नजरिया
उत्तर प्रदेश चुनाव में ‘अगड़े बनाम दलित-पिछड़े’ के नॅरेटिव के मुकाबले में सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) द्वारा एक नया नॅरेटिव बनाने की काेशिशें की जा रही हैं। यह नॅरेटिव है– “सपा आ जाएगी तो…”। जिस तरह राज्य में पिछड़ी जातियां समाजवादी पार्टी (सपा)-राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी)-सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) गठबंधन के साथ लामबंद होती हुई दिखी हैं, सत्ता बचाने की कोशिश में लगी भाजपा ने लोगों के बीच इस नए डर को बेचना शुरु किया है। लोगों को बताया जा रहा है कि लगातार एन्काउंटर करके और अपराधियों को जेल भेज कर उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार ने एकदम अपराधमुक्त कर दिया है। हालांकि आंकड़े दूसरी ही कहानी बयान कर रहे हैं।
यूपी में अपराध भले ही बढ़े हैं, लेकिन मुख्यधारा की मीडिया, और आरएसएस के तमाम अनुशांगिक संगठनों की ताक़त के बूते भाजपा ‘सपा की गुंड़ाराज वापसी’ जैसा डर बेचने में बहुत हद तक कामयाब रही है। ग़ैर-यादव, ग़ैर-जाट ओबीसी और दलित जातियों में भी इस विचार के ख़रीदार कम नहीं हैं। हालांकि एक प्रबुद्ध वर्ग है, जो जानता है कि सामाजिक न्याय या पिछड़ों की बराबरी के नाम पर जब भी कोई दल सत्ता में या सत्ता के क़रीब पहुंचा है तो इस तरह की बातें फैलना कोई अनूठी घटना नहीं हैं। अब इसी से अंदाज़ा लगाइए कि पिछले पांच साल के दौरान राज्य में अपराध लगातार बढ़े हैं, फिर भी क़ानून-व्यवस्था के सवाल पर सरकार के ख़िलाफ मीडिया में एक भी ख़बर नज़र नहीं आ रही।
ज़्यादा पीछे जाने की आवश्यकता नहीं। राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो (एनसीआरबी) के पिछले साल के आंकड़े उठा कर देख लीजिए। 2020 में उत्तर प्रदेश में हत्या के कुल 3779 मामले दर्ज किए गए, यानी राज्य भर में रोज़ाना औसतन दस से ज़्यादा हत्या की घटनाएं हुईं। 2020 में ही अपहरण की कुल 12913 शिकायतें उत्तर प्रदेश पुलिस के पास दर्ज हुईं। यानी राज्य में अपहरण की रोज़ाना औसतन 36 शिकायतें पुलिस को मिलीं। वहीं इसके पहले 2014 से लेकर 2020 तक की अवधि में सबसे अधिक 2018 में अपहरण की 21,711 मामले दर्ज हुए।
यह इसलिए भी हैरान करने वाली बात है, क्योंकि लोगों का पूरा समय लगभग लॉकडाउन जैसी परिस्थितियों में घरों में गुज़रा। लोग घरों से कम बाहर निकले, लेकिन फिर भी अपराध लगातार बढ़ते गए। हालांकि भाजपा के तमाम नेता दावा कर रहे हैं कि ज़ेवर पहनकर रात के समय भी महिलाएं घरों से बाहर निकल सकती हैं , लेकिन यह कोई नहीं बता रहा कि कोई घटना हुई तो उन्नाव और हाथरस की तरह सरकारी तंत्र पीड़ित को ही परेशान करने में जुट जाएगा। यह बात कोई महिला ही बता सकती है कि रात में बिना ज़ेवर पहने भी वह राज्य की किस सड़क पर अकेली घूम सकती है।
इसी तरह सरकार एन्काउंटर और गिरफ्तारियों के दावे तो कर रही है, लेकिन यह नहीं बता रहा कि जिनको अपराधी बताकर मार दिया गया है या जेलों में ठूंसा गया है, उनमें कई राजनीतिक विरोधी या चुनाव में वोट न देने वाले वर्गों से हैं। राज्य सरकार पर लगातार आरोप लगते रहे कि उसने एक जाति विशेष से जुड़े मामलों में कार्रवाई न करने की ठान रखी थी। ऐसे तमाम मामले हुए जिनमें अपराधी दंबग जाति से था लेकिन पुलिस और प्रशासन ने इसलिए कार्रवाई नहीं की, क्योंकि वह इसकी हिम्मत नहीं जुटा पाया। कौन इस बात को दरकिनार कर देगा कि एक इंटरव्यू में मुख्यमंत्री क्षत्रिय होने का दंभ ज़ाहिर करते हैं और जाति के लिए नरम दिली की बात स्वीकार करते हैं। यह बात अलग है कि अगले ही वाक्य में मुख्यमंत्री आंकड़ों के बोझ में अपनी स्वीकरोक्ति को दबाने की कोशिश करते हैं।
ख़ैर, भारतीय राजनीति में कुछ सबल वर्ग तक़रीबन पूजनीय हैं। उनके या उनके शासन में किए गए अपराध नहीं हैं। किसी से भी जंगलराज या ग़ुंडाराज की परिभाषा पूछ लीजिए। जवाब में ग़ैर-भाजपाई और ग़ैर-कांग्रेसी या कहिए कि क्षेत्रीय पार्टियों की सरकारों का नाम ही गिनाएगा। जंगलराज या ग़ुंडाराज जैसे शब्दों को पिछड़ी या दलित जातियों के प्रभुत्व वाली सरकारों के पर्यायवाची के तौर पर लोगों के दिमाग़ में गहरे तक बैठा दिया गया है। लालू, मुलायम के बाद अखिलेश और जयंत ग़ुंडाराज के नए प्रतीक बनाए जा रहे हैं। हालांकि जयंत चौधरी कुछ दिन पहले अच्छे लड़के थे जो ग़लत सोहबत में चले गए थे, लेकिन अब चूंकि उन्होंने ‘घर वापसी’ का ऑफर ठुकरा दिया है तो वह और उनके समर्थक भला अच्छे कैसे हो सकते हैं। अब पश्चिम यूपी मे ग़ैर-जाट बिरादरियों को यह कहकर लामबंद किया जा रहा है कि ‘जाट जीत गए तो’ बाक़ी सबका जीना हराम कर देंगे। मगर नाम पूछे लीजिए तो अंदाज़ा होगा कि जीना हराम करने वाले जाट सिर्फ आरएलडी और समाजवादी पार्टी में हैं, भाजपा ने जिन जाटों को टिकट दिया है, वह राज्य में शांति स्थापना के लिए शायद जी जान लगा देने वाले हैं?
ख़ैर, उत्तर प्रदेश और बिहार में ग़ुंडागर्दी संबंधी भाजपा की अपनी परिभाषा है। यहां दलित, ओबीसी या मुसलमानों के पसमांदा चुपचाप मार सह लें तो वे सभ्य हैं। ज़ाहिर समाजवादी पार्टी, और बीएसपी की सरकार हो तो दलित या ओबीसी पिट भले ही जाएं लेकिन प्रतिरोध ज़रुर करते हैं। हालांकि डर तो इस बात से भी लगना चाहिए कि भाजपा की सरकार में सहारनपुर, शब्बीरपुर, उन्नाव, हाथरस जैसी घटनाएं हो जाती हैं। लेकिन जब जाति देख कर न्याय हो और जाति देखकर अपराध की गंभीरता तय हो तो ऐसी घटनाएं हो भी जाती हैं। यही तो हिंदी पट्टी की असली राजनीति है।
(संपादन : नवल/अनिल)