पांच चरणों का मतदान संपन्न होने के बाद यूपी चुनाव की दिशा तय होने लगी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के नेतृत्व में यूपी का यह पहला चुनाव है, जब भगवाधारी योगी आदित्यनाथ के होने के बावजूद सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने की हर मुमकिन कोशिश नाकाम साबित हुई है। तीव्र सत्ता विरोधी लहर का सामना कर रही भाजपा के लिए कोई भी मुद्दा जीत के लिए संजीवनी साबित नहीं हो रहा है। सुरक्षा से जुड़ा कानून व्यवस्था का मुद्दा भी पूर्वांचल तक आते-आते मुरझाने लगा है।
पूर्वांचल में चर्चित रही है सामंतों की सामंतशाही
दरअसल, इस इलाके में सामंतवाद आज भी हावी है। पारंपरिक रूप से वर्चस्वशाली अगड़ी जातियां आज भी गरीब दलितों व पिछड़ों का दमन करती हैं। हालांकि मायावती के शासन (2007-12) के दरम्यान जातिवादी शोषण और सामंती वर्चस्व पर लगाम लगी थी। लेकिन योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में आई भाजपा सरकार ने सामंती ताकतों को फिर से खड़ा कर दिया है। अगड़ी जातियों की दबंगई और वंचितों का उत्पीड़न योगी सरकार का मुहावरा बन गया है। प्रतापगढ़ और आजमगढ़ की घटनाएं इसकी गवाह हैं। पहले सामंतवादियों द्वारा यादव, पासी और कुर्मी बिरादरी के लोगों का उत्पीड़न किया गया, फिर पीड़ितों का ही सरकारी दमन किया गया। इसलिए इन इलाकों में गरीबों व वंचितों की सुरक्षा के मुद्दे से सत्ताधारी पार्टी को लाभ मिलना संभव नहीं है। यही कारण है कि अब ‘अबकी बार योगी सरकार’ के बजाय ‘अबकी बार, भाजपा सरकार’ का नारा दिया जा रहा है।
सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के सहारे मतदाताओं को साधने के प्रयास
पश्चिमी और मध्य यूपी की अपेक्षा इस इलाके में गरीबों की तादात ज्यादा है। जाहिर है, सरकारी योजनाओं का लाभ भी इन गरीबों को ज्यादा मिला है। राजनीतिक विश्लेषक सरकारी योजनाओं के लाभार्थियों को एक वर्ग के रूप में रेखांकित करते हैं। भाजपा इसी लाभार्थी वर्ग की आकांक्षाओं को तुष्ट करके वोट हासिल करना चाहती है। लेकिन सवाल यह है क्या लोकलुभावन योजनाएं भाजपा के लिए गेम चेंजर साबित होंगीं?
नरेंद्र मोदी की भाजपा सरकार ने विकास की बड़ी-बड़ी योजनाओं और सार्वजनिक संस्थाओं के निर्माण के बजाय गरीबों को लोकलुभावनवादी योजनाओं का लाभ पहुंचाकर लाभार्थियों को वोटबैंक में तब्दील करने की कोशिश की है। मसलन, आवास, शौचालय से लेकर नगद लाभ जैसी योजनाएं मोदी सरकार में बड़े पैमाने पर जारी हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या योजनाओं का लाभार्थी भाजपा को वोट करेगा? क्या वास्तव में इन योजनाओं का ईमानदारीपूर्वक क्रियान्वयन हो रहा है? क्या इन योजनाओं का लाभार्थी वर्ग जातीय गणित की राजनीति पर भारी पड़ रहा है?
