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पोप ने तो मांग ली, भारत के द्विज कब मांगेंगे माफी?

इनुइट समुदाय के लगभग 1,50,000 बच्चों को 19वीं शताब्दी के अंत से लेकर 1970 के दशक तक जबरन कनाडाई और ईसाई परिवेश में लाने के लिए चर्च के आवासीय स्कूलों में रखा गया था। यद्यपि यह कोई सीधे-सीधे मानवीय जनसंहार नहीं था, क्योंकि हमारे अपने देश में सामूहिक जनसंहार की घटनाएं आम हैं, फिर भी पोप द्वारा माफ़ी मांगना ईसाईयत की दया, करुणा और प्रायश्चित जैसे गुणों को दिखलाता है। बता रहे हैं स्वदेश कुमार सिन्हा

गत 31 जुलाई, 2022 के जनसत्ता की एक ख़बर के अनुसार, वेटिकन सिटी के पोप फ्रांसिस ने कनाडा के इनुइट समुदाय के लोगों से मिलने के लिएकनाडा के उत्तरी प्रांत नूनावुत की यात्रा की। वे देश में चर्च द्वारा संचालित आवासीय विद्यालयों में मूलनिवासियों पर हुए अत्याचारों के पीड़ितों से वहां पर मिलकर सप्ताह भर लंबी प्रायश्चित तीर्थयात्रा का समापन करेंगे। वे करीब साढ़े सात हजार की आबादी वाले इकालुइट (नूनावुत प्रांत की राजधानी) पहुंचे और एक प्राथमिक विद्यालय में पूर्व छात्रों से मिले। उन्होंने अपने परिवारों से दूर किए जाने एवं गिरजाघर द्वारा संचालित सरकारी वित्तपोषित बोर्डिंग विद्यालयों में जाने के लिए मजबूर किए जाने के पूर्व छात्रों के अनुभवों को सुना। पोप ने इस मौके पर कहा– “मुझे बहुत खेद है और मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि वह कैथोलिक समुदाय के उन लोगों को माफ़ करे, जिन्होंने इन स्कूलों में संस्कृति को मिटाने की नीति में योगदान किया।” अगले दिन उन्होंने स्वीकार किया कि कनाडा में चर्च द्वारा संचालित आवासीय विद्यालयों के माध्यम से मूलनिवासियों की संस्कृति को खत्म करने का प्रयास करना एक सांस्कृतिक जनसंहार था। कनाडा से वेटिकन जाते हुए रास्ते में उन्होंने संवाददाताओं से कहा कि उन्होंने स्कूलों में कैथोलिक चर्च की भूमिका के लिए माफ़ी मांगने के लिए यह यात्रा की थी। कनाडा के एक मानवाधिकार आयोग ने 2015 में कहा था कि मूलनिवासियों के बच्चों को जबरन घर से निकालकर उन्हें आवासीय स्कूलों में रखना सांस्कृतिक जनसंहार था। लगभग 1,50,000 बच्चों को 19वीं शताब्दी के अंत से लेकर 1970 के दशक तक जबरन कनाडाई और ईसाई परिवेश में लाने के लिए चर्च के आवासीय स्कूलों में रखा गया था। यद्यपि यह कोई सीधे-सीधे मानवीय जनसंहार नहीं था, क्योंकि हमारे अपने देश में सामूहिक जनसंहार की घटनाएं आम हैं, फिर भी पोप द्वारा माफ़ी मांगना ईसाईयत की दया, करुणा और प्रायश्चित जैसे गुणों को दिखलाता है।

इसी तरह की एक और घटना करीब दो दशक पहले हमारे देश में हुई थी जब उड़ीसा के मयूरभंज जिले में एक आस्ट्रेलियाई मिशनरी ग्राहम स्टेंस और उनके दो मासूम बच्चों की कार में सोते समय जिंदा जलाकर हत्या कर दी गई थी। आदिवासियों के बीच स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए काम कर रहे ग्राहम स्टेंस पर आदिवासियों का धर्मांतरण कराने का आरोप लगाया गया। लेकिन बाद में जांच में यह आरोप गलत सिद्ध हुआ। उनके हत्यारे दारा सिंह को इस जघन्य कृत्य के बावजूद ग्राहम स्टेंस की पत्नी ने उसे क्षमा करने की अपील की थी।

