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कर्पूरी ठाकुर का व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन

जननायक कर्पूरी ठाकुर का जीवन एक मिसाल है। व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में कोई भेद नहीं। उनके जीवन से जुड़े प्रसंगों का स्मरण कर रहे हैं बिहार के उजियारपुर विधानसभा क्षेत्र के पूर्व विधायक दुर्गा प्रसाद सिंह

जननायक कर्पूरी ठाकुर (24 जनवरी, 1924 – 17 फरवरी, 1988) पर विशेष

कर्पूरी ठाकुर जी से कई स्तरों पर जुड़ा रहा। एक बार उनके नेतृत्व में समस्तीपुर से लेकर पटना तक साइकिल यात्रा रैली निकाली गई । उसके लिए हम सबों को ताजपुर में जमा होना था। पूरी सड़क पक्की नहीं थी। रैली निकली तो बालमुकुंद जिज्ञासु कर्पूरी जी को कैरियर पर बैठाकर महुआ तक ले गए। हालांकि विधानसभा सदस्य होते हुए भी कर्पूरी जी साइकिल से ही सदन जाते थे। उन्हें साइकिल चलानी नहीं आती थी। ऐसे में वह साइकिल की कैरियर पर ही बैठते थे। तब विधायकों का वेतन 15 रुपए था। वे सादगी पसंद व्यक्ति थे। देहाती व्यक्ति से बात करके प्रभावी आभामंडल छोड़ते थे। कभी-कभार गुस्साते थे। फिर कहते थे कि उम्र के साथ मेरा गुस्सा भी बढ़ गया है। 

 

एक बार हमारे यहां चुनाव के समय वे आये। तब गांव में पुल नहीं बनी थी। नदी में पानी नहीं था। किनारे के रास्ते से उन्हें गांव ले जाया गया। हमारे गांव के लोगों ने शिकायत दर्ज की कि पुल नहीं है, बनवा दीजिए, हमलोग आपको ही वोट देंगे। तब कर्पूरी जी ने कहा– “हम कोई सौदागर नहीं हैं। आप वोट देंगे तो कोई काम करुंगा।” वे वचनभंगी नहीं थे। 

कर्पूरी जी की व्यक्तिगत जिंदगी बहुत कष्टमय थी। न सोने का नियत समय और न खाने का। जब मुख्यमंत्री थे, तब एक, देशरत्न मार्ग में उनका आवास था। उनकी व्यस्तता का आलम यह था कि आवास में टहलते-टहलते भी लोगों का काम करते रहते। उनके आवास पर रामसेवक थे। लंबे तारवाला टेलीफोन हुआ करता था। बहुत जरूरी समझते थे तभी फोन करते थे। सामान्य तौर पर चिट्ठी पीए को बुलाकर डिक्टेट करवाते। लक्ष्मी साहू उनकी एक-एक चीज को भांप जाते थे। उन्हीं के अनुसार चिट्ठी बना देते थे। पत्र के प्रारंभ में प्रिय के भेजे जानेवाले व्यक्ति का नाम और नीचे सादर स्नेह अपने हाथ से लिखते थे। वे सस्नेह ज्यादा लिखते थे। कौमा, पूर्णविराम छूट गया तो अपने हाथ से सुधारते थे। 

एक लीडर थे– गायकवाड़ साहब। उनसे अंग्रेजी में बात करते थे। हिन्दी के पक्षधर थे। प्रशासनिक शब्दावली में भी उन्होंने बहुत सारे सुधार किये। अंग्रेजी में सरकारी पत्र व्यवहार पर रोक के बावजूद एक फाइल उनके पास आई तो उन्होंने उस अधिकारी से स्पष्टीकरण पूछा। हिन्दी सुधार में उनकी रुचि थी। पार्टी की ही लाइन थी कि अंग्रेजी में काम न होगा तभी फिर से देश गूलाम न होगा। 

19 जनवरी, 1979 को नई दिल्ली में नेशनल डेवलपमेंट काउंसिल की बैठक के दौरान बाएं से बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर,  हरियाण के तत्कालीन मुख्यमंत्री चौधरी देवीलाल और पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल

मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने बहुत उंचे स्तर के सुधार किये। देहात में अंग्रेजी के टीचर नहीं मिलते थे। उन्हें पता था कि इस पृष्ठभूमि से आनेवाला विद्यार्थी भाषा माध्यम अंग्रेजी होने के कारण पिछड़ जाएगा। इसीलिए उन्होंने अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म की। दलसिंहसराय में कपिलदेव सिंह ने अपने भाषण में कहा कि कर्पूरी जी जातिवादी हो ही नहीं सकते। वे जिस जाति समुदाय से आते हैं, उसकी आबादी पांच गांव पर एक घर की है, वे क्या जातिवाद करेंगे। अगर वे जातिवादी होते तो रामनंद तिवारी और रमाकांत झा उनके पीछे क्यों रहते? 

कर्पूरी जी ने नदियों पर बने पुलों पर लगनेवाले टैक्स को माफ किया। उनके पहले नदी पुल पर टैक्स लगता था। हरिवंश नारायण सिंह इस टैक्स एसोसिएशन के ठेकेदार थे। वे समस्तीपुर के ही थे। उन्होंने कर्पूरी जी से आग्रह किया कि आप छह लाख रुपए पार्टी फंड के लिए हमसे ले लीजिए लेकिन इस टैक्स को खत्म न कीजिए। कर्पूरी जी ने कहा कि हरिवंश भाई, पैसा लेकर चले जाइए। इस घटना के बाद उन्होंने उसी दिन शाम में पुल टैक्स फ्री करने की घोषणा कर दी। हरिवंश जी ने अपने घर में जिस एक नेता की तस्वीर लगायी, वह कर्पूरी जी की थी। हरिवंश कहा करते थे कि मुझे जीवन में एक व्यक्ति मिला, जिसे रिश्वत से नफरत थी।

एक बार कर्पूरी जी आरा से लौटे थे। रात्रि 12 बजे बिजली जल रही थी। वे आये तो देखा सभी सो रहे हैं और बिजली जल रही है। उन्होंने एक कार्यकर्ता जगदीश से कहा जब सब सोये हैं तो बिजली जलाने का क्या औचित्य है। यह तो बिजली की नाजायज खपत है। सोने वक्त बिजली के उपकरणों को बंद कर देना चाहिए। उन्होंने उसी क्षण देखा कि कई लोग सोये हैं। उन्होंने सबको उठाया। पास पड़ी दरी को लंबा करके चादर बिछवाई और तब सबको सोने को कहा। उनकी सिक्यूरिटी में आये सिपाही देर रात लौटे थे। उन्हें लेट हो गया था। कर्पूरी जी ने उनको कहा कि हाउस गार्ड के पास राइफल रख दीजिए, सुबह चाय पीकर घर जाइएगा। 

कर्पूरी जी के पास जो भी जाता था, उन्हें सुबह में नींबू की चाय मिलती थी। 

उनका व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक और प्रभावशाली था। एक बार उन्होंने फजल अहमद नामक आईजी को फोन किया। मामला उजियापुर के थानेदार से जुड़ा था। उन्होंने फोन से कहा कि अगर इस बार आपने दारोगा का स्थानांतरण नहीं किया तो हम अपने कार्यकर्ताओं से यही कहेंगे कि उस दारोगा के बारे में कुछ मत कहिए वे आईजी साहब के आदमी हैं।

बात उन दिनों की है जब कर्पूरी जी लोकसभा का चुनाव रामदेव राय से हार गए थे। वहां पुनर्मतदान हुआ था। पतरिया गांव में कर्पूरी जी की गाड़ी खराब हो गई। रामदेव राय उसी रास्ते से मोटरसाइकिल से जा रहे थे। उन्होंने कर्पूरी जी को इस हालत में देखा तो उन्हें अपनी मोटरसाइकिल पर बिठा लिया और दोनों साथ पथरिया गए। हालांकि उस चुनाव में कर्पूरी जी रामदेव राय से चुनाव हार गए, लेकिन जब रामदेव राय से लोगों ने प्रतिक्रिया जाननी चाही तो उन्होंने कहा कि कर्पूरी जी न चुनाव हारे हैं, न हारने वाले हैं, वे स्टाॅलवर्ट हैं। 

