उत्तर-भारत में दलित-बहुजन आंदोलन और राजनीति पर विचार शृंखला (दूसरी किस्त)
यह निश्चित है कि हाल-फिलहाल में मिली असफलता स्थायी नहीं है। यह दलित आंदोलन और राजनीति का दुखद पड़ाव भर है। परंतु इस विषय पर विचार होना चाहिए कि यह आंदोलन बहुत संघर्षमय दूरी तय करके इस मुकाम तक पहुंचा था, जिसे इस तरह जाया नहीं होना चाहिए था। इस पहलू को जानने के लिए के कुछेक दशक पीछे लौटना पड़ेगा। उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश शुरू से ही उतार-चढ़ाव की राजनीति का शिकार होता रहा है। पहले ही विधानसभा चुनाव के बाद से लेकर आगे के कई चुनावों तक कांग्रेस के पास बहुमत होने के बाद भी वह इस प्रदेश को स्थायित्व नहीं दे पाई। कांग्रेस के क्षत्रप आपस में लड़ते रहे। राजनीतिक अस्थिरता के कारण प्रदेश विकास की राह पर पैर नहीं रख पा रहा था। जिस प्रदेश ने देश को आठ प्रधानमंत्री दिये हों और संसद को अस्सी सदस्य देता हो, उसका विकास के पैमाने पर फिसड्डी होना सवाल पैदा करता है। आजाद होने और संविधान के लागू होने के बाद देश की तरह प्रदेश में भी काग्रेस सर्वेसर्वा थी, लेकिन गुटबंदियों से मुक्त नहीं थी। हजारों साल से समाज में बढ़त और दबदबा रखने वाले समाज के नुमाइंदे आपस में गुत्थम-गुत्था कर रहे थे, लिहाजा चौथे विधानसभा चुनाव के बाद राजनीतिक विघटन और अस्थिरता से गुजरते हुए प्रदेश पहली बार राष्ट्रपति शासन (1968) के हवाले हो गया।
इसी बीच वर्ष 1977 में प्रदेश में कांग्रेस की टूट-फूट से और देश के केंद्रीय नेतृत्व के अहंकार के चलते वामपंथियों को छोड़ अधिकांश विपक्षी राजनीतिक शक्तियां एक होकर ‘जनता पार्टी’ के रूप में संगठित होकर चुनाव लड़ीं और प्रदेश की कुल 425 विधानसभा सीटों में 352 सीटों पर विजय हासिल कीं। जबकि कांग्रेस मात्र 47 सीटों पर सिमट कर रह गई। जनता पार्टी ने रामनरेश यादव को मुख्यमंत्री बनाया। इस तरह देश और प्रदेश दोनों जगह जनता दल सत्ता में आई। दिल्ली में मोरारजी देसाई और लखनऊ में रामनरेश यादव सत्तानसीन हुए। एक तरह से गैर-कांग्रेसी सरकार की यह पहली डबल इंजन की सरकार थी, जो बिना उल्लेखनीय दूरी तय किेए डगमगा कर गिर गई।
जनता पार्टी विरुद्धों के सामंजस्य से बनी एक राजनीतिक पार्टी थी। यह झुंड को समूह बनाने का प्रयास था, जिसमें यह सफल न हो पाई। जनता पार्टी अपने द्वारा फैलाए मुँह में ही समा गई। अपनों ने अपनों को गटक लिया। जनता पार्टी के बिखराव से कई राजनीतिक क्षत्रपों का विकास हुआ। जनता पार्टी भले बिखर गई, मगर यह रेखांकित कर गई कि उत्तर प्रदेश में गैर-कांग्रेसी सरकार मुमकिन है, साथ ही यह भी कि उत्तर प्रदेश से ही दिल्ली का रास्ता निकलेगा। जाते-जाते जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश को राजनीतिक आकांक्षाओं से भर दिया। मजे की बात यह है कि कांग्रेस को छोड़कर यह आकांक्षा सभी पार्टियों के अंदर जागी। यहां तक कि एकदम से नई पार्टियां भी उम्मीद से लबलबा रही थीं।
हरित क्रांति बनाम पिछड़ा पावै सौ में साठ
