘जब आदिवासी गाता है’, ‘उईमोक’, ‘अयाचित अतिथि और अन्य कहानियां’, ‘दो रंग पुरुष’ हैं। जोराम नाबाम यालम भी हिंदी भाषा में ही लेखन करती हैं।
बहरहाल, आदिवासी महिला लेखन का इतिहास बहुत पुराना है। कई पीढ़ियों से आदिवासी लेखिकाएं देश के विभिन्न भागों से अलग-अलग भाषाओँ में लेखन कर रही हैं। वहां उनके लेखन का सार बताना एक कठिन काम है। मगर इतना तो कहा ही जा सकता है कि जहां एक ओर मुख्यधारा की हिंदी लेखिकाओं के विषयवस्तु मुख्य रूप से विवाह और परिवार की समस्या, धार्मिक बंधन से मुक्ति, आर्थिक स्वतंत्रता के प्रश्न, पितृसत्ता, पूंजी व बाजारवाद जनित समस्या और देह की देहरी आदि हैं तो दूसरी ओर आदिवासी लेखिकाओं का स्वर आदिवासी पहचान, प्रकृति के प्रति अपनी आस्था व सहस्तित्व को ज़ाहिर करता है। इसके अलावा आदिवासी लेखिकाओं द्वारा अपने सामुदायिक अस्तित्व को बनाए रखने की जदोजहद जारी है। बाहरी दिक्कू (सत्ता, पूंजीपति, दलाल, ऊंची जातियां आदि) समाज से प्राप्त प्रताड़नाओं के खिलाफ भी उन्होंने विरोध दर्ज कराया है। उनके लेखन को आज पाठ्यक्रमों में शामिल किये जाने की जरुरत है। निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि भौतिक संसाधनों की हिस्सेदारी का प्रश्न ही जब इस वृहत लोकतंत्र में आज तक ईमानदारीपूर्वक नहीं निपटाया गया हो और न ही इसकी सत्ता वर्ग व समाज द्वारा करने की कोई मंशा रखी गई हो, तब ऐसे में बौद्धिक संसाधनों में हिस्सेदारी का सवाल कहीं न कहीं उथला जान पड़ता है। इस पर सहिष्णुतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है।
(संपादन : नवल/अनिल)
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