यह भी पढ़ें – कर्पूरी ठाकुर को जैसा मैंने देखा : अब्दुलबारी सिद्दीकी (अंतिम भाग)

14 जनवरी, 1981 को समस्तीपुर में जेल गोलीकांड हुआ था। तब अनूप मुखर्जी जिलाधिकारी थे। उसी दिन उजियारपुर में कर्पूरी जी की सभा होनी थी। भोजन भी वहीं करने का कार्यक्रम था। कर्पूरी जी वहां कुछ देर से आये। इस घटना की जानकारी उन्हें हो गई थी। उन्होंने उस सभा में दो वाक्य का उद्गार व्यक्त किया– “मैं उजियारपुर में आया था, आपसे बात करता, भोजन भी करता। लेकिन समस्तीपुर जेल में गोली चली है। अब जेल भी सुरक्षित नहीं रहा। इसलिए प्रोग्राम खत्म करके समस्तीपुर जाना चाहता हूं। लोगों ने जब उनसे भोजन का आग्रह किया तो कहा कि गोली चली है और मैं भोजन करूं?”

एक बार मैं अंडाहा गांव अपनी ही मोटरसाइकिल पर बिठाकर उन्हें ले गया। रास्ता ठीक नहीं था। कर्पूरी जी मोटरसाइकिल वाले का कंधा पकड़ लेते थे। जहां कहीं जो भी खाना खिला देता, खा लेते थे। वहां अयोध्या महतो के पिता ने उन्हें चूड़ा, दही और सब्जी दिया। खाने के बाद थाली धोने के लिए कर्पूरी जी स्वयं ही आगे बढ़ गए। बहुत कोशिश करने के बाद ही रूके।

एकबार सहरसा में कुहासे के कारण सड़क दुर्घटना में कर्पूरी जी को गहरी चोट आई। उन्हें पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल (पीएमसीएच) में भर्ती करवाया गया। उनके देखनेवाले जाते तो संतरा-सेव ले जाते। वहां संतरा बहुत जमा हो गया। इसी के संबंध में मैं अपने दोस्त से बात कर रहा था। कर्पूरी जी ने उसे सुन लिया। उन्होंने कहा आप लोग खाइए और औरों को भी खिलाइए। इतना प्यार से बोलनेवाले अब कहां मिलेंगे? 

जब मैं पटना जाता था तो काम के सिलसिले में कर्पूरी जी के आवास पर महीनों रह जाता। उस समय रामनाथ ठाकुर उन्हीं के साथ रहते थे। एक बार की घटना है। डाॅ. कुमार विमल बिहार लोक सेवा आयोग (बीपीएससी) के चेयरमैन थे। कर्पूरी जी बारह बजे रात को लौटे ही थे कि फोन की घंटी बजी। वे विश्राम करने को उपर गए ही थे। फोन का रिसीवर हमने ही उठाया। उधर से आवाज आई– “मैं डाॅ. कुमार विमल, कर्पूरी जी से बात करना चाहता हूं।” हमने उपर जाकर कर्पूरी जी को फोन थमाया। वहीं खड़ा रहा। विमल कह रहे थे कि मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र बीपीएससी की आधी-आधी सीटें आपस में बांट लेने का हमपर दवाब डाल रहे हैं। मैं क्या करूं? इतना सुनते ही कर्पूरी जी की भवें तन गईं। उन्होंने दो बार एक ही वाक्य “हद हो गई” दुहराई। ऐसी बात तो मैं सपने में भी नहीं सोच सकता। हर आदमी के जीवन का उसूल होता है। जिनका उसूल ही नहीं होता वैसे ही लोग किसी आयोग या न्यायालय में गलत ढंग से सिफारिश करते हैं। उसके बाद उन्होंने अपने पीए रामसेवक से कहा कि जगन्नाथ जी दवाब बना रहे हैं। ऐसा एक मुख्यमंत्री का करना क्या उचित है? 

