गत 8 मार्च, 2022 को मदुरै, तमिलनाडू, की एक विशेष अदालत ने इंजीनियरिंग के युवा दलित विद्यार्थी गोकुलराज की 2015 में हुई हत्या के लिए 10 लोगो को दोषी ठहराते हुए सभी को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई। इस मामले में अभियोजन ने मौखिक तर्कों के अतिरिक्त, लिखित साक्ष्य भी प्रस्तुत किए थे, जो एक रोमांचक जासूसी कहानी की तरह लगते हैं। परन्तु इस अपराध की जघन्यता को देखते हुए इस दस्तावेज को ‘रोमांचक’ की जगह ‘वीभत्स’ कहना बेहतर होगा।
अभियोजन पक्ष के तर्कों के मुख्यत: तीन आधार थे–
- पहला यह कि हत्या के पीछे आरोपियों का कोई व्यक्तिगत उद्देश्य नहीं था, क्योंकि आरोपी और मृतक एक-दूसरे को जानते तक नहीं थे। यह हत्या एक शैतानी षडयंत्र के तहत की गई थी, जिसके पीछे रक्त की शुद्धता बनाए रखने की जाति व्यवस्था से उपजी क्रूर मानसिकता थी।
- स्थानीय पुलिस ने शुरू में गोकुलराज की मौत को आत्महत्या माना। परन्तु जल्द ही उसने अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत मामला दर्ज कर लिया। इसके अलावा एक स्थानीय वकील ने हाईकोर्ट में गोकुलराज के शरीर का पोस्टमॉर्टम किए जाने की मांग को लेकर एक अपील दायर की। यह वकील गोकुलराज के परिवार के साथ मजबूती से खड़ा रहा। इस मामले में हाईकोर्ट में पैरवी शंकर सुब्बु ने की, जो लम्बे समय से नागरिक अधिकारों से संबंधित मुकदमे लड़ते रहे हैं। उन्होंने ही 1980 के दशक में ‘मुठभेड़ों‘ के कई मुकदमे लड़े थे। पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट से यह साफ हो गया कि गोकुलराज की हत्या की गई थी और वह भी अत्यंत वीभत्स तरीके से। जाहिर है कि इस रपट के बाद, गोकुलराज की मौत को उसकी जेब में मिले एक ‘नोट’ के आधार पर आत्महत्या ठहराना संभव नही रह गया।
- दूसरी जाति के व्यक्ति से शादी करने पर युवा दम्पत्तियों की हत्या किए जाने के मामले हमारे देश में होते आए हैं. परंतु इस मामले में एक युवा दलित की सिर्फ इसलिए हत्या कर दी गई क्योंकि वह एक सवर्ण हिन्दू (गोंदर जाति) लड़की से बातचीत भर कर रहा था। इसके अतिरिक्त, आमतौर पर ऐसे अपराध संबंधित प्रेमी युगलों के परिवारजनों द्वारा किए जाते हैं, परंतु इस मामले में हत्यारे न तो मृतक को जानते थे और ना ही उसकी महिला मित्र को। यद्यपि इस बात की संभावना है कि एक ही जाति के होने के कारण उन्हें लड़की के परिवार के बारे में पता होगा। लड़की ने जांच में यथासंभव सहयोग किया। बाद में उसका विवाह हो गया और वह गर्भवती भी हो गई। अपने परिवार और जाति के दबाव के कारण वह मामले में आगे सहयोग नहीं कर सकी। अदालत में सुनवाई के दौरान वह पक्षद्रोही हो गई।
मुद्दा यह था कि गोकुलराज की हत्या एक संगठित जाति समूह द्वारा अत्यंत निर्दयतापूर्वक की गई थी और हत्यारों में से कई धीरण चिन्नामलई पेरावई नामक जातिवादी संगठन से जुड़े हुए थे। यह संगठन पेरूमल मुरूगन के उपन्यास ‘माधुरूभगन’ (जिसके अंग्रेज़ी अनुवाद का शीर्षक ‘वन पार्ट वुमन’ था) के खिलाफ अदालत गया था, क्योंकि उसका आरोप था कि मुरूगन के उपन्यास से गोंदर जाति की महिलाओं के ‘सम्मान‘ को चोट पहुंचती है। यह साफ था कि गोकुलराज की हत्या का प्रकरण एससी-एसटी एक्ट, 1989 के तहत चलाए जाने योग्य था।
