नामदेव ढसाल दलित पैंथर के संस्थापकों में से एक थे। उन्होंने ज. वि. पवार के साथ मिलकर 9 जुलाई, 1972 को दलित पैंथर संगठन की नींव डाली थी। दरअसल, 1960 और 1970 के दशक दुनिया भर में जन आंदोलनों के दशक थे। अमेरिका द्वारा वियतनाम में हो रही बर्बरता के खिलाफ़ छात्रों और नौजवानों का संघर्ष चल रहा था। साथ ही साथ वहां मानवाधिकारों की रक्षा तथा महिला अधिकारों के लिए भी आंदोलन चल रहे थे। फ्रांस में 1967 में हुए छात्र आंदोलन ने दगाल की सत्ता को हिला दिया था। उसी समय अमेरिका में अश्वेत लोग नस्लभेद और रंगभेद के खिलाफ़ आंदोलन चला रहे थे। वर्ष 1966 में रंगभेद-नस्लभेद से लड़ने के लिए अमेरिका में ब्लैक पैंथर का जन्म हुआ। इसी पृष्ठभूमि में हमें 1972 में महाराष्ट्र में गठित दलित पैंथर आंदोलन को भी देखना चाहिए।
जोतीराव फुले और डॉ. आंबेडकर के कारण महाराष्ट्र पहले से ही दलित आंदोलनों का गढ़ रहा है। इसके अलावा यह आरएसएस और शिवसेना जैसे संगठनों का भी गढ़ रहा। मजदूर संगठनों में कम्युनिस्टों का जबरदस्त प्रभाव था। यही कारण है कि महाराष्ट्र में प्रगतिशील और प्रतिक्रियावादी दोनों आंदोलनों का काफी असर था तथा उनके बीच प्रतिरोध और संघर्ष भी बहुत तीखे थे। महाराष्ट्र में आंबेडकर द्वारा बनाई गई रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) का भी बहुत प्रभाव था, लेकिन उनके परिनिर्वाण के बाद यह पार्टी पूरी तरह से अपनी प्रासंगिकता खोकर कांग्रेस और शिवसेना जैसे प्रतिक्रियावादी दलों के हाथ का खिलौना बन गई थी। उन दिनों महाराष्ट्र में दलितों के खिलाफ अत्याचार व उत्पीड़न की घटनाओं में बेतहाश वृद्धि हो गई थी। न केवल सुदूर गांवों में बल्कि मुंबई जैसे महानगर में भी दलितों पर अत्याचार जोरों पर था। आरपीआई, जो कांग्रेस की पिछलग्गू बन गई थी,वह इन घटनाओं पर चुप्पी साधे हुए थी। इन सबके कारण लेकर दलित नौजवानों का ग़ुस्सा बढ़ता जा रहा था। उन्हें किसी नए नेतृत्व की तलाश थी। यही इस दलित आंदोलन की एक पृष्ठभूमि है।
फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित किताब “दलित पैंथर : एक आधिकारिक इतिहास” के लेखक ज. वि. पवार इस संगठन के सहसंस्थापक थे। यह त्रासदी ही रही कि मराठी के क्रांतिकारी कवि और लेखक नामदेव ढसाल, जो इस संगठन के संस्थापक थे, वे ही इसके बिखराव के जिम्मेदार बनकर कांग्रेस के निकट चले गए। यहां तक कि उन्होंने इंदिरा गांधी की प्रशंसा में कविता तक लिख डाली।
हालांकि ज. वि. पवार ने इस आंदोलन को आंबेडकर के बाद दलित आंदोलन का स्वर्णकाल माना है। इस संगठन के महासचिव होने के कारण उन्होंने इससे संबंधित दस्तावेजों, पत्राचार तथा महाराष्ट्र सरकार के अभिलेखागार में रखे गए दस्तावेजों का भरपूर प्रयोग इस पुस्तक में किया है। यही कारण है कि यह बहुत प्रामाणिक बन गई है। पवार कहते हैं कि “इस आंदोलन के साथ मेरे जुड़ाव का दौर मेरे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण कालखंड था और इसलिए मैंने अपनी कहानी की बजाय दलित पैंथर आंदोलन की कथा लिखने की कथा को प्राथमिकता दी।”
पवार आज जीवन के 75 वर्ष पूरे कर चुके हैं। वे करीब 25 पुस्तकों के सर्जक हैं और इस आंदोलन के शीर्ष नायकों में से एक हैं। परन्तु इस तथ्य से उनकी निरपेक्षता कहीं भी प्रभावित नहीं होती है। वे मराठी के एक बड़े कवि भी हैं। हम देखते हैं कि इस आंदोलन के दोनों संस्थापक बड़े कवि और लेखक भी थे। इस आंदोलन में राजा ढाले भी शामिल थे, जो इससे बाद में जुड़े। वास्तव में इस आंदोलन का जन्म भी मराठी दलित साहित्य के कोख से हुआ।