शौचालयों का फेर
ध्यातव्य है कि 15 अगस्त, 2014 को नरेंद्र मोदी ने घर-घर शौचालय बनाने का ऐलान करते हुए ‘स्वच्छ भारत मिशन’ की शुरुआत की। प्रधानमंत्री ने इसे महिला केंद्रित बनाते हुए ‘इज्जत घर’ की संज्ञा दी। ग्रामीण इलाके में इस योजना की असलियत क्या है? क्या इसका लाभ सबको मिला है? यूपी चुनाव के मद्देनजर इस योजना को देखने पर ज्ञात होता है कि 2017 से अब तक यूपी में 1 करोड़ 88 लाख 32 हजार 124 शौचालय बनाए गए हैं। लेकिन यह संख्या केवल कागज पर दर्ज है। हकीकत में 50 फ़ीसदी शौचालय भी जमीन पर नहीं हैं। यह योजना ठेकेदारी और घूसखोरी की भेंट चढ़ गई। बावजूद इसके योगी सरकार ने 2018 में पूरे यूपी को ‘खुले में शौच मुक्त’ घोषित कर दिया। लेकिन जनगणना 2021 की तैयारी के समय भारत सरकार के सामने संकट खड़ा हो गया। दरअसल, जनगणना फार्म के एक कॉलम में एक सवाल होता है कि ‘कितने घरों में शौचालय है।’ सही सूचना दर्ज करने की स्थिति में सरकार की किरकिरी होती। इससे निपटने के लिए सरकार ने गांव में सुलभ शौचालय बनाने की योजना शुरू की। इस प्रकार करीब 60 हजार गांवों में सुलभ शौचालय की योजना को मूर्त रूप दिया गया, ताकि जनगणना के कॉलम को दुरुस्त किया जा सके।
मुट्ठी भर लोगों के लिए घर
यूपीए सरकार के समय से चली आ रही तमाम योजनाओं का नाम बदलकर मोदी सरकार ने नवीनीकरण किया। वर्ष 2015 में इंदिरा गांधी आवास योजना का नाम बदलकर प्रधानमंत्री आवास योजना शुरू की गई। इसी तरह राज्यों में सीएम आवास योजना संचालित होती है। यूपी में 2017 से पीएम आवास योजना के अंतर्गत 24 लाख 48 हजार आवास दिए गए। जबकि सीएम आवास योजना में दो लाख आवास बनाए गए। कुल मिलाकर, 403 विधानसभाओं में 26 लाख 48 हजार आवास निर्मित हुए। इस लिहाज से प्रत्येक विधानसभा में केवल 6670 आवास निर्मित हुए।
गौरतलब है कि आवास आवंटन में भ्रष्टाचार के मामले भी समय-समय पर उजागर होते रहे हैं। इस भ्रष्टाचार में नीचे से लेकर शीर्ष तक की भूमिका मानी जाती है।
उज्ज्वला योजना का हश्र
खैर, काम चाहे जैसा हो, लेकिन नरेंद्र मोदी उसकी ब्रांडिंग करना बखूबी जानते हैं। वंचितों और गरीबों के लिए उन्होंने कई कल्याणकारी योजनाएं चलाईं। उज्ज्वला गैस योजना का भी खूब प्रचार किया गया। खासकर गृहणियों को आकर्षित करने के लिए 1 मई, 2016 को पूर्वी यूपी के बलिया जिले से इस योजना की शुरुआत की गई। स्वाभिमान से भरी हुई महिला के हाथ में गैस सिलेंडर सौंपते हुए प्रसन्नचित्त मोदी के बड़े-बड़े होर्डिंग देश के सभी पेट्रोल पंपों पर लगाए गए। लेकिन इस योजना की हकीकत यह है कि गैस की बढ़ती कीमतों के कारण कोई गरीब दोबारा सिलेंडर नहीं भरवा सका। नतीजा यह हुआ कि महिलाएं फिर से मिट्टी के चूल्हे पर खाना पकाती दिखाई देने लगीं।-धीरे धीरे गैस सब्सिडी खत्म कर दी गई। इससे मध्यवर्ग भी हलकान हुआ। सीमित आमदनी वाले इस वर्ग का खर्चा बढ़ गया।
किसान हैं हलकान