सैकड़ों वर्ष पहले अमेरिका के मूलनिवासी रेड इंडियंस का बाहर से आए लोगों ने सामूहिक जनसंहार किया था। आज इसको लेकर अमेरिकी समाज में शर्म और प्रायश्चित का भाव है। अमेरिका में उन लोगों की याद में जगह-जगह स्मारक और संग्रहालय बनाए गए हैं। अमेरिकी जन-इतिहासकार हावर्ड जिन ने अपनी पुस्तक ‘द पिपुल्स हिस्ट्री ऑफ अमेरिका’ में अमानवीय एवं पाश्विक घटनाओं का विस्तार से वर्णन किया। जर्मनी में भी द्वितीय विश्वयुद्ध में हिटलर के शासनकाल में लाखों यहूदियों की श्रमशिविरों और गैस चैंबर में डालकर हत्याएं कर दी गईं। उस समय जर्मनी की बहुसंख्यक गैर-यहूदी जनता हिटलर के इस कुकृत्य की समर्थक थी, लेकिन आज वहां के हालात बिलकुल बदल गए हैं तथा वहां आज इस जनसंहार को राष्ट्रीय शर्म घोषित कर दिया गया है। यहूदियों के जनसंहार को दर्शाने वाले कई बड़े-बड़े संग्रहालय भी‌ स्थापित किए गए हैं। जर्मन लोगों का कहना है कि वे इन‌ अमानवीय घटनाओं को इसलिए याद करते हैं ताकि भविष्य में इस तरह की घटनाएं फिर न हों। यही कारण है कि अमेरिका तथा संपूर्ण यूरोप में हिंसा की संस्कृति तो‌ है, लेकिन इन देशों में भारत तथा अनेक एशियाई-अफ्रीकी देशों की तरह अब सामुदायिक हिंसा नहीं होती है। जैसे हमारे देश में दलितों, पिछड़ों तथा‌ जनजातियों के गांवों को घेरकर उनका सामूहिक जनसंहार हो अथवा 2002 में गुजरात एवं 1984 में दिल्ली जैसे दंगे। हमारे देश में हिंसा की संस्कृति ने करीब 5 हजार वर्ष पहले सभ्यता के प्रारंभिक काल में ही अपनी जड़ें जमा ली थीं, जो कमोबेश आज भी जारी है।

कनाडा में इनुइट समुदाय की एक महिला से बात करते पोप फ्रांसिस

ऋग्वेद में ऐसे ढेरों मंत्र मिलते हैं ,जिनमें इंद्र द्वारा बड़े-बड़े पुल तोड़ने तथा असुरों के विनाश का वर्णन मिलता है।‌ वास्तव में ये असुर, वे जनजातियां थीं, जो यहां के मूलनिवासी थे तथा‌ हजारों साल से इस ज़मीन पर निवास करते थे। उनका सफाया करके ही आर्यों ने यहां अपना विस्तार किया। ये प्राचीन जनजातियां हिंदू नहीं थीं। उनका अलग आदिवासी धर्म था, जो हिंदू धर्म से बिलकुल अलग था, लेकिन उन्हें अपने मूल धर्म, रीति-रिवाज़‌ और‌ संस्कृति से अलग करके उन्हें जबरन हिंदू बनाने की कोशिश की गई, जो आज भी जारी है।‌ हिंदू धर्म के दो प्रमुख महाकाव्य महाभारत और रामायण हैं। रामायण में राम की सहायता करनेवाले जिन बंदर-भालुओं का वर्णन मिलता है, वे‌ भी जंगलों में रहने वाली जनजातियां ही थीं, जिनका सहयोग राम ने लंका पर विजय तथा रावण का वध करने के लिए लिया था। लेकिन इसके बदले शूद्रों और जनजातियों को क्या मिला? इसका भी कुछ वर्णन इस ग्रंथ में मिलता है– शंबूक नामक एक शूद्र की हत्या राम ने ब्राह्मणों के कहने पर कर दी, क्योंकि उन्होंने राम से शिकायत की थी कि एक शूद्र तपस्या कर रहा है तथा यह करते हुए वह ब्राह्मण बनने की कोशिश कर रहा है तथा इसके प्रभाव से एक ब्राह्मण के पुत्र की मौत हो गई है। राम ने ब्राह्मण धर्म की रक्षा करने के लिए उस शूद्र तपस्वी की हत्या कर दी। महाभारत में भी एक प्रसंग आता है जब एक जनजाति युवक एकलव्य को द्रोणाचार्य ने केवल इसीलिए शिक्षा नहीं दी क्योंकि वह निम्न जाति का था। लेकिन जब वह अपने दम पर सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बन गया, तब द्रोणाचार्य ने छल से उसका अंगूठा गुरुदक्षिणा के रूप में मांग लिया, जिससे वह फिर कभी धनुष न चला सके। इस प्रकार द्रोणाचार्य ने ब्राह्मण और क्षत्रिय धर्म की रक्षा की। इस तरह के ढेरों वृतांत हिंदू धर्म के पुराणों, लोकगाथाओं में भरे पड़े हैं।

