बिहार उन प्रांतों में एक है जहां के दलित-बहुजन हिंदू धर्म से जुड़े मिथकों की तुलना में अपने लोक देवताओं को मानते हैं। इन लोक देवताओं में गौरेया बाबा, भरथरी बाबा, दीना भदरी, राजा सलेहस से लेकर रेशमा-चौहरमल तक शामिल हैं। हालांकि इन सबसे जुड़ी कहानियां आज भी अलिखित है और लोक साहित्य की श्रेणी में शुमार की जाती हैं।
दरअसल, लोक साहित्य किसी भी क्षेत्र के आम जीवन का प्रतिबिंब होता है। इसमें उस क्षेत्र विशेष की रीति-रिवाज, रहन-सहन, विचार-व्यवहार, मान्यताएं सभी परिलक्षित होते हैं। ध्यातव्य है कि लोक साहित्य जो आम जीवन और बहुसंख्यक लोगों का दस्तावेज होता है, वह किसी तय मानक या शास्त्रीय शिष्टता से मढ़ा नहीं होता, इसलिए इसका स्वरूप लचीला होता है। इसमें गति भी होती है जो इसकी उपयोगिता और रोचकता बनाये रखती है। इस तरह यह अलिखित होने के बावजूद दीर्घजीवी बना रहता है।
उत्तर-पूर्व बिहार कई लोक गाथाओं से समृद्ध है, जो जीवन के सभी रंगों से जुड़ा है। महाजनपद काल में इन क्षेत्रों में अनार्यों का वास माना जाता है। साथ ही यह क्षेत्र बौद्ध धर्म के तंत्रयान शाखा, प्रकृति पूजक बहुल क्षेत्र भी माना गया है। अतः लोक गाथाओं के साथ विशेषता देखने को मिलती है कि वे अधिकतर दलितबहुजन समाज के लोगों से जुड़े होते है या यूं कहे कि लोक शब्द के स्थानीय अर्थ के साथ बहुजन/बहसंख्यक जन जुड़े हैं, जिनका इतिहास कलमबद्ध होने से वंचित रह गया या कर दिया गया और उनका इतिहास मिथक बन गया। यही इतिहास लोक कंठ में जीवित रह कर मौखिक इतिहास बन कर गेय पदों (गीतात्मक पद) में ढल गया।
इन क्षेत्रों में अनेक लोक गाथाएं हैं, जो बहुजन समाज की गाथाओं से जुड़े है या जिनके नायक-नायिक बहुजन समाज से आते हैं। इन समाजों के लोग अपने-अपने लोक देवी-देवताओं की पूजा पिंडी बनाकर करते हैं। कहीं-कहीं पर चबूतरा और डीह आदि भी सामने आता है। इन लोक गाथाओं में अंधविश्वास भी सामने आता है।
भरथरी बाबा की स्मृति में हर साल लगता है मेला
मसलन, एक मेला भरथरी बाबा की स्मृति में हर साल लगता है। मेरे अपने गांव बल्लीकित्ता जो कि भागलपुर प्रमंडल के बांका जिले में आता है, तब अनेक टोलों में बंटा था– धोबी टोला, दुसाध टोली, कापरी टोला, मांझी टोला आदि। हमारे खेत पासवान टोली के सामने पड़ते थे और उन खेतों में 14 अप्रैल को भरथरी मेला शुरू होता था। इस दौरान कई तरह के सांस्कृतिक आयोजन होते थे। इनमें आल्हा-उदल, कमरथुआ बानी आदि गाए जाते थे, जिसमें मेरे दादा भी हिस्सा लेते थे। इस मेले में भरथरी बाबा की पूजा होती थी। पहले इस लोक देवता को मूलतः पासवान लोग ही पूजते थे। इसी तरह हर एक टोले में अपने-अपने देवता होते थे और उनकी गीतात्मक गाथा होती थी और उन्हें पूजने की जिम्मेवारी उस जाति के एक परिवार को दी जाती थी। भरथरी मेला में सारा गांव शामिल होता था, लेकिन भूमिहार जाति के देवता के मंदिर में दलित जातियों के लोगों को पूजा की मनाही थी। वे सिर्फ मंदिर के प्रांगण में झाडू लगाकर सेवा दे सकते थे। आजकल कुछ वर्जनाएं टूटी हैं और इस स्थानीय मेले का इंतजार सभी को रहता है।
यादवों के लोकनायक विसु राउत
दक्षिण बिहार में बख्तौर बाबा के जैसे ही उत्तर-पूर्वी बिहार में विसु राउत यादव जाति के लोगों में लोक नायक के रूप में स्थापित हैं। आज भी प्रतिवर्ष शुक्ल प्रतिपदा को उनके कर्म क्षेत्र पचरासी (मधेपुरा) में मेला लगता है और वहां एक भव्य मंदिर बनाया गया है। इस दिन का पर्व सिरूआ बिसुआ कहलाता है। पचरासी में लोग दूर-दूर से दूध चढ़ाने आते है।
हिरनी-बिरनी की गाथा
यह दो बहनों की गाथा है, जो नट जाति से संबंधित है। ये दोनों बहने एक विवाहित युवक पोसन सिंह पर आसक्त थीं। गाथा के मुताबिक तंत्र-मंत्र से लड़ते हुए युवक दोनों बहनों को अपनी दासी बना लेता है।
मानस राम-छेहनमल की गाथा
यह दो नायकों मानस राम (चमार) और छेछनमल (डोम जाति) की गाथा है। मानस राम मोरंग (नेपाल का जिला) और छेछनमल सीरी राज का सिपाही था। दोनां राज्यों में युद्ध की स्थिति में इन दोनों के शौर्य प्रदर्शन और वीरता की गाथा ही मानसराम-छेछनमल की लोकगाथा है।