पवार द्वारा लिखी गई आधिकारिक इस पुस्तक में पचास अध्याय हैं। ये अध्याय बहुत ही स्पष्टता से उन हालातों का बयान करते हैं, जिनमें यह आंदोलन जन्मा तथा फला-फूला। यद्यपि अनेक आंतरिक और बाह्य कारणों से यह आंदोलन केवल पांच वर्ष तक ही चला, परंतु इसने समूचे दलित आंदोलन तथा महाराष्ट्र की राजनीति और समाज पर गहरा प्रभाव छोड़ा है तथा यह बहुत जल्दी ही देश के अन्य भागों में फैल गया। दिल्ली-गुजरात के अलावा इंग्लैंड और अमेरिका तक में इसकी शाखाएं खुल गई थीं। इस पुस्तक को पढ़ने से एक बात स्पष्ट रूप से समझ में आती है कि यह आंदोलन हिंसक नहीं था, जैसा कि यह आरोप तत्कालीन महाराष्ट्र सरकार और पुलिस लगाती थी। पवार लिखते हैं कि “इस काल में दलित पैंथर आंदोलन ने देश में तूफान–सा बरपा दिया। समकालीन सामाजिक-राजनीतिक आचार-व्यवहार को आमूल-चूल बदल दिया और देश में बढ़ते अन्याय और अत्याचारों से मुकाबला करने के लिए आंबेडकर के अनुयायियों में एक नई ऊर्जा का संचार किया। इस आंदोलन ने युवाओं के मानस को बदल डाला और वे आंदोलन के प्रतिबद्ध सैनिकों के रूप में सड़कों पर उतर आए। व्यवस्था के खिलाफ़ मजबूती से खड़े होकर उन्होंने पीड़ितों को राहत पहुंचाई। अपने अल्पकालीन जीवन में संगठन ने सरकार को हिला दिया और उसे गहरी तंद्रा से जगाकर दलितों की हालत का ध्यान देने के लिए मजबूर किया। दलित पैंथर का संघर्ष केवल दलितों की आर्थिक बेहतरी तक सीमित नहीं था। उसने उनके संवैधानिक अधिकारों और स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व के मूल्यों की स्थापना के लिए संघर्ष किया।” (पुस्तक में संकलित अंग्रेजी संस्करण की भूमिका से)
दलित पैंथर की स्थापना की पचासवीं सालगिरह पर आयोजित परिचर्चा को यहां सुनें
वास्तव में दलित पैंथर आंदोलन का इतिहास उसके समकालीन अन्य आंबेडकरवादी पार्टियों विशेष रूप से आंबेडकर द्वारा स्थापित आरपीअई का दलितों के साथ गद्दारी का भी इतिहास है। इस पुस्तक के करीब-करीब सारे अध्यायों में दलितों के संघर्ष और उनके बलिदान की महान गाथाएं हैं तथा किस तरह यह आंतरिक और बाह्य संकटों का सामना करते हुए आंदोलन करीब पांच वर्षों तक जीवित रहा। इस आंदोलन में अनेक घुमावदार मोड़ हैं तथा इसने काफी हद तक अपने को हिंसा से अलग रखा। कुछ छुटपुट हिंसा भी हुई, लेकिन यह शिवसेना और कांग्रेस के गुंडों द्वारा ही ज्यादा हुईं। प्रत्येक आंदोलन तथा संघर्षों के बाद केवल दलित पैंथर के कार्यकर्ता ही जेल भेजे गए, जहां उन्हें अमानवीय हालातों का सामना करना पड़ा। पुलिस तथा कांग्रेस समर्थित गुंडों द्वारा उनके कार्यकर्ताओं की हत्याएं भी की गईं। इस पुस्तक के लेखक ज. वि. पवार को भी लंबे समय तक जेल में रखा गया। इस संगठन ने संघर्षों के साथ-साथ अनेक रचनात्मक और सुधारात्मक काम भी किए। जैसे कि आंबेडकर के अप्रकाशित साहित्य को प्रकाशित करने के लिए महाराष्ट्र सरकार पर दबाव बनाया। इसके परिणामस्वरूप ही महाराष्ट्र में डॉ. आंबेडकर के संपूर्ण साहित्य का प्रकाशन संभव हुआ। अब तो भारत सरकार ने इसे हिंदी तक में भी प्रकाशित कर दिया है।
