मल्लाह का बेटा यानी सन ऑफ मल्लाह मुकेश सहनी। बिहार सरकार में मत्स्य एवं पशु संसाधन मंत्री हैं। उनकी पार्टी का नाम है विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी)। 2020 के विधान सभा चुनाव में इस पार्टी के 4 विधायक निर्वाचित हुए थे। हाल ही एक विधायक मुसाफिर पासवान का निधन हो गया था। इसके बाद तीन विधायक स्वर्णा सिंह, राजू कुमार सिंह और मिश्रीलाल यादव बच गये थे। इन तीनों ने बीते 23 मार्च, 2022 को वीआईपी विधायक दल का भाजपा विधायक दल में विलय का प्रस्ताव स्पीकर विजय सिन्हा के समक्ष रखा, जिसे स्पीकर ने स्वीकार कर लिया। इसके बाद तीनों विधायकों को भाजपा विधायक दल के सदस्य के रूप में मान्यता दे दी गयी। इसके साथ विधान सभा में वीआईपी का नामो-निशान मिट गया।
बिहार में कम संख्या वाले विधायकों का बड़ी पार्टी में शामिल हो जाने का इतिहास नया नहीं है। लालू यादव ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में लगभग सभी पार्टियों को अंग-भंग किया और एक छोटे हिस्से का अपनी पार्टी में विलय कर लिया। उस समय पार्टी छोड़ने के लिए एक-तिहाई विधायकों का गुट होना जरूरी था। बाद में पार्टी छोड़ने के लिए दो-तिहाई विधायकों का गुट होना अनिवार्य कर दिया गया। इसके बावजूद यह सिलसिला नहीं थमा। नीतीश कुमार ने विधान सभा में तीन-चार सदस्यों वाले विधायक दल को पूरी तरह जदयू में विलय करवाने में सफल रहे तो विधान परिषद में राजद और कांग्रेस दोनों के दो-तिहाई सदस्यों को तोड़कर जदयू में शामिल करवाने में कामयाब रहे हैं। भाजपा पहली बार दूसरी पार्टी के विधायक दल को अपने साथ विलय कराने में सफल रही है।
वीआईपी के तीनों विधायक तकनीकी रूप से भले मुकेश सहनी के विधायक थे, लेकिन व्यावहारिक रूप से वे भाजपा से ही जुड़े थे। वर्ष 2020 के विधान सभा चुनाव में भाजपा ने एक समझौते के तहत वीआईपी को 11 सीट दिया था, जिसमें 8 सीटों पर भाजपा ने अपने उम्मीदवार दिये थे। ये तीनों विधायक भाजपा कोटे के ही थे, जो वीआईपी के टिकट पर जीते थे। इन विधायकों के भाजपा में शामिल होने को प्रदेश अध्यक्ष संजय जयसवाल ने घर वापसी की संज्ञा दी थी।
मुकेश सहनी की राजनीतिक शैली को देखें तो उन्होंने 2015 के विधानसभा चुनाव के पहले बिहार की राजनीति में इंट्री मारी थी। उन्होंने निषाद विकास संघ बनाकर भीड़ जुटाना शुरू किया था। प्रदेश के कई शहरों में मल्लाहों की सभाएं आयोजित कर पार्टियों को अपनी ओर आकर्षित किया। अपने प्रचार के लिए अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन भी दिये। 2015 में मुकेश सहनी की बढ़ती ताकत को देखकर भाजपा ने उन्हें लपक किया। चुनाव प्रचार में घुमाया भी, लेकिन मिला कुछ नहीं। इस बीच मुकेश सहनी ने अपने सामाजिक कार्यों को निरंतर जारी रखा। वे भाजपा, जदयू और राजद के साथ समझौते की कोशिश करते रहे, लेकिन कोई सफलता हाथ नहीं आयी।
इसके बाद 2017 में जदयू और भाजपा के एक साथ आने के बाद बिहार में नये समीकरण की शुरुआत हुई। जीतनराम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा एनडीए से छटककर महागठबंधन में आ गये। इस महागठबंधन में राजद के साथ कांग्रेस, रालोसपा, हम और वीआईपी शामिल थे। 2019 का लोकसभा चुनाव सबने मिलकर लड़ा और किशनगंज सीट छोड़कर सभी सीटों पर महागठबंधन की हार हुई। हारने वालों में जीतनराम मांझी, मुकेश सहनी और उपेंद्र कुशवाहा भी शामिल थे।
