आप चाहें तो इस पर खुश हो लें कि दिल्ली के रायसीना हिल्स की पहाड़ियों पर बसे खूबसूरत और भव्य राष्ट्रपति भवन में अब एक आदिवासी नेता की एंट्री करीब-करीब तय हो गई है। या फिर आप इसका गम मना लें कि समानता की बात करने वाले गांधी और आंबेडकर के देश भारत में इस पद के लिए किसी आदिवासी को मन से आगे करने में सियासत के सूरमाओं को 74 साल क्यों लग गए। आप अगर सोशल मीडिया पर ज्यादा सक्रिय हैं, तो आप यह सवाल भी खड़ा कर सकते है कि कोई आदिवासी राष्ट्रपति बन ही जाए, तो वो आदिवासियों के हितों की कितनी बात कर पाएगा, क्योंकि भारतीय संवैधानिक व्यवस्था में राष्ट्रपति के पद की व्याख्या रबर स्टांप के तौर पर की जाती है।