दलितों की वे ज़मीनें, जो सवर्णों ने हड़प ली थीं, उसे वापस दिलाने के लिए संघर्ष को भी इस संगठन ने अपना प्रमुख लक्ष्य बनाया था तथा इसमें भी जगह-जगह सफलताएं मिलीं। दलित पैंथर ने कई बार चुनाव का बहिष्कार करके आरपीआई को भी आईना दिखाया। उनका मानना था कि चुनाव से दलितों का कोई भी भला नहीं हो सकता। ज. वि. पवार ने खुद चुनाव लड़कर मंत्री बनने के प्रलोभन को ठुकरा दिया था।
कम्युनिस्टों और दलित पैंथर के संबंधों को लेकर भी इस पुस्तक में कुछ दिलचस्प बातें हैं। जैसे एक प्रसंग है कि जब एक आंदोलन के बाद पवार गिरफ्तार कर लिए गए, तो आरपीआई के लोग तथा उनके वकील जमानत लेने तक नहीं आए। परंतु एक कम्युनिस्ट वकील उनकी जमानत लेने के लिए आगे आया। पवार लिखते हैं कि “एक कम्युनिस्ट वकील कमलाकर सावंत हमारी मदद करने के लिए आगे आए। उन्होंने बिना एक पैसा लिए हमारी पैरवी करना स्वीकार किया तथा कोर्ट फीस भी अपनी जेब से भरी। वे वकालत को पैसा कमाने का साधन नहीं मानते थे, बल्कि अपनी वकालत का इस्तेमाल अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता को निभाने के लिए करते थे। इसके विपरीत रिपब्लिकन नेताओं ने फीस लेकर भी हमारी पैरवी करने से इंकार कर दिया था।” (पृष्ठ132)
कम्युनिस्टों और समाजवादियों को लेकर एक द्वंद्व हमें पुस्तक में लगातार देखने को मिलता है। इस संबंध में इस पुस्तक में एक कमी मुझे दिखाई देती हैं कि पवार ने कभी भी इस संबंध में अपना कोई स्पष्ट पक्ष नहीं रखा तथा इस आंदोलन के बिखराव के लिए कम्युनिस्टों को भी जिम्मेदार माना है। पुस्तक के अंत में इस आंदोलन के समकालीन 1966 में अमेरिका में शुरू हुए ब्लैक पैंथर आंदोलन पर भी कुछ प्रकाश डाला गया है। अमेरिका में अश्वेत लोगों के साथ हो रहे नस्लभेद तथा रंगभेद के खिलाफ़ यह आंदोलन शुरू हुआ, जिसे तात्कालीन अमेरिकी प्रशासन ने अमेरिकी लोकतंत्र के लिए एक बड़ा ख़तरा बतलाया था। यही कारण रहा कि इसके ढेरों कार्यकर्ताओं की पुलिस द्वारा हत्याएं भी की गईं। पवार ने लिखा है कि अश्वेत व्यक्ति रंगभेद और नस्लभेद से मुक्त होकर एक स्वतंत्र नागरिक की जिंदगी जी सकता है, परंतु एक दलित को जीवनपर्यंत अपनी जाति से मुक्ति नहीं मिल सकती है।
अमेरिका में ब्लैक पैंथर आंदोलन के समाप्त होने के बाद भी यह आंदोलन लगातार कई नामों से आगे भी चलता रहा है। जैसे कि आज कल वहां ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ आंदोलन चल रहा है। परन्तु दलित पैंथर अपने आंदोलन को आगे क्यों नहीं विकसित कर पाया? यह भी एक विचारणीय प्रश्न है।
इस पुस्तक के बारे में दलित विचारक आनंद तेलतुंबडे़ ने लिखा है– “आंबेडकर के बाद के दलित आंदोलन के लिए ज. वि. एक प्रकार के एनसाइक्लोपीडिया हैं। वे दलित पैंथर के संस्थापकों में से एक हैं, परंतु अन्यों के विपरीत, कभी व्यक्तिगत ख्याति के पीछे नहीं भागे। वे आंबेडकरवादी दलित आंदोलन के प्रति प्रतिबद्ध और अपने विचारों पर दृढ़ बने रहे।”
निस्संदेह भारत के समकालीन इतिहास और विशेषकर सबाल्टर्न, दलित आंदोलनों के अध्येताओं के लिए यह एक उपयोगी पुस्तक है। बहुजन कार्यकर्ता इससे बहुत कुछ सीख सकते हैं। इस पुस्तक के बिना कोई भी व्यक्तिगत या अकादमिक पुस्तकालय अधूरा होगा।
समीक्षित पुस्तक – दलित पैंथर : एक आधिकारिक इतिहास
लेखक – ज. वि. पवार
प्रकाशक – फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली
मूल्य – 250 रुपए (अजिल्द), 500 रुपए (सजिल्द)
(संपादन : नवल/अनिल)