विशेष लोक अभियोजक बी. बी. मोहन ने इस मामले को एससी-एसटी एक्ट से जिस तरह जोड़ा, वह विधि के विद्यार्थियों के लिए एक सबक है। इस मामले में हत्यारों के इरादे का मसला जातिवाद के इतिहास व सामाजिक मनोविज्ञान के साथ-साथ वर्ण व्यवस्था के नियमों से भी जुड़ा हुआ था, न कि किसी तात्कालिक व स्थानीय विवाद या शत्रुता से। अत:, मोहन के अनुसार, अभियोजन को ऐसे साक्ष्य प्रस्तुत करने थे जो अपराध की प्रकृति से मेल खाएं। मोहन ने अदालत से कहा कि मुख्य आरोपी व हत्या के षड़यंत्र का मास्टरमाइंड युवराज ‘रक्त की शुद्धता‘ के सिद्धांत में विश्वास रखता था। मोहन ने यह तर्क दिया कि इसी सिद्धांत से प्रेरित होकर उसने एक दलित नौजवान की हत्या की और उसके शरीर के अंग काटे। युवराज को लगता था कि मृतक एक गोंदर महिला की इज्ज़त पर हाथ डाल रहा है और उसके रक्त को दूषित कर रहा है।
अभियोजन पक्ष के अधिकांश गवाह अपने बयानों से मुकर गए थे। ऐसे में मोहन के तर्कों का आधार मुख्यत: परिस्थितिजन्य साक्ष्य थे। उन्होने अद्भूत बारीकी से अपने तर्क प्रस्तुत किए। उनके तर्को का आधार पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट, अन्य फॉरेंसिक साक्ष्य, सीसीटीवी फुटेज व सेल फोन पर बातचीत के रिकॉर्ड थे। मोहन ने यह साबित करने का प्रयास किया कि यह इस अमानवीय हत्या को एक षडयंत्र के तहत अंजाम दिया गया। उन्होने जाति आधारित अपराधों की प्रकृति के बारे में अपनी बात रखते हुए इस तरह के कई षडयंत्रों का हवाला दिया – जैसे किसी दलित महिला की इसलिए हत्या कर दी गई क्योंकि उसने अपनी जमीन पर अपना दावा किया या किसी सवर्ण हिन्दू पुरूष से उससे विवाह करने के वायदे को पूरा करने के लिए कहा या दलितों को धोखाधड़ी से उनकी जमीनों या अन्य संसाधनों से वंछित कर दिया गया या दलितों के घर जला दिए गए या स्थानीय प्रभुत्वशाली जातियों ने उन पर सुनियोजित हमले किए। यह मामला भी षडयंत्र का था क्योंकि युवराज और उसके साथियों ने सब कुछ जानते-समझते हुए यह हत्या सिर्फ इसलिए की क्योंकि वे कट्टर जातिवादी थे। उन्होने यह क्रूर अपराध इसलिए नहीं किया क्योंकि किसी कारणवश उनका मृतक से कोई बैर था बल्कि इसलिए किया क्योंकि वे अछूत प्रथा और जाति व्यवस्था के समर्थक थे तथा इन दोनों आमानवीय प्रथाओं को मजबूती देना चाहते थे। इस तरह, इस षडयंत्र का उद्देश्य जाति व्यवस्था को बनाए रखना था और वह संविधान के अनुच्छेद 17, 14 व 15 का उल्लंघन था।
इस षडयंत्र के पीछे जाति व्यवस्था के प्रति प्रेम होना साबित करने में मोहन ने षडयंत्र के सामान्य मामलों के ठीक उलट तर्क दिए। षडयंत्र का आरोप सामान्यत: तब लगाया जाता है जब राज्य को ऐसा लगता है कि कोई कार्यवाही सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए की जा रही है या स्थापित व्यवस्था को अस्थिर करने के लिए हिंसा की जा रही है। इस मामले में मोहन ने षडयंत्र को एक ऐसे असंवैधानिक कृत्य के रूप में प्रस्तुत किया जो सामाजिक क्षेत्र में भेदभाव और हिंसा से जुड़ा हुआ था।
अपने निर्णय में अदालत ने विशेष लोक अभियोजक के तर्को को सही माना और बचाव पक्ष के इस तर्क को खारिज कर दिया कि यह मामला षडयंत्र का नही है। नागरिक अधिकारों की रक्षा से संबंधित मामलों की नज़ीरें देते हुए न्यायाधीश ने यह साफ कर दिया कि यह मामला अलग तरह का है और इसका संबंध लोगों के अधिकारों पर डाका डालने से है। यह हत्या संविधान का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन है और इसका उद्देश्य जाति व्यवस्था को मजबूती देना है।
(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल)
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