लोकसभा चुनाव के बाद महागठबंधन में बिखराब शुरू हुआ। जीतनराम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा ने अलग राह थाम ली। विधान सभा में टिकट बंटवारे के दिन ही अपनी अनदेखी से नाराज मुकेश सहनी ने महागठबंधन छोड़ दिया। अगले ही दिन दिल्ली में भाजपा का दामन थामा और 11 सीटों पर समझौता हो गया। मुकेश सहनी एनडीए के सदस्य हो गये। इधर जीतन राम मांझी भी नीतीश कुमार के साथ एनडीए में शामिल हो गये। विधान सभा चुनाव में भाजपा को 74, जदयू को 43 तथा वीआईपी और हम को 4-4 सीटें मिलीं। इस प्रकार चार पार्टियों को मिलकार 123 सीटें एनडीए के खाते में आयीं। बहुमत के अभाव के कारण वीआईपी और हम बराबर दबाव की राजनीति कर रही थीं। इस बीच जदयू ने बसपा और लोजपा के 1-1 सदस्यों को मिलाकर अपनी सदस्य संख्या 45 कर ली। इधर, वीआईपी के तीनों विधायकों के भाजपा में शामिल होने के बाद भाजपा विधायकों की संख्या 77 हो गयी। इस प्रकार विधान सभा में अब भाजपा और जदयू के सदस्यों की संख्या पूर्ण बहुमत के लिए पर्याप्त हो गयी। 77 और 45 मिलाकर 122 विधायक भाजपा और जदयू के हो गये। मतलब अब बहुमत के लिए नीतीश सरकार निर्दलीय या जीतनराम मांझाी की ‘हम’ पार्टी पर निर्भर नहीं रही। 2020 में मुकेश सहनी को भाजपा के कोटे से मंत्री बनाया गया था और भाजपा के कोटे एमएलसी भी बने थे।
वीआईपी के विधायकों के भाजपा में शामिल होने की घटना का विश्लेषण करें तो स्पष्ट होता है कि यह कोई अप्रत्याशित घटना नहीं है। यह पहले से तय था कि मुकेश सहनी ज्यादा ‘उछल-कूद’ करेंगे तो हादसा कभी भी हो सकता है। यूपी में भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ना, एमएलसी चुनाव में भाजपा उम्मीदवारों के खिलाफ प्रत्याशी देकर सहनी भाजपा को चिढ़ा रहे थे। उधर, वीआईपी विधायक मुसाफिर पासवान के निधन से रिक्त हुई बोचहां सीट पर हो रहे उपचुनाव में मुकेश सहनी ने भाजपा के खिलाफ उम्मीदवार देकर संभावनाओं के सभी दरवाजे बंद कर लिये। आखिरकार भाजपा ने वीआईपी के तीनों विधायकों को पार्टी में शामिल कर मुकेश सहनी की राजनीतिक ताकत को समाप्त कर दिया। अब मुकेश सहनी राज्य सरकार में कुछ दिन के ही मेहमान रह गये हैं।
इस पूरे घटनाक्रम को नये परिप्रेक्ष्य में भी देखा जा रहा है। मुकेश सहनी पिछड़ा के बेटा के साथ धोखा जैसी संज्ञा दे रहे हैं। इसका भी एक तार्किक पक्ष हो सकता है, लेकिन सहनी पिछले 6-7 सालों के राजनीतिक कार्यकाल में क्या कर रहे थे? वे भी राजनीतिक लाभ के लिए खेमा बदल रहे थे, सौदा कर रहे थे। और अंत में खुद सौदे की भेंट चढ़ गये।
मुकेश सहनी की राजनीति का मूल मंत्र था कि पैसे से राजनीति की जा सकती है। पैसों से प्रचार खरीदा जा सकता है। पैसों से टिकट खरीदा और बेचा जा सकता है। अब तक उन्होंने यही काम किया है। राजनीतिक सौदों में भारी पड़ते रहे हैं। विधायक दल विलय प्रकरण में पहली पर पैसा और सौदा उन पर भारी पड़ा है। मुकेश सहनी की इस बात के लिए तारीफ की जानी चाहिए कि दरभंगा के एक गांव से निकलकर उन्होंने मुम्बई जैसे महानगर में अपने लिए मुकाम बनाया। पैसा भी कमाया। अपनी जाति व समाज के प्रति सेवा भाव से प्रेरित होकर बिहार आये और जाति जागरण के काम में जुट गये। उनके समाज के लोगों ने भी उन पर भरोसा किया। इसे भरोसे के आधार पर वे राजनीतिक सौदा करने लगे। इसकी कीमत भी खूब वसूल की। भरोसे पर घात अब मुकेश सहनी को महंगा पड़ सकता है।
मुकेश सहनी महत्वाकांक्षी हैं। होना भी चाहिए। वे भाजपा से मोहभंग होने के बाद फिर राजद के खेमे में आने का प्रयास कर रहे हैं। राजद का नया राजनीतिक चरित्र मुकेश सहनी के लिए राह आसान बना सकता है। लेकिन जीतनराम मांझी के धोखे की आंच अभी कम नहीं हुई है। इसलिए मुकेश सहनी पर भरोसा करना तेजस्वी यादव के लिए सहज नहीं है, लेकिन पैसों के बाजार में विधान परिषद या राज्य सभा के लिए टिकट खरीद लेना मुश्किल भी नहीं है।
(संपादन : नवल)
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