दिसंबर 2018 से लागू प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना के तहत सीमांत किसानों के खाते में सीधे नकद का स्थानांतरण किया जाता है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार यूपी में दो करोड़ 55 लाख किसानों को एक साल में 6000 प्रति एकड़ की दर से मिलता है। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। कोरोना की आपदा के बाद 86 फ़ीसदी लोगों ने स्वीकारा है कि उनकी आमदनी घट गई है। महंगी बिजली, महंगे डीजल और बाड़बंदी के कारण खेती की लागत बढ़ी है। खाद सब्सिडी खत्म कर दी गई। डीएपी की बोरी के दाम ही नहीं बढ़े बल्कि उसका वजन भी 5 किलो कम कर दिया गया। किसान सबसे ज्यादा आवारा पशुओं के कारण परेशान है। आवारा पशु यूपी चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा है।
बढ़ी है बेरोजगारी
लाभार्थी योजना में सबसे ज्यादा चर्चा प्रधानमंत्री खाद्यान्न योजना की हो रही है। कोरोना आपदा के समय अप्रैल 2020 से केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों के लिए मुफ्त राशन देना शुरू किया गया। चुनावों को देखते हुए मोदी सरकार ने 31 मार्च 2022 तक इस योजना को बढ़ा दिया है। इसके अंतर्गत माह में दो बार क्रमशः केंद्र और राज्य सरकार द्वारा प्रति व्यक्ति 3 किलो गेहूं और 2 किलो चावल दिया जाता है। यूपी सरकार ने नवंबर माह से गेहूं और चावल के साथ प्रति कार्ड एक माह में एक किलो चना, एक लीटर रिफाइंड तेल और एक किलो नमक बढ़ा दिया है। नोटबंदी, जीएसटी जैसी अदूरदर्शी नीतियों के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था कमजोर हो चुकी है। कोरोना काल में हुए लॉकडाउन के कारण लघु, मध्यम उद्योग बंद होने की कगार पर पहुंच गए हैं। ऐसे में बेरोजगारी पिछले 40 साल में सबसे ज्यादा हो गई है। संयुक्त राष्ट्रसंघ की रपट के मुताबिक, 2005-2006 से लेकर 2015-2016 की अवधि में भारत में 27 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से बाहर निकाला गया था। वहीं अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी, बैंगलोर के एक अध्ययन के अनुसार मोदी सरकार की नाकामियों के कारण कोरोना महामारी के पहले चरण के दौरान 23 करोड़ लोग फिर से गरीबी रेखा के नीचे धकेल दिए गए।
दरअसल, लोगों को गरीब बनाना मोदी सरकार की एक अनकही योजना है। गरीब और लाचार लोगों को दिए गए मुफ्त राशन के बदले वोट हासिल करना मोदी सरकार का लक्ष्य है। लेकिन असल सवाल यह है कि इस लोकलुभावनवाद का असर क्या जातीय अस्मिता के दायरे से बाहर भी हो रहा है?
और अब बदल चुके हैं राजनीतिक हालात
दरअसल, आरक्षण खत्म किए जाने की साजिश के कारण पिछड़ी जातियां भाजपा के खिलाफ गोलबंद हो रही हैं। यूपी में 69 हजार शिक्षकों की भर्ती में ओबीसी आरक्षण नहीं दिया गया। इसके खिलाफ आंदोलनरत छात्रों पर लाठियां चलाई गईं। इसी तरह से किसान भी भाजपा के खिलाफ हैं। किसान कहते हैं छुट्टा जानवर खड़ी फसल खा रहे हैं। पांच क्विंटल नुकसान के बदले 5 किलो राशन से हमारा क्या होगा? हालांकि बेहद गरीब दलित और अति पिछड़ी जातियों का एक छोटा तबका मुफ्त राशन के कारण भाजपा को वोट कर रहा है। खासकर गरीब महिलाएं और मजदूर, जिनके पास रोजगार नहीं है, राशन की खातिर भाजपा का वोटबैंक बन गए हैं। लेकिन इस वर्ग के भीतर जिस व्यक्ति में शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की आकांक्षा और जातिगत उत्पीड़न के खिलाफ चेतना मौजूद है, वह खामोशी से भाजपा सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए ईवीएम का बटन दबा रहा है।
(संपादन : नवल/अनिल)
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