अगले दिन सुबह में कर्पूरी जी ने जगन्नाथ मिश्र से फोन पर इस संदर्भ में बात की। उनसे कहा कि सरकार में कुछ लोग ऐसे हैं जो बीपीएससी जैसी संस्था में भी सेंध लगाना चाहते हैं। मुझे इस संदर्भ में आपसे न्याय की अपेक्षा है। इसके बाद सरकार का इरादा ही बदल गया।

एक बार वशिष्ठ नारायण सिंह, कपिलदेव सिंह और राजेंद्र शर्मा ने योजना बनाई कि कर्पूरी जी के बेटे रामनाथ को चुनाव लड़ाया जाए। कर्पूरी जी को इस गुप्त योजना की जानकारी दी गई। इसपर उन्होंने कहा कि जनतंत्र में जो बहुमत चाहता है, वही होना चाहिए। अगर आप लोगों ने निर्णय लिया है कि रामनाथ को चुनाव लड़ाया जाए तो उसमें मेरी कोई आपति नहीं है। लेकिन मुझे अपने बारे में निर्णय लेने का पूरा-पूरा हक है, लेकिन तब कर्पूरी ठाकुर चुनाव नहीं लड़ेगा। 

उनके जीते जी रामनाथ को पार्टी की ओर से फिर कभी टिकट नहीं दिया गया।

शिशुपाल राम पटना में बच्चों के बड़े डाक्टर थे। कर्पूरी जी की बड़ी पोती की तबीयत खराब थी। कर्पूरी उसे बहुत प्यार करते थे, लेकिन डाक्टर के देखने के समय ही उनके सीतामढ़ी जाने का कार्यक्रम निर्धारित था। उन्होंने डाक्टर को फोन किया और कहा– “पोती बीमार है। वैसे भी वह आपकी भी तो पोती है। हमें समय नहीं रहता बाल-बच्चों को देखने का। वैसे भी देखकर ही क्या करूंगा। इलाज तो आप ही करेंगे, आउंगा तो मिलूंगा।” 

एक बार की बात है कि सुबह पौने आठ बजे तक ड्राइवर नहीं आया तो उन्होंने फोन किया। जवाब मिला कि आपका ड्राइवर नहीं आना चाहता है। आपके साथ में उसे दिक्कत होती है। तेल बेचने में नहीं बनता है। इसपर उन्होंने कहा– “भगवान हमारा चोला बदल क्यों नहीं देता। कल्पना नहीं की थी कि यह दिन भी देखने को मिलेगा।” 

उस दिन ड्राइवर नहीं आया तो रिक्शा पर बैठकर महेंदू घाट गये। वहां से पानी के जहाज से पहलेजा पार किया तब पीछे से गाड़ी आई। मुझे उन्होंने ताकीद कर दिया कि आप छपरा के एसपी को फोन कीजिएगा कि वे हमारे लिए गाड़ी का इंतजाम करेंगे तो अच्छा रहेगा। हमने डायरी के नंबर से बार-बार फोन किया, लेकिन सफलता नहीं मिली, तो अंततः वितंतु संवाद मैसेज (फैक्स) उनतक पहुंच गया। वहां के ब्लाॅक से गाड़ी आई तब उनके आगे की यात्रा पूरी हुई। 

कर्पूरी जी फोन को पिंडोबा कहते थे। उनका फोन नंबर 25880 था। और आवास 1, देशरत्न मार्ग था। उस समय वे विरोधी दल के नेता थे। बहुत बार वे स्वयं ही फोन उठाते थे। चौधरी देवीलाल हरियाणा में एक कार्यक्रम करवा रहे थे। उस समय अजीत मेहता समस्तीपुर से एमपी थे। देवीलाल की इच्छा थी कि कार्यक्रम में कर्पूरी जी का बैनर लगवायें। इसके लिए कर्पूरी जी का फोटो कूरियर से भेज दिया गया। समय से उनतक फोटो नहीं मिलने के कारण देवीलाल इतने अधीर हो गए कि इस बीच उन्होंने 85 बार फोन किया। इसके लिए मुझे इतनी डांट पड़ी कि अंततः मुझे वहां जाना पड़ा। कूरियर वाले को दिल्ली में “13, लोधी स्टेट” मिल नहीं रहा था। फिर मैं उसको साथ लिए हुए ही देवीलाल जी के घर पहुंच गया।

