बीते 10 मार्च को पांच प्रदेशों में हुए चुनावों का परिणाम सामने आ गया। परिणामों के मुताबिक, उत्तर प्रदेश, गोवा, मणिपुर और उत्तराखंड में भाजपा को जीत मिली है। वहीं पंजाब में आम आदमी पार्टी को अभूतपूर्व सफलता प्राप्त हुई है। सबसे अधिक चर्चा में है उत्तर प्रदेश का चुनाव, जहां सपा गठबंधन ने हालांकि बेहतर प्रदर्शन किया, लेकिन भाजपा को सशक्त चुनौती देने में भी नाकाम रहे। प्रस्तुत है इस संबंध में दलित-बहुजन बुद्धिजीवियों द्वारा फेसबुक पर की गयी टिप्पणियां।
बसपा और भाजपा के बीच पैक्ट : कंवल भारती, प्रसिद्ध समालोचक
“बसपा के शर्मनाक पतन पर अब कुछ लोग कह रहे हैं कि बसपा दलितों की पार्टी है, उसे हमें बचाना है। कैसे बचा लेंगे आप? जब मुखिया ही पार्टी को बचाना नहीं चाहती तो आप कैसे बचा लेंगे। मुखिया ने सर्वजन समाज की बात कही, आप कुछ बोले? मुखिया ने गुजरात में जाकर मोदी के लिए वोट मांगे, आप कुछ बोले? दो बार भाजपा से हाथ मिलाया, आप कुछ बोले? मुखिया ने परशुराम की प्रतिमा बनाने की बात कही, आप कुछ बोले? मुखिया ने हाथी नहीं गणेश का नारा दिया, आप कुछ बोले? दलित उत्पीड़न के विरोध में मुखिया ने कोई धरना प्रदर्शन नहीं किया, आप कुछ बोले? अब आप कुछ भी करने और बोलने का अधिकार खो चुके हैं।
एक समय था, जब कांशीराम से प्रभावित होकर बहुत से गैर-चमार जातियों के बुद्धिजीवी बसपा से जुड़े थे। इनमें पासी, खटिक, वाल्मिकी समुदाय के कई प्रदेश स्तर के महत्वपूर्ण नेता थे। कुछ को मायावती सरकार में मंत्री भी बनाया गया था। पर बसपा नेतृत्व ने उन सबको निकाल बाहर किया। ऐसा क्यों किया गया? इसके पीछे क्या कारण था? बसपा के भक्त प्रवक्ता इसका यही उत्तर देंगे कि वे पार्टी के खिलाफ काम कर रहे थे। चलो मान लिया, फिर उनकी जगह पर उन समुदायों में नया नेतृत्व क्यों नहीं तैयार किया गया? इसका वे कोई जवाब नहीं देंगे। असल में सच यह है कि गैर-चमार नेतृत्व को हटाने और आगे न उभारने का काम बसपा ने भाजपा के साथ एक पैक्ट के तहत किया था।”
आत्ममंथन करें अखिलेश : वीरेंद्र यादव, प्रसिद्ध समालोचक
“उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजों ने उत्तर भारत व हिंदी हृतप्रदेश की राजनीति को फिलहाल अपनी तार्किक परिणति तक पहुंचा दिया है। हाथरस, उन्नाव, लखीमपुर व बदायूं आदि में की गई जघन्य घटनाओं की स्मृति को तिरोहित कर इन्हें अंजाम देने वालों को संरक्षण प्रदान करने वाली राजनीति का परचम लहराना हिंदू मानस व सवर्ण आधिपत्य की घोषित विजय है। सत्ताधारी दल के शीर्षस्थ नेत्तृत्व ने शुरू से ही मुजफ्फरनगर, कैराना पलायन, अस्सी बीस, जालीदार टोपी, अब्बा जान माफिया, बुलडोजर, सुरक्षा आदि के बहाने उन्मादी अभिव्यक्तियों का इस्तेमाल कर अपनी चुनावी व्यूहरचना स्पष्ट कर दी थी। विरोधी पक्ष इन सबसे सीधे मुठभेड़ से बचते हुए रक्षात्मक मुद्रा में ‘गर्मी’ के बजाय ‘भर्ती’, पुरानी पेंशन व रोजगार आदि सरीखे मुद्दे उठाकर उचित ही अपनी पोलिटिकल करेक्टनेश का प्रमाण देता रहा। उसने अन्य सामुदायिक समूहों के प्रतिनिधियों से गठजोड़ कर अपने पारंपरिक वोट बैंक को विस्तृत करने की व्यूह रचना भी अपनायी। लेकिन यह सब आनन फानन में जिस तरह किसी जमीनी तैयारी के बिना किया गया, वह ठोस नतीजों में तब्दील नहीं हो पाया। बाबा साहेब आंबेडकर और समाजवादी नारों का जिक्र तो किया गया, लेकिन उसके पीछे के विचारों को अम्ली जामा नहीं पहनाया जा सका। जाहिर है इसे तीन महीने की सक्रियता से नहीं