आज भी दलित, पिछड़ों और जनजातियों के लोगों को जीवन के हर क्षेत्र में उन्हें ‌आगे बढ़ने से रोकने के लिए यह परंपरागत प्रवृत्ति जारी है। हमारे ‌देश‌ में नट और भील सहित अनेक जनजातियों को अंग्रेजों ने अपराधी जाति‌ घोषित कर दिया था। यह धारणा कमोबेश आज भी है। जब शहरों में कहीं बड़ी चोरी या डकैती होती है तब उस इलाक़े में रहने वाले इन जाति के लोगों को पकड़कर जेलों में डाल दिया जाता है। निरपराध होने पर भी इन्हें यातनाएं दी जाती हैं। दुनिया भर में मानवाधिकार के हनन का शोर मचाने वाली हमारे देश की मानवाधिकार संस्थाएं इन पर चुप्पी साधे रहती हैं, क्योंकि यह मामला दलित, पिछड़ों और जनजातियों से जुड़ा हुआ होता है।

गुजरात में 2002 के दंगों के मामले में भले ही सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (जो कि उस समय वहां के मुख्यमंत्री थे) को क्लीन चिट दे दिया हो, लेकिन राज्य में अल्पसंख्यकों के इतने बड़े पैमाने पर नरसंहार की नैतिक जिम्मेदारी से ‌वे मुक्त नहीं हो सकते‌ हैं। लेकिन इन ‌घटनाओं के लिए माफ़ी मांगना तो दूर, संघ परिवार ने उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बना‌ दिया तथा उनके नेतृत्व में भाजपा ने लोकसभा चुनाव में भारी बहुमत से विजय भी प्राप्त कर ली। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने खुद ही उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद अपने ‌ऊपर सांप्रदायिक दंगों में शामिल होने के आरोपों को वापस ले‌ लिया। 

अगर हम भारतीय समाज को देखें, तो इन प्रवृत्तियों का कारण हमारे ‌इतिहास, संस्कृति और धर्म में निहित है, जिसमें हज़ारों वर्षों से एक ‌निर्मम जाति प्रथा मौजूद है। एक काला गुलाम‌ नीग्रो तो‌ अपनी दासता से मुक्त होकर एक स्वतंत्र नागरिक का जीवन जी सकता है, लेकिन हिंदू धर्म में एक दलित, पिछड़े और जनजाति समाज का व्यक्ति अपनी मृत्यु के बाद ही जाति के शोषण से मुक्त हो सकता है। प्राचीन समय से ही इन्हें पढ़ने-लिखने का हक नहीं था, यद्यपि ये लोग मिस्र, यूनान और रोम के गुलामों की तरह नहीं थे। ये आज़ाद थे, लेकिन अपनी जाति के कारण गुलामों से भी बदतर जीवन जीते थे। उनको श्रम का नाममात्र मूल्य मिलता था, जो काफी हद तक आज भी जारी है। बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान हो या महाराष्ट्र इन‌ सभी जगहों पर आज भी दलित-पिछड़े ज़ुल्म और‌ शोषण के शिकार हैं। बिहार में तो दो दशक पहले तक दलितों और पिछड़ों के बड़े-बड़े नरसंहार हुए हैं। यही कारण है कि दया, क्षमा और करुणा जैसे शब्दों की हिंदू धर्मग्रंथों में भरमार होने पर भी उनसे हिंदू वंचित हैं। संघ परिवार के लोग आज चाहे जितना भी अपनी महान संस्कृति और गौरवशाली विरासत का गुणगान करें, लेकिन कड़वी सच्चाई यही है।

आज ज़रूरत इस बात की है कि दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक और जनजाति समाज के लोग तथा प्रगतिशील चेतना से लैस उच्च जाति के बुद्धिजीवी भी जब तक इन अमानवीय मूल्यों के खिलाफ़ संघर्ष के लिए खड़े नहीं होंगे, तब तक हमारा समाज इस घोर अनैतिकता के दलदल में धंसा रहेगा।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

स्वदेश कुमार सिन्हा

लेखक स्वदेश कुमार सिन्हा (जन्म : 1 जून 1964) ऑथर्स प्राइड पब्लिशर, नई दिल्ली के हिन्दी संपादक हैं। साथ वे सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक विषयों के स्वतंत्र लेखक व अनुवादक भी हैं

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