मैं तो हिजाब नोचो और थोपो दोनो ही के खिलाफ हूं। नोचना और थोपना दोनों ही तालिबानी मानसिकता हैं। कर्नाटक में भाजपा सरकार की शह पर हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा मासूम मुस्लिम लड़कियों के हिजाब पहनने को लेकर परेशान किया जा रहा है तथा टकराव की स्थिति पैदा की जा रही है। इस पर मशहूर शायर बशीर बद्र के एक शेर से बात को आगे बढ़ाना चाहता हूं–
“मासूम तितलियों को मसलने का शौक है।
तौबा करो, ख़ुदा से डरो, तुम नशे में हो।।”
जाहिर है यह सत्ता और सांप्रदायिकता का नशा है। उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में हो रहे चुनाव के मद्देनजर ऐसा किया जा रहा है। मगर इसके आगे भी इसके कई मायने हैं। ऐसा लगता है कि रेलवे भर्ती के मामले में बिहार और उत्तर प्रदेश में बेरोजगार युवकों ने जिस तरह का आंदोलन पिछले दिनों किया, वह मौजूदा हुकुमत की चिंता और बेचैनी का सबब बन गया है। हालांकि सरकार ने फौरन आंदोलनकारी युवकों की मांगे मान लीं जैसा किसी दूसरे आंदोलन के समय नहीं हुआ। किसान आंदोलन की मांगों में से एक को मानने में भी एक साल का समय लगा। फौरी तौर पर तो किसान और नौजवान अपना आंदोलन रोककर घर लौट गए हैं, लेकिन समस्या के स्थायी हल को लेकर अभी भी वे जागरूक हैं। इस जागरूकता का असर अभी चुनाव पर भी पड़ रहा है। आगे के चुनावों पर भी इसके असर की आशंका है।
क़ब्ल इसके कि हुकूमत के खिलाफ युवाओं का 1974 के जेपी आंदोलन जैसा कोई देशव्यापी नया आंदोलन न खड़ा हो जाए, इसे लेकर केंद्र से लेकर कई राज्य सरकारें चिंतित हैं। इसके लिए वे छात्र-युवाओं को किसी साम्प्रदायिक मामले में झोंक देना चाहते हैं। वर्ष 1974 का आंदोलन पहले तो गुजरात से शुल्क बढ़ोतरी जैसे विल्कुल स्थानीय मामले से ही शुरू हुआ था। आगे चलकर बिहार होते हुए देशव्यापी आंदोलन में बदल गया। भ्रष्टाचार तथा प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की तानाशाही इस आंदोलन का मुख्य मुद्दा बन गया। कोई छात्र-युवा आंदोलन, जेपी जैसे हारे-थके, बुजुर्ग नेता को भी किस तरह आगे लाकर खड़ा कर देता है, इसे हम सबने देखा है।
हिजाब के खिलाफ अभियान तो मूल रूप से सांप्रदायिक है। इसमें कोई आर्थिक मामला नहीं है। इसे छात्र-युवाओं के दो गुटों के बीच टकराव कराने की योजना के तहत ही शुरू किया गया है। इसमें मुस्लिम लड़कियों को निशाना बनाया जा रहा है। हिंदुत्ववादी ताकतें चाहती हैं कि मुसलमान इसे अपने मजहब और लड़कियों के मान-सम्मान से जोड़कर उबाल पर आ जाएं। दूसरी तरफ सरकार की शह पर कुछ लोग टकराव के लिए पूरी तरह तैयार हैं ही। हिंदुत्ववादी ताकतों के लिए यह घोर चिंता की बात है कि लव जिहाद, घर वापसी, मॉब लिंचिंग, कोरोना जिहाद, गोरक्षा से लेकर बाबरी मस्जिद मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले तथा दिल्ली के नाक के नीचे गुरुग्राम में जुमे की नमाज में खलल डालने को लेकर मुसलमान कहीं भी उकसावे में नहीं आ रहे हैं। इसलिए वे ऐसा समझते हैं कि लड़कियों के साथ हिजाब के नाम पर छेड़-छाड़ जबर्दस्ती करने से मुसलमानों को उग्र होने पर मजबूर किया जा सकता है। हिंदुत्ववादी ताकतों की एक बैचैनी यह भी है कि देश के आम हिन्दू भी अब इस तरह के मामलों से उबने लगे हैं। इसलिए सुनियोजित तरीके से कच्चे उम्र के छात्रों को हिजाब के सवाल पर लड़ाने के लिए आगे किया जा रहा है।
इस सोच का एक खतरनाक पहलू यह भी है कि वे यह समझते हैं कि उनके ऐसा करने से मुसलमान अपनी लड़कियों को स्कूल कॉलेज में पढ़ना-लिखाना बंद कर देंगे। वैसे भी मुस्लिम लड़कियों में दूसरे धर्म की लड़कियों के मुकाबले “ड्राप आउट” रेट ज्यादा है। इसकी एक वजह इस तबके के ज्यादातर लोगों की माली हालत खराब होना भी है। हिजाब प्रकरण के चलते यदि मुस्लिम लड़कियों के स्कूल-कालेजों में आना बंद हुआ तो इसके लिए क्या मौजूदा हुकूमत जवाबदेह नहीं होगी? क्या प्रधानमंत्री नरेंद मोदी जी का “बेटी पढ़ाओ-बेटी बचाओ” का नारा खोखला साबित नहीं होगा?