किया जा सकता था। सच है कि जनता का एक बड़ा हिस्सा अपनी दैनन्दिन दुश्वारियों के चलते बदलाव चाहता था, लेकिन उस तक विरोधी पक्ष अपनी प्रभावी व आश्वस्तकारी उपस्थिति न दर्ज करा सका। हिंदुत्व द्वारा अल्पसंख्यक को निशाने पर लेने की राजनीति का माकूल जवाब जिस तरह इसकी विभेदकारी आधिपत्यवादी संरचना को उजागर करते हुए देना चाहिए था वह नहीं किया गया। सच है कि नेतृत्व की स्वयं की वैचारिक प्रतिबद्धता और कैडर के प्रशिक्षण के बिना यह नहीं हो सकता था। बसपा के सफाए और मायावती की समर्पणकारी राजनीति के बाद इसकी और भी जरूरत है। इसके लिए जरुरत है अहर्निश की राजनीति और सामाजिक बदलाव के दर्शन की। राजनीति के प्रचलित आधिपत्यवादी सवर्ण मुहावरे को अपनाकर इसे नहीं किया जा सकता। अखिलेश यादव को यह तय करना होगा कि वे सकारात्मक बदलाव की दूरगामी राजनीति का रास्ता अपनाने को तैयार हैं या कि सत्ता पक्ष की असफलताओं से उपजे जनअसंतोष व निराशा की तैयार फसल तक ही अपने को सीमित रखना चाहते हैं? अंतिम दौर के चुनाव के ठीक पहले की अपनी आपात प्रेस कांफ्रेंस में अखिलेश यादव ने कहा था कि यह जनतंत्र को बचाने की अंतिम लड़ाई है। कहना न होगा कि उत्तर प्रदेश के चुनवी नतीजों ने जनतंत्र को बचाने की लड़ाई का और अधिक शिद्दत के साथ अहसास करा दिया है। अखिलेश यादव ने जिस तरह इस चुनाव में अपनी सामर्थ्य का परिचय दिया, उससे उम्मीद बढ़ी है। क्या वह स्वयं और उनका दल इन उम्मीदों को पूरा करने के लिए तैयार है?”
पौने पांच साल की ‘लंबी छुट्टी’ के बाद सिर्फ ‘तीन महीने की सीमित सक्रियता’ से भला पांच साल के लिए कोई नयी सरकार कैसे बनती? : उर्मिलेश, वरिष्ठ पत्रकार
“पंजाब के नतीजे बिल्कुल प्रत्याशित रहे। ‘आप’ को जीतना था, वह जीती। सिर्फ एक ही अंतर रहा कि ‘आप’ को अंदाज़ से ज्यादा सीटें मिलीं। गोवा और उत्तराखंड के नतीजे अप्रत्याशित रहे। दोनों जगह भाजपा की सत्ता में वापसी हुई। मणिपुर का नतीज़ा उतना अप्रत्याशित नही था।
उत्तरप्रदेश के चुनाव नतीज़े का आकलन और विश्लेषण एक या दो लाइनों में संभव नहीं है। यूपी की संरचना जितनी जटिल है, उतना ही जटिल था यहां का चुनाव। जिन दिनों अपने चुनाव प्रचार की शुरुआत करते हुए समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने फरसा लहराते हुए एक खास मंदिर के निर्माण का अभियान चलाया, ‘सत्य हिन्दी’ के एक कार्यक्रम में मैने तब कहा था कि ‘यह क्या, अखिलेश यादव हारने के लिए चुनाव लड़ रहे है!’
मेरी उक्त टिप्पणी पर बहुतेरे लोग नाराज हुए थे। परंतु मुझे अचरज हुआ था कि अखिलेश जी जरूरी मुद्दों को छोड़कर यह सब क्या कर रहे हैं! कुछ ही समय बाद वह समाज और अवाम के जरूरी मुद्दों पर बात करने लगे। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। पौने पांच साल की ‘लंबी छुट्टी’ के बाद सिर्फ ‘तीन महीने की सीमित सक्रियता’ से भला पांच साल के लिए कोई नयी सरकार कैसे बनती?
निस्संदेह, समाज का बड़ा हिस्सा सत्ताधारी खेमे से क्षुब्ध और असंतुष्ट था। इसी हिस्से की स्वतःस्फूर्त सक्रियता से समाजवादी पार्टी को 100 से ऊपर सीटें आई हैं। पर संगठन और योजनाबद्ध कार्यक्रम के बगैर सिर्फ भीड़ से बदलाव कैसे होता?
सत्ताधारी दल के पास सत्ता थी, विचार (हिन्दुत्व) था और संगठन भी। अर्थ सहित हर तरह की शक्ति भी थी। ऐसी ताकत को विचार, संगठन और शक्ति के बगैर शिकस्त देना कैसे संभव होता!”
(संपादन : नवल)
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