लोरिकायन
इसे यादव जाति के लोग गाते हैं। इसका नायक लोरिक इसी जाति से था। वीर रस की इस गाथा में लोरिक की जीवन कथा और उसके युद्ध कौशल के बारे में जानकारियां हैं। यह मधेपुरा-सहरसा क्षेत्र अधिक लोकप्रिय है।
राजा सलेहस
यह गाथा दुसाध (पासवान) जाति के नायक ‘राजा सलहेस’ की गाथा है, जिसके उपर ‘लौंगा’ नामक मालिन (माली समाज की महिला) आसक्त हो जाती है। इतिहासकारों ने इसे शंभूगंज क्षेत्र का माना है, वही कुछ इतिहासकार भले खगड़िया क्षेत्र से जोड़कर देखते हैं।
मुसहर जाति के लोकनायक दीना-भदरी
लोक गाथा के मुताबिक, ये दोनों सहोदर भाई थे, जो मुसहर जाति से संबंध रखते थे। यह भी वीर और करूणा रस की मिलीजुली कथा है, जिसमें शरीर त्यागने के बाद दोनों अपने उपर किए गये अत्याचारों का बदला सामंतों से लेते हैं। यह सहरसा क्षेत्र की लोक गाथा मानी जाती है। गांवों में इनकी स्मृति में पिंडी का निर्माण किया जाता था। हालांकि अब मूर्तियों का चलन भी हो गया है, जो कि हिंदू धर्म के मिथकों से प्रभावित है।
खरवारों के नायक कुंवर विजयमल
यह लोकगाथा जनजातीय राजा के वीरता की गाथा है, जिसे ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर खरवार नामक जनजाति का नायक माना गया है। यह 16-17वीं सदी की कथा मानी जाती है।
बिहुला विषहरी
बिहार के भागलपुर प्रमंडल व आसपास के इलाके, जिसे अंग क्षेत्र भी कहा जाता है, की लोकप्रिय व प्रसिद्ध लोक गाथा है– बिहुला विषहरी। इस गाथा में दो नायिकायें हैं। इस लोक गाथा में चांदो सौदागार नामक व्यापारी के शिव के प्रति निष्ठा की कथा है। विषहरी नामक नाग देवी उसे इस कारण से अपने कोप का शिकार बनाती है क्योंकि वह किसी दूसरे देवता की पूजा नहीं करता है। विषहरी के कोप से उसे उसकी छोटी पुत्रवधू उबारती है, जिसका नाम बिहुला है। वह न सिर्फ अपने ससुर का धन-धान्य वापस कराती है, बल्कि अपने पति व उसके छह भाइयों के प्राण को भी वापस ले आती है। यह पूजा आज भी अंग क्षेत्र भागलपुर व आसपास के क्षेत्र में प्रचलित है। हर साल 17 अगस्त को यह धूमधाम से मनाया जाता है। चंपानगर में इसका भव्य मंदिर है। इस उत्सव में माली, धोबी और डोम आदि जातियों के लोगों की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसी परंपरा के तहत धोबी परिवार मंदिर में हर वर्ष पूजा में छाता और पंखा चढ़ाते हैं।
लुकेसरी देवी की गाथा
इस लोकगाथा में लुकेसरी नामक कन्या की प्रणय कथा है। यह कन्या मोची (चर्मकार) जाति से संबंध रखती है। लुकेसरी अपने प्रेमी योगी को पाने के लिए कठिन तपस्या करती है और योगी उसे देवी के रूप में अपना लेता है। लुकेसरी लोकदेवी के रूप में स्थापित हो जाती है।
रेशमा-चौहरमल की प्रेमगाथा
यह कथा एक प्रेम गाथा है, जो राजा सलहेस नामक लोक गाथा के समकालीन माना जाता है। यह कथा बिहार के मोकामा क्षेत्र के आसपास प्रचलित है। चाराडीह नामक स्थान में आज भी मेला लगता है। गाथा के मुताबिक रेशमा भूमिहार जाति और चौहरमल पासवान जाति से थे। यह गाथा दरअसल प्रेम गाथा तो है ही, साथ ही दो समाजों के बीच की अंतर्गाथा भी।
राजा हरिचन की गाथा
यह लोक गाथा राजा हरिचन को निष्ठा से पथभ्रष्ट करने की कथा है, जिसमें विश्वामित्र नामक योगी असफल रहते है और राजा हरिचन की निष्ठा जीतती है। यह गाथा नट जाति के लोगों द्वारा गायी जाती है।
कारिख पांजियार
यह लोक गाथा यादव जाति से संबंध रखती है, लेकिन बनिया, पासवान जातियों के बीच भी यह समान रूप से लोकप्रिय है। यह लोक गाथा जनसाधारण के जीवन का प्रतिबिंब है, जिसमें जीवन के सुख-दुख, जीत-हार, साहस व विश्वास की कथा है।
बहरहाल, उत्तर-पूर्व बिहार के दलितबहुजनों के बीच और अनेक लोकगाथाएं हैं, जिनका दस्तावेजीकरण नहीं होने के कारण विलुप्ति होते जा रहे हैं। इनमें मन्नू हरिया डोम, छेछन डोम, महुआ घटवारिन, कैलादास आदि शामिल हैं। इन सभी का संबंध बहुजन समुदायों से है। इनमें कई गाथाएं बिहार के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग नाम से भी प्रसिद्ध हैं।
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