हिंदुत्ववादी ताकतों ने हाल के एनआरसी और सीएए के खिलाफ आंदोलन के समय पढ़ी-लिखी मुस्लिम लड़कियों की बड़े पैमाने पर न सिर्फ शिरकत बल्कि इस आंदोलन की कयादत करते भी देखा है। जेएनयू, जामिया मिलिया, अलीग़ढ तथा दूसरे विश्वविधालयों की लड़कियों ने इस आंदोलन को खड़ा करने तथा लंबा चलाने में अहम भूमिका अदा की थी। ये लड़कियां पुलिस की लाठी, गुंडों के तमंचों से नहीं डरीं। जेल यातनांए भी सही हैं। यह मंजर मौजूदा हुकूमत की आंखों में कांटे की तरह चुभता था। एनआरसी, सीएए के खिलाफ मुस्लिम महिलाओं की बहुलता वाला यह आंदोलन न सिर्फ भारत का बल्कि दुनिया का सबसे लम्बा और शांतिपूर्ण आंदोलन माना गया। इस आंदोलन ने पहली बार मुस्लिम लड़कियों, महिलाओं को घर और पर्दा से बाहर निकालकर लड़ाई के मैदान में ला खड़ा किया। समाज में कोई भी परिवर्तन समय लेता है। खुद-ब-खुद इसकी प्रक्रिया अंदर से चलती रहती है। इस आंदोलन के दौरान इस सुखद प्रक्रिया को तेजी से चलते लोगों ने महसूस किया और सराहा भी।
ऐसे में अगर कोई हुकूमत या किसी खास विचार के लोग जबरदस्ती या किसी कानून के द्वारा कोई बात उन पर थोपना चाहें तो उसकी उलटी प्रतिक्रिया होगी। मेरी बीवी, मेरी बहनें, मेरी बहुएं हिजाब नहीं पहनतीं। बेटी अगर होती तो उसे भी कोई हिजाब के लिए मजबूर नहीं कर सकता था। मगर कोई हिजाब पहनता है और दूसरा कोई जबरदस्ती उसका हिजाब नोचेगा तो स्वाभाविक तौर पर इसकी प्रतिक्रिया मेरे अंदर या किसी दूसरे के अंदर होगी।
अब हिजाब का मामला कोर्ट में गया है। कोर्ट ने फौरी तौर पर हिजाब हो या भगवा गमछा (धार्मिक प्रतीक चिन्ह) लगाकर स्कूल आने पर पाबंदी लगा दी। अंतिम तौर पर फैसला आगे चलकर आएगा। मगर सवाल उठता है कि क्या हर स्कूल और कॉलेज में सरस्वती पूजा नहीं होती है? क्या बहुतेरे पुलिस थानों में मंदिर बने हुए नहीं हैं? अनेक सार्वजनिक स्थानों-सड़कों के किनारे कई तरह के धार्मिक काम हर साल महीनों चलते नहीं रहते हैं? क्या इस पर किसी को सवाल उठाना चाहिए? क्या कोर्ट या किसी सरकार को इस पर पाबंदी लगा देनी चाहिए? मेरा ऐसा मानना है कि किसी कानून और आदेश से ऐसा करना हरगिज व्यावहारिक और उचित नहीं होगा। ऐसा करने से टकराव और कट्टरता के अलावे कुछ भी हासिल नहीं होने वाला है।
पिछले दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय प्रधानमंत्री मोदी जी ने एक समुदाय विशेष की और इशारा करते हुए कपड़े से उन्हें पहचानने की बात कही थी। क्या चुनाव आयोग ने इसका संज्ञान लिया? इस समय उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में विधान सभा का चुनाव चल रहा है। भाजपा के अनेक उम्मीदवार त्रिशूल चंदन-टीका लगाकर चुनाव प्रचार कर रहे हैं। इनके समर्थक के मुँह से टीवी पर प्रचार कराया जा रहा है कि हम तो त्रिशुल-चन्दन टीका वाले उम्मीदवार को ही वोट देंगे। क्या चुनाव आयोग इस तरह के धार्मिक प्रतीक चिन्हों के साथ उम्मीदवारों के प्रचार का संज्ञान ले सकेगा?
हिजाब, स्कार्फ या दुपट्टा से तो अपनी त्वचा के बचाव के लिए आमतौर पर हिन्दू-मुस्लिम सभी लड़कियां अपना मुँह ढककर चलती हैं। खासकर ऐसा लड़कियों को स्कूटी, स्कूटर, मोटरसाइकिल चलाते देखा जा सकता है। कोरोना महामारी के समय तो मास्क नहीं लगाने वालों से दंड के रूप में करोड़ों रूपए सरकार ने कमाए हैं। शहरों में प्रदूषण जिस तरह बढ़ रहा है, उसमें ऐसा लगता है कि घर से बाहर मास्क लगाए रखना ही अच्छा होगा। देश की राजधानी दिल्ली और दूसरे कई बड़े शहरों का प्रदूषण स्तर के खतरे को भी पार कर जाता है। औरतों के बाल मर्दों की अपेछा ज्यादा बड़े होते हैं। इनके लिए रोज सर से स्नान करना, बाल सुखाना इतना आसान नहीं होता। इसलिए भी कई औरतें-लड़कियां हिजाब, स्कार्फ, दुपट्टा से सर-मुंह ढंक कर चलने को जरूरी बताती हैं। इन सब बातों को लिखने का मेरा कत्तई यह मतलब नहीं है कि लड़कियों-औरतों को गैर जरूरी ढंग से पर्दे में ही रहना चहिए। मेरा तो मानना है कि कपड़े के पर्दा से मजबूत नजर का पर्दा होता है। अगर नजर का पर्दा हट जाए तो कपड़ा होते हुए भी इंसान नंगा ही दीखता है।
(संपादन : नवल/अनिल)
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