इंदिरा गांधी ने बड़े जतन और लगन से हरित क्रांति का नारा दिया। ‘हरित क्रांति’ एक नारा के साथ-साथ और भी बहुत कुछ था, जिसका एक नुक्ता किसानों से होते हुए राजनीति से भी जुड़ता था। इस नुक्ते को कांग्रेस के साथ उस समय के किसान नेताओं और समाजवादी नेतृत्व ने भी लपक लिया। हुआ दरअसल यह था कि चौधरी चरण सिंह दिल्ली और लखनऊ, दोनों जगह वह स्थान व सम्मान नहीं पा रहे थे, जिसके हकदार वह थे। वह कांग्रेस में अपनी स्थिति से असंतुष्ट थे, खासकर पार्टी के तथाकथित उच्च जाति के नेतृत्व से। प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्र भानु गुप्ता से उन्हें नौकरी में ओबीसी की भागीदारी और किसानों पर लगने वाले अधिक कर को कम कराने के लिए प्राय: भिड़ना पड़ता था। यह उस तरह की स्थिति थी, जहां काग्रेस से कांग्रेस को लड़ना पड़ रहा था। इसी बीच एम.एस. स्वामीनाथन और प्रो. नारमन बोरलाग की कृषि चेतना और तत्कालीन कृषि एवं खाद्य मंत्री बाबू जगजीवन राम के सहयोग और इंदिरा गांधी की प्रेरणा से ‘हरित क्रांति’ की शुरूआत हुई। क्रांति का प्रभाव खेत और राजनीति, दोनों पर पड़ा। खेतिहर जातियां आर्थिक रूप से मजबूत हुईं। खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की पिछड़े वर्ग की खेतिहर जातियां। आर्थिक विकास की परिणति ‘राजनीतिक आकांक्षा’ में हुई। इसके पहले राममनोहर लोहिया ने “पिछड़ा पावै सौ में साठ” का नारा देकर पिछड़ी जातियों के बीच राजनीतिक दीया जला दिया था। चौधरी चरण सिंह अवसर की नजाकत को समझते हुए व पिछड़ों और किसानों पर भरोसा करते हुए कांग्रेस का दामन छोड़कर ‘राष्ट्रीय लोकदल’ का निर्माण कर प्रदेश की राजनीति को नए आयाम और विमर्श जोड़ दिया। राष्ट्रीय लोकदल की राजनीति से उन्हें लाभ हुआ। वे किसान नेता के रूप में स्थापित हुए और देश के पंथप्रधान होकर दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुए। निश्चित रूप से यह पिछड़ी जातियों की बड़ी जीत थी, जिसका सुनहरा भविष्य होना चाहिए था। हांलाकि, यह जरूर कहा जा सकता है कि बहुजन समाज की संभावना का बीज इस राजनैतिक परिघटना से किसी न किसी रूप में अवश्य जुड़ती ही है।
पिछड़ी जाति की राजनीतिक शक्ति का यह उभार मायने रखता है वह भी तब जब प्रतिक्रांति पर यकीन करने वाली भाजपा जैसी पार्टी उत्तर प्रदेश में अपनी जमीन तलाश रही थीं। उसने मंडल का सामना करने के लिए कमंडल की जिस रणनीति का सहारा लिया, उसका लाभ वह अभी तक ले रही है। इसी बीच लोहिया के समाजवादी आंदोलन के रास्ते राजनीति में कदम रखने वाले मुलायम सिंह यादव पिछड़ी जाति के विकल्प के रूप पहचान बना रहे थे। इतना ही नहीं, इसी दरम्यान मुलायम सिंह और कांशीराम एक दूसरे के सहयोग से चुनाव जीत चुके थे। सन् 1991 में इटावा से लोकसभा चुनाव कांशीराम जीते थे और जसवंतपुर से विधानसभा का चुनाव मुलायम सिंह ने। मगर दोनों को औपचारिक रूप से साथ आना बाकी था, जिसे अशोक होटल की एक मुलाकात से अंजाम तक पहुंचना था।
अशोक होटल की शाम, जहां मिले मुलायम-कांशीराम
उत्तर प्रदेश और भारत की राजनीति में 1990 का दशक परिवर्तनकारी राजनीतिक घटनाओं के दशक के रूप में दर्ज़ है। इसी दशक में राम जन्मभूमि आंदोलन की ताप की वजह से भाजपा की राजनीति का उभार हो रहा था। और कल्याण सिंह पूर्ण बहुमत से विधानसभा की चुनाव फतह कर चुके थे। भाजपा के लिए यह दशक राजनीतिक प्रयोग का दशक रहा। नब्बे के दशक में उसने कई दुस्साहसी प्रयोग किए, जिसमें 6 दिसंबर, 1992 वाली वह घटना भी शामिल है, जब अनियंत्रित भीड़ ने बाबरी मस्जिद को ढाह दिया। वह भी तब, जब राज्य सरकार ने उच्चतम न्यायालय को भरोसा दिया था कि किसी भी हालत में वह पूरी निष्ठा से बाबरी मस्जिद को सुरक्षित रखेगी।
