इन दिनों मैं राजस्थान की राजधानी जयपुर में हूं। बीते दिनों यहां सुरेन्द्र गागर मिले। उन्होंने जो अपनी कहानी सुनाई, उसने मुझे आक्रोश और दुःख से भर दिया। लेकिन यह कहानी अकेले केवल सुरेंद्र गागर की नहीं है, बल्कि भारत के करोड़ों लोगों की है।
सुरेन्द्र बताते हैं कि हमलोग रैगर जाति (अनुसूचित जाति) से हैं। मेरे पिताजी पढ़-लिख कर आरक्षण के कारण बिजली विभाग में क्लर्क बन गये। वे पूरे गांव में हमारी जाति के पहले सरकारी कर्मचारी थे।
हम रैगर लोगों के पास ज़मीन भी नहीं होती| हमारे पिताजी ने तनख्वाह से बचाए हुए पैसों से ज़मीन का एक टुकड़ा गांव में खरीदा, जिसके बाद बड़ी जातियों के लोगों ने हमलागों के उपर धावा बोल दिया।
एक बार हमारे घर के सामने से गुजरते हुए एक सवर्ण ने मेरे दादाजी को बुला कर कहा तू ज्यादा उछल रहा है क्या? गांव छोड़ कर वहीं चला जा, जहां तेरी जात वालों का उछलना चलता हो। अपने गांव में तो हम यह चलने नहीं देंगे।
उन लोगों का कहना था कि अगर ये नीच जात भी खेती करेंगे तो हममे और इनमें क्या अंतर रह जाएगा।
हमलोगों ने इस बात की शिकायत पुलिस से की। जब पुलिस वाले दबंगों को पकड़ कर ले गये तब जाकर हम चैन की सांस ले पाए। लेकिन बाद में गांववालों ने दबाव डाल कर पिताजी से केस वापिस करवा दिया।
अब उनलोगों ने हमारी ज़मीन पर जान-बूझकर सड़क निकलवा दी, जिससे हमारी ज़मीन अधिग्रहण में चली गई। लेकिन हमें उसका फायदा हो गया। अब हमें अपनी ज़मीन में जाने के लिए किसी सवर्ण की जमीन में से होकर नहीं जाना पड़ता। हम सरकारी सडक से सीधे अपनी ज़मीन में जाते हैं।
सुरेन्द्र बताते हैं कि एक बार मैं पिताजी के कहने पर गांव के ब्राह्मण महिला डाकिये को बचत राशि देने गया तो वह खुले में तीन ईंटें जोड़ कर लकडियां जलाकर जानवरों के लिए दलिया पका रही थी। उसने मुझसे मेरी जाति पूछी। जब मैंने खुद को रैगर कहा तो वह मुझे गालियां देने लगी।
सुरेन्द्र कहते हैं कि पढ़ाई के दौरान जयपुर में मैं अपने एक दलित दोस्त के साथ एक दूकान पर बैठकर कोल्ड ड्रिंक पी रहा था। उस दूकानदार दुसरे दूकानदार से कह रहा था कि इन नीच जाति वालों से सूअरों जैसी बदबू आती है। मेरे दोस्त ने पूछा कि भाई साहब आपको अभी कोई बदबू आई क्या? तो वह दुकानदार बोला कि अभी कहां से आयेगी। तब मेरे मित्र ने कहा कि हम लोग भी रैगर हैं। तब वह दुकानदार सकपका गया और उसने बात बदल दी।
इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद सुरेन्द्र ने अपने पिता से कहा कि हम अपने गांव में आईटीआई संस्थान खोलेंगे। पिता ने अपनी पूरी कमाई संस्थान के लिए भवन बनाने में लगा दी। सुरेन्द्र ने जान पहचान वालों से क़र्ज़ भी लिया और आईटीआई शुरू कर दी। लेकिन भारत में दलितों के लिए कोई भी राह आसान नहीं है। लोगों ने सुरेन्द्र की जाति की वजह से उसके संस्थान में अपने बच्चों को नहीं भेजा। सुरेंद्र ढाई साल तक कोशिश करते रहे। अंत में उन्हें अपना संस्थान बंद करना पड़ा।
इसके बाद सुरेन्द्र ने छोटे बच्चों के लिए अंग्रेज़ी माध्यम का स्कूल खोला। लेकिन वहां भी सुरेन्द्र की जाति रास्ते का रोड़ा बन कर खडी हो गई। गाँव वालों ने एलान करके सुरेन्द्र के स्कूल का बहिष्कार किया।
अंत में सुरेन्द्र को जयपुर में आकर प्राइवेट ट्यूशन करने पड़े। साथ ही सुरेन्द्र ने नौकरी के लिए भी कोशिश की। अभी वे सरकारी विभाग में चुने गये हैं।
सुरेन्द्र बताते हैं मैं समाज के लिए बहुत कुछ करना चाहता था। मैंने अपने पिताजी का सारा पैसा बर्बाद कर दिया। अब मुझे वो सारा कर्ज चुकाना है।
खैर, सुरेन्द्र बताते हैं कि उनकी पत्नी सरकारी शिक्षक हैं। उन्हें जिस गांव में नियुक्त किया गया है, वहां सब सवर्ण हैं। इसलिए कोई उनकी पत्नी को मकान किराए पर नहीं देता। अभी एक खेत में बने हुए एक कामचलाऊ कमरे में उन्हें रहना पड़ रहा है।
जाति की वजह से मकान ना मिलने के अनेक उदहारण सुरेन्द्र ने मुझे सुनाये। मैं उनकी बातें सुन रहा था और एक सवर्ण परिवार में जन्म लेने की वजह से शर्मिंदा हो रहा था कि हमलोग कितने लोगों की ज़िन्दगी में दुःख घोलनेवाले लोगों में शामिल हैं।
(संपादन : नवल/अनिल)
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