कर्पूरी जी बहुत संवेदनशील इंसान थें। एक बार ज्ञानी जैल सिंह उनके देशरत्न मार्ग स्थित आवास पर आये। कर्पूरी जी ने अपने घर उनके लिए चाय-नाश्ते का प्रबंध किया। वे जब आये तो एक हाथ में तौलिया और दूसरे में साबून लिये वे खुद उनके हाथ धुलवाये और जब वे जाने लगे तो उनको बड़े अदब से छोड़ते हुए कहा– आपके प्रति मेरी बड़ी श्रद्धा है। आपके आगमन से अभिभूत हूं। आप तो जानते ही हैं कि मैं दल से बंधा हूं।” 

उनके इस शालीन व्यवहार के ज्ञानी जैल सिंह भी कायल हो गए। 

एक व्यक्तिगत घटना है। मेरा पासपोर्ट बनना था। तब कर्पूरी जी सीएम थे। पासपोर्ट अधिकारी ने कहा कि कर्पूरी जी लिख देंगे तो आपका पासपोर्ट बन जाएगा। हमने उनसे इस संबंध में बात की तो उन्होंने कहा कि चुनाव है, अभी कहां जाना चाहते हैं? हमने कहा कि रूस जाना चाहते हैं। उन्होंने लिखकर मुहर लगवा दिया। तब पासपोर्ट आफिस अशोक राजपथ में हुआ करता था। पासपोर्ट ऑफिसर बंगाली थे। उस अफसर ने कर्पूरी जी का हस्ताक्षर देखा तो प्रफुल्लित होकर पूरे आफिस को कर्पूरी जी का हस्ताक्षर दिखला दिया। एक सप्ताह के अंदर हमारा पासपोर्ट बन गया, लेकिन हम रूस नहीं जा सके।

वशिष्ठ नारायण सिंह, राजेंद्र शर्मा और कर्पूरी जी तीनों घनिष्ठ मित्र थे। एक बार तीनों कोठियां से पैदल ही आ रहे थे। गर्मी के दिन थे। वशिष्ठ जी ने कहा कि रिक्शा आ रहा है तीनों बैठ जाएं। इसपर कर्पूरी जी ने कहा कि यह उसके साथ अन्याय होगा। राजेंद्र ने कहा कि अन्याय तो होगा, लेकिन उसकी कमाई भी होगी इसी में। इतने में रिक्शा पास आ गया। बैठना है या नहीं बैठना है, की इसी जिद में वे दोनों बैठे और कर्पूरी जी को भी जबरन बैठा लिया।

एक बार की घटना है। चौधरी चरण सिंह आनेवाले थे। उन्हें एक लाख की थैली देनी थी। कर्पूरी जी ने खुद भी समस्तीपुर में चंदा किया। एक घर से उन्हें ढाई रुपये का चंदा मिला। पैसे की रसीद खत्म हो गई थी। तो उन्होंने कहा कि इन्हें चंदे की रसीद बाद में रजिस्टर्ड डाक से भेज दी जाए। इसपर कहा गया कि सवा रुपया रजिस्ट्री में ही लग जाएगा। फिर क्या फायदा होगा। इसपर उन्होंने कहा कि फायदा नुकसान का सवाल नहीं है। सवाल विश्वास और भरोसे का है। जिसने पैसा दिया, उसे तो विश्वास हो जाए कि उसका पैसा पार्टी में चला गया। 

थैली भेंट के इस कार्यक्रम में कर्पूरी जी मेरे घर भी आये। मेरे घर का एक भाग कच्चा था। मेरी मां उनसे बोली– “हमर बेटा बुड़बक हथीन टूटल फाटल घर में अपने के ले अयलन। हम गरीब आदमी अपने के स्वागत कर के लाइक भी न ही। [मेरा बेटा मूर्ख है जो आपको अपने टूटे घर में ले आया। हम गरीब लोग आपका स्वागत करने में सक्षम नहीं हैं।]” 

इसपर कर्पूरी जी ने कहा– “आपका तो टूटा हुआ घर भी है, हमर घर में कुता बिल्लाई ऐने से घुस हई आउ उधर से निकल जा हई। [आपके पास तो टूटा हुआ घर भी है। लेकिन मेरे घर में कुत्ते-बिल्ली आराम से आवाजाही करते है।]”

(अरुण नारायण से बातचीत पर आधारित)

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

दुर्गा प्रसाद सिंह

लेखक बिहार विधानसभा के पूर्व सदस्य हैं

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