मस्जिद के ढाहे जाने से भारत सहित पूरी दुनियां में हलचल मच गया। केंद्र सरकार पर यह नैतिक दबाव बढ़ गया कि वह उत्तर प्रदेश की सरकार को बर्खास्त कर दे। इससे पहले कि केंद्र सरकार कल्याण सिंह सरकार को बर्ख़ास्त करती, कल्याण सिंह ने ख़ुद ही मुख्ययमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया। इस पूरी घटना को समझने के लिए उस समय के हिंदी और अंग्रेजी के अखबार महत्वपूर्ण सामग्री हो सकते हैं।
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भाजपा ने जो किया था, उस पर ठहर कर सोचना जरूरी हो गया था। फौरी तौर पर भाजपा के बैकफुट पर आने से प्रदेश की सत्ता पर काबिज होने वाली दूसरी पार्टियों के लिए यह एक सुनहरा मौका था। बसपा और सपा, दोनों पार्टियां इस अवसर का लाभ लेना चाहते थे, मगर दोनों इतने सक्षम नहीं थे कि अलग-अलग रहकर चुनाव लड़कर सत्ता में आ पाते। दोनों को अपनी सीमाओं का बोध था। सत्ता में आने के लिए दोनों राजनीतिक पार्टियों का साथ आना जरूरी था। ऐसे में काम आए उद्योगपति जयंत मलहोत्रा।
जयंत मलहोत्रा ऐसे पहले उद्योगपति थे, जिन्होंने बसपा पर यकीन किया और उस पर दांव लगाया। बाद में वे बसपा की ओर से राज्यसभा गए। जयंत मलहोत्रा वह व्यक्ति थे, जो बसपा को सत्ता पर काबिज देखने के ख्वाहिशमंद थे। ऐसे ही दूसरे उद्योगपति थे, जिनका नाम था – संजय डालमिया। संजय डालमिया मुलायम सिंह के नजंदीक थे। उन्हें भी राज्यसभा भेजा गया। बहरहाल, दोनों उद्योगपति करीबी थे। दोनों में घरेलू संबंध था। दोनों की कोशिश से अक्टूबर 1993 में लखनऊ के अशोक होटल में कांशीराम और मुलायम सिंह यादव की मुलाकात हुई। इस मुलाकात के बाद दोनों पार्टियां साथ आईं और परस्पर सहयोग से सत्ता हासिल करने में सफल हो पाईं। विधानसभा चुनाव में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी होने के बाद भी अपना मुख्यमंत्री नहीं बना पाई। मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बने और सत्ता की ‘मास्टर चाबी’ कांशीराम के हाथ में थी।
यह गठबंधन ऐसा गठबंधन साबित हुआ, जिसने एक झटके में ही पिछड़ी और दलित राजनीति को उम्मीद से भर दिया। ऐसा लग रहा था कि कांशीराम और मुलायम सिंह यादव ने मिलकर ऊंची जातियों के राजनीतिक वर्चस्व को ख़त्म कर दिया है, लेकिन इन दोनों के समर्थकों का चरित्र, हृ्दय और मिज़ाज एक-दूसरे से काफ़ी भिन्न थे। दोनों दलों के लोग पास नहीं आ पाए थे। दोनों दल सांस्कृतिक रूप से एक नहीं थे, और ना ही दोनों दलों के समर्थकों को पास लाने का कोई अभियान ही चलाया गया। गठबंधन मनबंधन का रूप नही ले पाया था। साथ ही यह समय मायावती के उत्थान का भी समय था। आकांक्षाओं की टकराहट से कुछ उथल-पुथल होना था। उत्तर प्रदेश को कई राजनीतिक पड़ावों से गुजरना अभी बाकी था।
क्रमश: जारी
(संपादन : नवल/अनिल)
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